यहाँ कम से कम तीन हाथी की गहरायी होगी. बच्चों की भीड़ में से कोई चिल्लाया. हर साल बाढ़ के आने का उसी बेसब्री से इंतज़ार होता था जैसे होली और दिवाली का. उम्र के उस पड़ाव पर बाढ़ की त्रासदी से सब बच्चे अनजान थे. दूसरी क्लास के बच्चे से उम्मीद भी क्या की जा सकती है. स्कूल काफी ऊँचाई पर था. वहाँ तक बाढ़ का पानी नहीं पहुँचता था. स्कूल के पूरब की ओर गंगा जी के कछार का विस्तार इतना फैला हुआ था कि बाढ़ आने पर समुन्दर का एहसास होता था. तब समुद्र देखा नहीं था लेकिन बाद में जब सुअवसर मिला तो भी नज़ारा कुछ अलग सा नहीं लगा.
प्रयाग स्टेशन के पास गंगा जी के कछार में हुआ करता था, हमारा एनी बेसेंट स्कूल. चूँकि मोहल्ले से सभी बच्चे उसी स्कूल में पढ़े थे या पढ़ रहे थे, तो पेरेन्ट्स को किसी प्रकार का संशय नहीं था कि अपने होनहारों को किस स्कूल में भेजना है. रेलवे ट्रैक के बगल-बगल चलते हुये मोहल्ले के बच्चों का पूरा दल चलता था. छठवीं से लेकर आठवीं के बच्चों को बड़ा माना जाता था. और उनके पास छोटे बच्चों को हाँकने का सर्वाधिकार सुरक्षित था. इसमें कान उमेंठने से लेकर कंटाप जड़ने तक का अधिकार मिला हुआ था. फिर भी यदि कोई गियर में न आये तो घर में शिकायत करवा कर कुटवाने का विशेषाधिकार भी शामिल था. यदि ओलम्पिक में रेलवे ट्रैक पर बैलेन्स करके चलने की प्रतियोगिता हो तो कोई शक़ नहीं कि चैम्पियन हमारे एनी बेसेन्ट से निकले. बच्चे ध्यान की उच्चतम अवस्था पर होते थे जब अपर इण्डिया ट्रेन के इन्जन का ड्राइवर उसे भंग करने के लिये बार-बार सीटी बजाता. बाद में उस ट्रेन के ड्राइवर्स पहचान गये थे और बच्चों के लिये डिमांड पर सीटी बजाते. वो रेलगाड़ी का जमाना था, कोयले वाले स्टीम इंजन थे, हॉर्न पों करके नहीं कू करके बजते थे. ट्रेन चलती थी - कू उ उ उ छुक-छुक-छुक-छुक.
एनी बेसेंट में पढ़ने के कुछ खास फ़ायदे थे. इस स्कूल की कोई बाउन्ड्री नहीं थी. जहाँ तक भाग सकते हो भाग लो. कछार और स्कूल को एक लम्बी सीधी सड़क सेपरेट करती थी. नर्सरी सेक्शन के पीछे की तरफ़ एक जंगल था. जिसमें छुपम-छुपाई जैसे खेल होते थे. बाघों का डर दिखा कर शिक्षिकायें बच्चों को उधर जाने से रोकने का असफल प्रयास भी करती थीं. खेल के चार बड़े-बड़े मैदान थे. सबका लेवल गंगा जी ने अपने कटान से बनाया हुआ था. एक बड़ी प्रार्थना सभा का ग्राउन्ड अलग था जिसमें पूरा स्कूल एक साथ प्रेयर करता था. छोटे बच्चों के लिये एक छोटा प्ले ग्राउन्ड. 15 अगस्त और 26 जनवरी पर झण्डे को सलामी दी जाती और महीने भर ड्रिल का रिहर्सल होता. दूर से आने वाले बच्चों के लिये बसों की सुविधा भी थी. बिल्डिंग इतनी बड़ी थी कि नर्सरी-केजी से लेकर आठवीं तक सभी क्लास के दो सेक्शन आराम से लग सकें। बिल्डिंगें भी दूर-दूर फैल कर बनी थीं। यदि कोई बच्चा पानी पीने के लिये निकले तो आसानी से क्लास खत्म होने तक इधर-उधर घूम सकता था. बशर्ते किसी टीचर की नज़र न पड़े. टीचर्स इतनी पर्सनल थीं कि स्कूल के अन्दर हों या बाहर, यदि स्कूल के बच्चे कुछ गलत करते मिल जायें तो यथोचित पुरस्कार या प्रवचन मिलना तय था. एक बच्चे को मुर्गा सिर्फ़ इसलिये बनाना पड़ा कि उसने पानी की टंकी पर लिखे ब्रह्म वाक्य को थोड़ा परिवर्तन कर के बोल दिया था - पानी बहाओ, पियो मत. दुर्योग से प्रिन्सिपल वहीं से गुजर रही थीं. बीच में एक लाइब्रेरी और बड़ा सा हॉल था. हॉल में महापुरुषों की फ़ोटोज़ और कोट्स लगे हुये थे. वहीं पर विवेकानन्द जी का कोट - सभी नदियाँ जिस तरह अंत में समुद्र में विलीन हो जाती हैं उसी प्रकार धर्म के अनेकानेक मार्ग ईश्वर तक पहुँचते हैं - से पहली बार सामना हुआ था. कभी-कभी उस हॉल में केन्द्रीय फ़िल्म प्रभाग द्वारा निर्मित साक्षी गोपाल और सत्यवादी हरिश्चंद जैसी शिक्षाप्रद फ़िल्में दिखायी जाती थीं. आज के युग में संस्कार छोड़ते-छोड़ते भी जो थोड़ी बहुत संस्कार नाम की चीज़ बची रह गयी है, उसमें स्कूल का बहुत बड़ा दोष है. वरना हम भी देशभक्ति और ईमानदारी जैसी बिमारियों से बच जाते. और लम्पट कॉन्फिडेंस लिये देश के अथाह स्रोतों के दोहन में लिप्त होने पर गर्व अनुभव करते. उस समय इलाहाबाद के कम स्कूलों में ही को-एड सिस्टम था. इसका और कोई फ़ायदा हो या न हो, लेकिन बच्चों में बेसिक तमीज़ जरूर आ जाती थी. एनी बेसेन्ट में पढने का एक लाभ ये भी था कि हिन्दी मीडियम स्कूल में पढ़ने पर भी इन्ग्लिश मीडियम स्कूल वाली फ़ीलिंग आती थी.
