गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

एक तर्क : बाबाओं के पक्ष में

इधर बाबाओं की शामत आई है. हिंदुस्तान का हर तथाकथित बुद्धिजीवी बाबाओं को पानी पी-पी कर कोस रहा है. शायद उसे लग रहा है कि इतना ज्ञानार्जन कर के भी वो अभी तक नौकरी में जूते चटका रहे हैं या दूसरों की चाकरी कर रहे हैं. और लम्पट बाबा सिर्फ लोगों पर आशीर्वाद बरसा कर अकूत दौलत इकठ्ठा कर रहे हैं. इधर जब से लोगों में समृद्धि बढ़ी है, वो अपने आगे किसी को कुछ भी समझने को तैयार नहीं है. बाबा की समृद्धि पर तो उसकी निगाह है, पर गलत तरीक़े से कमाये अपने रुपये उसे उचित जान पड़ते हैं. हर आदमी जब धन के प्रति लालायित है, तो उसे लगता है, उसके अलावा बाकि सबको महात्मा की तरह रहना चाहिये, ख़ास तौर पर बाबाओं को जिन्होंने अधिकारिक तौर पर माया को तिलांजलि दे रखी है. हाल ही में कुछ राजनेताओं ने तो बाबाओं को ढोंगी करार दे कर उन्हें पत्थर बाँध कर नदी में डूबा देने तक की बात कर डाली. धन्य हैं वो लोग जो अपनी सत्ता के आगे दूसरों की सत्ता से घबरा जाते हैं. ख़ुद तो हर ऐसा काम करने को तैयार हैं जिससे लक्ष्मी आती हो, पर दूसरा सिर्फ़ और सिर्फ़ ईमानदारी से धनार्जन करे. ऐसी ही स्थिति पर एक उक्ति बनी है, आपका प्यार, प्यार और हमारा प्यार चक्कर. 

भक्त होना ठीक है पर अंध भक्त होना नहीं. इतने सारे चैनलों पर इतने सारे बाबा अवतरित हो गये हैं कि गिनती करना मुश्किल हो गया है. और हर एक के पीछे हजारों-लाखों की भीड़ खड़ी है, तो ज़रूर भारत को उनकी ज़रूरत है. किसी भी व्यापार का सीधा यही सिद्धांत है. जिसकी डिमांड होगी वही चीज़ सप्लाई होगी. जिस देश में जनता का नियम-क़ानून-न्याय से विश्वास डगमगा जाये, प्रजातंत्र के नाम पर भेंड़तंत्र हावी हो जाये, और सामाजिक ढांचा चरमरा जाये, तो ऐसे में आम आदमी कहाँ जाये. किस दीवार पर सर मारे. किस कंधे पर सर रख के रोये. कोई सुनने वाला हो तो कह के ही हल्का हो ले. पे-कमीशनों और पे-पैकेजों से पहले पास-पड़ोस, संयुक्त परिवार हुआ करते थे. हर समस्या का समाधान आपस में ही निकल आता था. सबके साझा सुख दुःख हुआ करते थे. अब हर आदमी अपनी-अपनी लड़ाई लड़ रहा है. हमारे बुद्धिजीवी, जिनका आस्था - विश्वास से कुछ लेना - देना नहीं है, कहेंगे दिमाग़ ख़राब हो तो मनोवैज्ञानिकों के पास जाओ. बाबा के पास क्यों जाते हो. पर वो भी कोई मुफ़्त इलाज तो कर नहीं रहा है. अपने अंग्रेजी ज्ञान की पाई-पाई वसूल रहा है. और जो दवाइयाँ लिख भी रहा है उसके साइड एफ़ेक्टस भी कम नहीं हैं. वही काम तो बाबा बिना साइड एफेक्ट के मुफ़्त कर रहा है. जिन्हें आराम मिल जाये तो वो बाबा को अपना तन-मन-धन सब न्योछावर करने को तत्पर हो जायें तो इसमें गलत क्या है.


कोई भी बाबा गलत बात तो सिखाता नहीं है. अच्छी-अच्छी बातें बताता है, जो अमूमन सबको पता हैं. सच बोलो. पडोसी से प्रेम करो. समाज सेवा करो. प्यासे को पानी पिलाओ और भूखे को खाना खिलाओ. घंटे-दो घंटे के प्रवचन को लोग श्रद्धा भाव से सुनते हैं. कम से कम उन दो-घंटों में तो वो कोई बुरा काम नहीं कर रहे हैं. घर जाते-जाते भी उसका कुछ प्रभाव ज़रूर बचता होगा. हर कोई तो धक्का-मुक्की कर के बाबा को सुनने जा नहीं रहा. जिसमें कुछ जिज्ञासा होगी वो ही वहाँ तक पहुँच सकता है. हम अपने ज्ञानियों को ये बहुत ही सहज रूप से कहते और गर्वोक्ति स्वीकार करते सुन सकते हैं कि भारत सदियों से विश्व का अध्यात्मिक गुरु रहा है. हममें से हर किसी ने महसूस किया होगा कि धरती पर अगर कहीं भगवन बसते हैं, तो सिर्फ़ अपने भारत में. घर से दफ़्तर के रास्ते में जितने मंदिर-मजार पड़ते हैं, सर झुक ही जाता है. गैस सिलिंडर के लिये लाइन लगानी हो तो भगवान के आगे मत्था टेक कर निकलते हैं, कि हे भगवान आज गैस का ट्रक आ जाये. बच्चे का विज्ञान का परचा हो तो उसे दही-चीनी खिला के भेजा जाता है. शायद सरल प्रश्न-पत्र की उम्मीद रहती हो. पंडित से बिना बिचरवाये न तो शादी हो रही है, न समस्याओं का समाधान हो रहा है. पहले तो शादियाँ बिना कुंडली मिलाये हो भी जातीं थीं, पर अब विदेश में बसे लडके-लड़की के भी ३६ गुण मिला के देखे जाते हैं. ये बात अलग है कि शादी वहीं होने की सम्भावना ज्यादा होती है, जहाँ माल ज्यादा मिले. लोगों का गला और उंगलियाँ नाना प्रकार के मणि-माणिक्यों से लदा नज़र आना एक सामान्य सी बात है.

हम मोहल्ले के एक दबंग के आगे नतमस्तक हो जाते हैं. इलाके का सभासद पार्क पर कब्ज़ा कर लेता है और हम उसके रसूख से डर कर उससे अपने सम्बन्ध बनाये रखते हैं. सरकारी दफ्तरों के बाबुओं का पेट भरने में हमें कतई संकोच नहीं होता, भ्रष्ट और देशद्रोही अफसरों के हम तलुए चाटने से भी नहीं चूकते. हत्यारों, बलात्कारियों, घोटालेबाजों को कानून से खिलवाड़ करने का अधिकार है. आतंकवादियों को पश्रय देना कोई हमारे विपक्षी नेताओं से सीखे. आतंकियों को भी वकील मिल जाते हैं. राजनेताओं और माफियाओं के मकडजाल में आम आदमी का जीना ही जी का जंजाल बन गया है. ऐसे में अगर एक आसरा, एक संबल नज़र आता है, तो वो है भगवान का. और उन तक पहुँचने के माध्यम हैं, बाबा जी. कम से कम बाबाओं की फ़ौज देख कर भारत में तो ऐसा ही लगता है. 

मेरे एक मित्र के भाई ऑस्ट्रेलिया में बसे हुए हैं. उनके माता-पिता जी कई बार वहाँ जा चुके हैं. हर बार जब वो अपने अनुभव बाँटते हैं तो लगता है, जहाँ कानून और व्यवस्था का राज होता है, वहाँ न भगवान की ज़रूरत है न बाबाओं की. क्योंकि उनकी डिकश्नरी में भी भ्रष्टाचार-अपराध-रिश्वत आदि के समानार्थी शब्द हैं, इसलिये वहाँ भी मानवोचित स्वभाव के सभी कार्य हो रहे होंगे. किन्तु आम आदमी उससे कम से कम प्रभावित होता है. एक बार उनके भाईसाहब परिवार के साथ हार्बर ब्रिज घूमने गए. पिता जी ने विशुद्ध भारतीय अंदाज़ में कुछ खा कर उसका कागज़ (बाकायदा गोली बना कर) हार्बर ब्रिज से नीचे समुन्दर में गिरा दिया. ये देखते ही उनका ढाई साल का बच्चा चीख पड़ा, "पापा, बाबा हैज़ लिटर्ड". बच्चे की इस सत्यनिष्ठा की कीमत उन्हें पेनाल्टी दे कर चुकानी पड़ी. वहीं घर के अंदर किचेन में माता जी ने बहू का काम आसन करने के उद्देश्य से बर्तन माँजने का प्रयास किया. फिर उस देवदूत ने बहता नल देख, दादी को नसीहत दे डाली "दादी यू आर वेस्टिंग वाटर". एक सन्नाटी सड़क पर वही भाईसाहब किसी की फेंस में अपनी कार घुसेड बैठे. उतर कर मकान की घंटी बजाई, आस-पास देखा, कोई आदम न आदम जात. भाईसाहब ने सोचा जब किसी ने देखा नहीं तो निकल लो. पर ऑफिस पहुँचते ही फोन आया कि थाने चले आओ, दुर्घटना करके रिपोर्ट न करने पर भी पेनाल्टी है. और इंश्योरेंस क्लेम से बिना ज़्यादा लिखा - पढ़ी के उस फेंस का पुनः निर्माण हो गया. मेरे एक मित्र को वियतनाम जाने का मौका मिला. कोई वैज्ञानिक गोष्ठी थी. जिसमें वहाँ के मंत्री और विभाग के मुखिया को भी आना था. नियत समय पर कार्यक्रम बिना मुख्य अतिथि के आरंभ हो गया और मुख्य अतिथि बीच में ही आकर अपने आसन पर बैठ गए. कार्यवाही निर्बाध रूप से चलती रही. कोई बुके ज्ञापन या अपने स्थान पर खड़े होने जैसी औपचारिकता की भी आवश्यकता नहीं समझी गयी. एक मित्र कीनिया और नाइजेरिया रह कर लौटे. उन्होंने बताया वहाँ सुबह-सुबह लोग रेलवे लाइन की पटरियों पर तीतर लड़ाने नहीं जाते. बल्कि उन्होंने पूरे अपने प्रवास के दौरान किसी को कहीं भी तीतर लड़ाते नहीं देखा. एक नाइजेरियन हमारे यहाँ ट्रेनिंग पर आया, वो हतप्रभ रह गया जब प्रातः भ्रमण के दौरान सब उसे घूर रहे थे पर उसकी गुड मोर्निंग का किसी ने जवाब देना भी उचित नहीं समझा. ये सब मै इसलिये लिख रहा हूँ कि आप ये महसूस कर सकें कि भगवान तो यहीं बसते हैं, बाकि जगह आदमियों का वास है और अगर वाकई हम सुधारना चाहते हैं तो किस उम्र से प्रयास करना चाहिये. या तो आदमी नियम-कानून से चल सकता है, या समाज से, या धर्म से. किसी का तो डर होना चाहिये. पर दबंगों के देश में सिर्फ समझदार को जीने की इजाज़त है. मूर्खों के ऊपर ही तो ये समझदार टिके हैं. किसी भी नेता या अभिनेता का मंदिर तो बन सकता है. उन्हें चाँदी-सोने से तौला जा सकता है, पर बाबा जो किस्मत और समय के मारे लोगों को जीवन जीने का हौसला दे रहा है, वो कैसे सोने के सिंघासन पर बैठ सकता है. 

सबके अपने-अपने हुनर हैं. कोई झूठ बेच रहा है, कोई छल. रोज धन को अल्प समय में दो गुना-चार गुना करने के प्रलोभन दिये जा रहे हैं. काले जादू वाले बहुतों की मन माँगी मुराद पूरी कर रहे है. खानदानी शफाखाने अभी भी सड़क के किनारे दिख जायेंगे. नीम-हकीमों में हमारी आस्था कम नहीं हुई है. गंजों के सर पर बाल उगाये जा रहे है. रातों-रात सिर्फ चाय पी कर एक्स्ट्रा फैट को गायब किया जा रहा है. इन्टरनेट फ्राड और शेयर के माध्यम से लोगों के पैसे निकलवाये जा रहे हैं. सबका लक्ष्य भोली-भाली जनता है, जो 125 करोड़ पार कर चुकी है. 125 से ऊपर दो-चार करोड़ जो घुसपैठ कर के देश में घुस आये हैं, उनकी चिंता नहीं है. वो खुद किसी न किसी तरह लूट-खसोट कर खा-पी रहे हैं. अगर आप में कोई भी हुनर है, आजमाइये इस देश में कद्रदानों की कमी नहीं है. जहाँ लोग आरती की थाली के लिये 5 रूपये का सिक्का अलग से ले कर जाते हों, वहाँ कोई बाबा को लाखों दान कर दे, तो शक़ नहीं होना चाहिये जो मिला होगा वो दान से कहीं ज़्यादा होगा.

मेरे मित्र जिनके भाई ऑस्ट्रेलिया में बस गये हैं, उनके माँ-बाप अपने उसी लायक बेटे के गुण गाते रहते हैं. और मेरे मित्र के जीवन का लक्ष्य है, अपने वृद्ध माता-पिता को खुश रखना-देखना. एक बाबा जिसे उसने गुरु मान रखा है, उससे ये कह कर ढाढ़स बँधाता है कि बेटा प्रभु की इच्छा सर्वोपरि है. वो जिस हाल में रखे उसी का आनंद लो. निष्काम भाव से कर्म किये जाओ. ईश्वर सब देख रहा है. तुम्हें तुम्हारे सत्कर्मों का फल अवश्य मिलेगा. गुरु की तस्वीर जो उसने गले में और घर की दीवार पर टाँग रखी है, उसे हर विपत्ति और गलत कामों से बचाती है. कम से कम उसका तो यही मानना है.

-वाणभट्ट       

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

उगता सूरज


टहलने के नेक इरादे से घर के बाहर कदम रक्खा ही था कि शर्मा जी मिल गए.

"भाई वर्मा जी, क्या बात है पूरा महीना निकल गया और आपने कोई पोस्ट नहीं चेपी. ख्याल चुक गये क्या. आपकी ब्लॉग फ्रीक्वेंसी बहुत कम है. और लोग हैं कि रोज़-रोज़  चेप रहे हैं."

मैंने एक्सप्लेन करने कि मुद्रा में बचाव किया "शर्मा जी, मै कोई रेगुलर लेखक या कवि तो हूँ नहीं. जब भड़ास हद से गुज़र जाती है तो उड़ेल देता हूँ. मेरी इस दिशा में फिलहाल कोई कैरियर बनाने की कोई इच्छा भी नहीं है. वैसे भी ब्लॉग लिखने की प्रक्रिया बहुत उत्साहवर्धक नहीं है. पूरी जान लगा के लिखो तो खींचखांच के २५-३० पाठक ही मिलते हैं. तीन साल में फोल्लोवर लिस्ट अभी ३० के पार पहुंची है. जिसमें एक तो मैं खुद ही हूँ. इस चक्कर में दूसरों के पता नहीं कैसे - कैसे ब्लॉग पढ़ने पड़ते हैं, सो अलग से. कभी-कभी दिल टूट जाता है. और इच्छा होती है कि बस बहुत हो गया अब ब्लॉग नहीं लिखूंगा. पर क्या करूँ जब विचार दिमाग फाड़ने लगें तो यही एक जगह है जहाँ जा के हल्का हुआ जा सकता है. अपना कोई पब्लिशर तो है नहीं. एक बार पैसा दे कर कविता संग्रह छपवा तो लिया पर अब समस्या ये है कि जो कॉम्प्लीमेंट्री २५ कॉपियाँ मिलीं थीं उनका क्या करूँ. पिछले हफ्ते तो अति हो गयी. बीवी कहती है बिग बाज़ार में सेल लगी है. कबाड़ बेचो तो २५% तक डिस्काउंट मिल रहा है. तीन-चार किलो की तो ये होंगी ही. खामख्वाह बच्चों की अलमारी घेर रक्खी है. मैंने शायद बहुत घूर के देखा होगा, दो-चार दिन स्वाद का तड़का खाने में नहीं लगा."

शर्मा जी मेरे उन हिमायतियों में से हैं जो नियमित रूप से मेरे ब्लॉग पर पहुँच कर अपनी उपस्थिति ज़रूर दर्ज कराते हैं. मेरे प्रशंसक कम आलोचक ज्यादा. वैसे भी मै जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आलोचकों के प्रति सदैव आभारी रहा हूँ. ये ही वो जीव हैं जो आदमी को आदमी बनाये रखते हैं. वर्ना जिसे सिर्फ चढाने वाले मिल जायें, उसे खुदा बनते देर लगती है क्या. और कोई किसी को तब तक नहीं चढ़ाता जब तक उसका कोई स्वार्थ-सिद्ध न होता हो.

शर्मा जी ने उवाचा, "वर्मा जी ब्लॉग को पॉपुलर करना भी हुनर है. आप वाणभट्ट के छद्म नाम से लिख रहे हो. अरे, वाणी भट्ट के नाम से लिखो. जब नाम छद्म है ही, तो क्या स्त्रीलिंग, क्या पुल्लिंग. इन्टरनेट से किसी मॉडल की खूबसूरत फोटो ले कर चेप दो. देखो फॉलोवर्स लिस्ट कैसे बढ़ती है. एक तो आपको कोई ढंग का नाम नहीं मिला. दूसरे खच्चर पे सवार किसी खणूस की फोटो लगा रक्खी है. बताओ कैसे लोगों को आकर्षित करोगे. लेखनी में भी दम  है नहीं. उथली-उथली बातें करते हो. गाम्भीर्य का सर्वथा अभाव है. लोग ब्लॉग को ले कर कितने सीरियस-संजीदा हैं. और आप हैं कि हें-हें, हें-हें कर रहे हैं. मेरा बताया नुस्खा आजमाइए और देखिये कामयाबी आपके कदम चूमेगी. हम वो नहीं हैं जो ख्वामख्वाह फाख्ता उड़ाते हैं (अंतर्मन की आवाज़ - गोया फाख्ता उड़ाने का भी कोई परपज होता है). बात में वज़न हो तो लोग ख़ुद-ब-ख़ुद  खींचे आते हैं."

वज़न का ज़िक्र आते ही मुझे अपने बढ़ते वज़न की याद हो आयी. इसीलिये तो मैंने टहलना शुरू किया है. सरसरी तौर पर शर्मा जी की कमर पर मेरी नज़र दौड़ गयी. माशाअल्ला, कमरा बनने की कगार तक पहुँच गयी थी. शर्मा जी ने मुद्दा थमा दिया था. मुझे उम्मीद जग गयी कि आज शाम तक एक ब्लॉग अवतरित हो जायेगा. मैंने फटाफट शर्मा जी को उनके नेक विचारों के लिए धन्यवाद दिया और सरपट खच्चर गति से निकटवर्ती पार्क की ओर अग्रसर हो गया.

इस देश ने आज़ादी के बाद काफी सम्पन्नता हासिल की. जो हर तरफ परिलक्षित हो रही है (गाम्भीर्य भरने का प्रयास). जिसे देखो गाड़ी-घोड़े बदल रहा है. मंहगाई के साथ ही एक से एक विशाल अट्टालिकायें बन रही हैं. लोग अपनी नव अर्जित संम्पत्ति का शर्मनाक प्रदर्शन करने का कोई अवसर नहीं चूकते. अभी तक लक्ष्मी सिर्फ व्यापारियों या भ्रष्टाचारियों पर ही मेहरबान थीं, पर अब तो सरकारी तनख्वाहों पर पलने वालों पर भी उनकी कृपा दृष्टि पड़ रही है. पे कमीशन और निरंतर बढ़ रहे डी.ए. के कारण अब सरकारी नौकरी भी उतनी बुरी नहीं रह गयी है, जितनी हुआ करती थी. प्राइवेट में तो जिसे देखो लाखों के पैकेज पर काम कर रहा है. कुछ प्रोफेशनल लोग तो अब प्राइवेट छोड़ कर सरकारी नौकरियों का रुख़ कर रहे है. जहाँ नियमित आय के साथ-साथ कुछ सिक्यूरिटी भी मिल जाती है. कहने का मौजूँ ये है कि हर तरफ समृद्धि की बहार है. समृद्धि हर जगह टपकी पड़ रही है या कहें फटी पड़ रही है, तो ज़्यादा उपयुक्त होगा. (गंभीरता बहुत हो गयी अब औकात पर आ जाता हूँ.)

सबसे ज्यादा फर्क पड़ा है आदमी के वज़न में. (शर्मा जी संभवतः अब खुश हो जायें क्योंकि मैंने बात-बात में वज़न डालने की कोशिश की है). घूमने-खेलने के संसाधनों में ज्यादा वृद्धि तो नहीं हुई है, पर खान-पान के आलयों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हर तरफ सहज दिख जाती है. गली-कूचों और कस्बों में फ़ूड जॉइंट खुल गये हैं और लगातार खुल रहे हैं. केऍफ़सी, पिज़ा हट, डोमिनो, मेक्डोनाल्ड, सबवे आदि-आदि न जाने कितने मल्टी नेशनल रेस्टोरेंट्स अब बड़े शहरों में नहीं रीवा, मीरजापुर, इलाहाबाद, कानपुर जैसे शहरों में भी पॉपुलर होते जा रहे हैं. नियोन लाइट में सजे इनके होर्डिंग्स हर जगह दिखना अब आम बात हो चली है. लोगों को भी कम पैसे में ज्यादा कैलोरी की चीजें जितना आकर्षित करतीं हैं, उतनी हाई फाइबर, लो कैलोरी वाली नहीं. जंक फ़ूड का ज़माना है. बच्चे चॉकलेट और कुरकुरे के लिये तो होम वर्क भले कर लें, पर दादी के हाथ के बने फरे देख घर छोड़ भाग जाते हैं. मटर का निमोना उन्हें बहुत शैबी लुक देता है पर मंचूरियन की गंदली करी वो बड़े स्वाद से खाते हैं. लिहाजा ऐसे फ़ूड जॉइंट्स की बाढ़ आ गयी है. और उन पर शाम होते-होते लोग बर्र के छत्ते सा टूट पड़ते हैं. अफोर्ड करने की बात है. आप के.ऍफ़.सी. से लेकर सड़क किनारे चुन्नू नूडल कार्नर तक कहीं भी मुंह मार सकते हैं. चाइनीज़, थाई, इटालियन या स्पनिश जैसा भी टेस्ट रखते हैं, हर प्राइस रेंज में चीजें उपलब्ध हैं. और लोग है कि अपनी समृद्धि का एक बड़ा हिस्सा घर के बाहर खाने में खर्च कर रहे हैं. अजीनोमोटो डाल-डाल के ये विदेशी व्यंजन आपके मुंह को लार से भर देते हैं. और आप उनके स्वाद के एडिक्ट बन जाते हैं. खैर समृद्धि आपकी है, पेट आपका है, तो खाइये दिल खोल के. घूमना-सैर-सपाटा अभी भी मंहगा है. अच्छे क्लब की मेम्बरशिप तो पैदायशी समृद्धों के लिये है.

गुड डे बिस्कुट का एड आता है कि काजू है तो दिखना चाहिए. वैसे ही समृद्धि हो तो छलकनी चाहिए. कंज्यूमर ड्यूरेबल में तो जो लगाओगे वो तो एक दिन में ख़त्म होगा नहीं. सो लोग कंज्यूमर नॉन-ड्यूरेबल से ही अपनी पहचान बनाने में लग गए हैं. कपडे ब्रांडेड, चश्मे ब्रांडेड, परफ्यूम ब्रांडेड, और तो और खाना भी ब्रांडेड. मिठाई की जगह चॉकलेट ने ले ली है. घर में पार्टी देने के बजाय मेक्डोनाल्ड में ही गेस्ट बुला लेना लेटेस्ट फैशन है. किसी माध्यम वर्गीय परिवार में बिन बुलाये भी पहुँच जाइये तो वो आपकी खातिर रोस्टेड काजू और गरिष्ठ मिठाइयों से कर सकता है. कुल बातों का लब्बो-लबाब ये है कि समृद्धि का एक बड़ा हिस्सा आदमी आज अपने खाने पर खर्च कर रहा है. 

और ये समृद्धि पता नही कैसे-कैसे और कहाँ-कहाँ से छलकती है, सुभानल्लाह. किसी ने पैंट ३६ से ४० करा रक्खी है, तो पीछे एक विक्टरी वाला वी बनता है, मानो जग जीत लिया. कहीं बेल्ट बेचारी स्ट्रगल करती नज़र आती है. कहीं तोंद शर्ट की बटनों के बीच से बाहर के नज़ारे लेने को आतुर दिखायी देती है. ओवर वेट होना आज का स्टेटस सिम्बल है. बचपन से ही बेटा अपना नाम करना शुरू कर देता है, देखते ही लगता है किसी खाते-पीते घर का नुमाइन्दा है. महिलाओं का तो हिन्दुस्तानी पोशाक में विशेष ध्यान रक्खा है. जितना चाहो उतना बड़ा फलेंटा मार लो. फिर बढ़ते कमरे के हिसाब से कुर्ते और सलवार में दाब छोड़ दो. यहाँ तो पुरुष भी धोती ही पहनना पसंद करते थे. पर भला हो अंग्रेजों का जो पतलून इस देश में इंट्रोड्यूस कर गए. जींस ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी. बढ़ने की कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी. ये मै कहाँ आ गया. आज तो मूड वज़नदार बात करने का था पर मै वापस अपने स्टैण्डर्ड पर आ गया.

समृद्धि का सीधा असर हमारे रहन-सहन पर पड़ता है, उसका असर खान-पान पर और उसका असर वज़न पर. तो भैया समृद्धि इज डायरेक्टली प्रपोशानल टु वज़न. जितने लोग दुर्भिक्ष में भूँख से नहीं मरे होंगे, उतने आज खा-खा के मर रहे हैं. वज़न अपने साथ कई महान बीमारियाँ भी लाता है. पर भाई लोगों का मानना है, बीमारी भी हो तो पैसे वाली. जिसके इलाज में जितना खर्च, वो उतना अमीर. कुछ लोगों के तो शरीर से कोलेस्ट्राल टपकता दिखाई पड़ता है. पर भाई का कौनफिड़ेंस इतना तगड़ा है की रोटी सूखी तो गले से उतरती ही नहीं. अपने मोबाइल में शहर के हार्ट स्पेशलिस्ट का नंबर फीड कर रक्खा है. उनसे बात भी कर रक्खी है. ५०-६० हज़ार में बाइपास और डेढ़-दो लाख में मेडिकेटेड स्टंट पड़ जाता है. कानपुर में रीजेंसी में फाइव स्टार सुविधा है तो दिल्ली में अपोलो और एस्कोर्ट है ही. वज़न ज्यादा है तो लोड तो घुटनों पर ही पड़ेगा. घुटना प्रत्यरोपण के लिए तो हर ओर्थोपेडिक सर्जन का हाथ खुजला ही रहा है. 

डॉक्टर खुद तो अपने स्वास्थ्य का ख्याल खान-पान से करते हैं पर रोगियों को सिर्फ दवा पर निर्भर रहने की सलाह देते हैं. बहुत ही गया बीता डॉक्टर होगा जो अपने शरीर का ख्याल न रखता हो. पर वो कभी मरीज़ को प्राणायाम या योग की सलाह नहीं देगा. खुद तो जिम जा कर अपना पसीना बहा लेगा पर क्या मजाल की मोटे लाला को वर्जिश की सलाह दे. बोलता है लाला तू खाए जा, मै हूँ ना.

बहुत पहले अमिताभ की एक फिल्म आई थी जिसमें उन्होंने सुबह उठ कर कसरत करने की सलाह बहुत ही बढ़िया ढंग से दी थी. उसका आशय कुछ इस प्रकार था कि जिसने उगता सूरज नहीं देखा वो लेटे-लेटे ही तकिया पर सर रक्खे-रक्खे ही उगता सूरज देखेगा. उस समय ये बात मेरे पल्ले नहीं पड़ी थी. अब जब मेरे पास तोंद जैसी चीज़ का अविर्भाव हो चुका है, मै उस गीतकार को उगते सूरज की कल्पना के लिए कोई भी रत्न देने को तैयार हूँ. ये बात अलग है की हम भारतवासी अक्सर डाक्टरी सलाह के बाद ही सूर्योदय देखने का प्रयास करते हैं.    

यहाँ ये बताना भी ज़रूरी है भारत विषमताओं का देश है. जहाँ लोग खा-खा के मर रहे हैं, वहां भूख से मरने वाली खबरें भी यदाकदा आती रहतीं हैं. ये बात दीगर है कि सरकारें उनकी लीपा-पोती में लग जातीं हैं. जहाँ थुलथुल शरीर में मोटे नज़र आते हैं वहां कुपोषण से त्रस्त बच्चे भी भयावह भविष्य का संकेत देते हैं. मुझे लगता है जहाँ फ़ूड फॉर आल आज़ादी के साठ दशक बाद भी सपना है, वहां अति-आहार को राष्ट्रीय अपराध की श्रेणीं में डाल देना चाहिए. अमीर आदमी दिन में दाल तो खाता ही है और रात में चिकेन तोड़ने से भी बाज नहीं आता. गरीब का तो प्रोटीन दाल से ही आता है और भाई का सरप्लस प्रोटीन को ना पचा पाने के कारण यूरिक एसिड बढ़ जाता है. इसलिए देश की खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से हर व्यक्ति के बॉडी-मास  इंडेक्स के अनुसार डायट चार्ट बनना चाहिए. उसी हिसाब से खुराक तय होनी चाहिए. जैसे कोई भी आदमी ज्यादा अमीर दूसरों का हक मार के ही बन सकता है वैसे ही मोटापा दूसरे के हिस्से का खाना खाने से बढ़ता है. मेरे शरीर का जो दो इंच फैट बढ़ा है, वो निश्चय ही किसी और के काम आ जाता अगर मैंने पहले ही उसे बाँट दिया होता. अब सुबह-शाम जोग्गिंग करके भी उसे गलाना मुश्किल हो रहा है. मेरे एक मित्र जापान में कुछ वर्ष बिता के लौटे हैं. बता रहे थे की वहां हर आदमी का हेल्थ इंश्योरेंस होता है. उसका प्रीमियम बॉडी-मास इंडेक्स के अनुसार घट या बढ़ सकता है. अगर आप अपने स्वास्थ्य के लिये चिंतित नहीं हैं तो बीमे की अधिक राशि पे कीजिये. हमारे देश के नियंता वैसे तो ब्लॉग पढ़ते नहीं पर उम्मीद है कुछ सरकारी आला अफसरों की निगाह इस पर पड़ जाये. स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह लोगों को कुछ तो पेनाल्टी लगनी ही चहिये, इस आशय से मै इस विचार को चेप रहा हूँ. विचार कौन सा मेरा वो चाहें तो क्रेडिट ले लें. 

कल सुबह हो सकता है मुझे शर्मा जी के कोप का भाजन बनना पड़े. पर समृद्ध और स्वस्थ भारत के लिए मै ये मोर्चा भी झेल लूँगा. शर्मा जी को नाराज़ भी नहीं कर सकता, उन्हीं जैसे सुधी पाठकों के लिये ही तो मै उदगार व्यक्त करता हूँ. शर्मा जी अब कम से कम ये नहीं कह सकते वाणभट्ट की बात में वज़न नहीं है.  

- वाणभट्ट 

पुनश्च: इस लेख का आशय स्वास्थ्य के प्रति लोगों को जागरूक करना है ना कि मोटापे से ग्रस्त किसी का मजाक उड़ना. आशा है पाठक इसे इसी सन्दर्भ में पढेंगे. 

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म य...