बात बाढ़ से शुरू हुयी थी. तब कछार, कछार हुआ करता था. सिर्फ़ मैदान और मैदान के अलावा कुछ नहीं. धीरे-धीरे शहर फैलता गया. जमीनें सिकुड़ती गयीं. जमीन की कमी के कारण लोगों ने कछार में भी प्लाटिंग कर डाली. अब कछार दो-तीन मन्जिल के मकानों से भर गया है. दूसरी मन्जिल इसलिये जरुरी है कि बाढ़ तो आनी ही है हर साल. तो ख़ास दिक्क़त न हो. साल के कुछ हफ़्तों की ही तो बात होती है. भला हो ग्लोबल वार्मिंग का अब पानी कम बरसता है तो बाढ़ भी कम ही दिन रहती है. ऐसे ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब कछार में बड़े-बड़े बिल्डर्स बहुमन्जिला इमारतें बनायेंगे.
स्कूल छूटा फिर शहर भी छूट गया लेकिन गंगा जी से नाता बना रहा. जब तक लुधियाना रहा तब तक यही डर सताता रहा कि कहीं गलती से निपट गया तो गंगा किनारे वाले को बुड्ढे नाले के किनारे निपटाया जायेगा. उपर वाले की दया से नीचे वालों ने सुनी और वापस गंगा जी के पास आ आया. अब कानपुर में रह रहा हूँ. जहाँ के लिये कहावत भी है कि कानपुर में कान भी बचा के रखना पड़ता है. बहुत स्मार्ट लोग हैं, कान काट लेते हैं. मेरी मज़बूरी है कि मै चश्मा लगाता हूँ जिसके लिये कान का होना बहुत आवश्यक है.
इस बार बरसात ने यूपी में धोखा दे रखा है. जुलाई खत्म होने को आयी और इन्द्र देव का दिल पसीज ही नहीं रहा है. लोग पानी के इन्तजार में त्राहिमाम-त्राहिमाम बस इसलिये कर रह हैं कि पूरे शहर की बिजली की खपत बढ़ गयी है और विद्युत् विभाग उतनी आपूर्ति नहीं कर पा रहा है. इन्वर्टर पंखे तो चला सकता है, लेकिन डेढ़ टन का एसी नहीं. शहर वालों को कौन सी खेती करनी है. अगर बिजली आती रहे और एसी चलता रहे तो उन्हें कोई परेशानी नहीं है. बारिश हो या न हो. बस खेत-किसान की फ़िक्र और ज़िक्र कर लेते हैं. उनके लिये तो बारिश मतलब गरमागरम चाय के साथ पकौड़ों का आनन्द. माहौल में थोड़ी रूमानियत आ जाये. इससे ज़्यादा कुछ नहीं. पानी ढंग से बरस जाये तो घर के आँगन को भी बारिश से बचा के रखने वाली इस शहरी जनता को दिक्कत होने लगती है. लेकिन बारिश तो दूर बादल भी नज़र नहीं आ रहे. पूरे सीजन में बस दो-चार दिन ही बादलों ने अपना असली रूप दिखाया है. शहर की प्लान्ड कॉलोनीज़ का ये हाल है कि लोग त्राहि-त्राहि करने लगे. जिस बाढ़ को देखने हमें कछार तक जाना पड़ता था, वो घर तक आ गयी है.
कारण वही है, जहाँ ज़्यादा समझदार लोग होते हैं, वहाँ त्याग बेवकूफ़ ही करेंगे. कॉलोनी पढ़े-लिखे नौकरी-पेशा लोगों की न होती तो कोई आसानी से कह सकता था कि अनपढ़ लोग हैं. प्लाट के एक-एक इन्च पर निर्माण करने के बाद पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति प्रेम के जज्बे के चलते सबने फुटपाथ पर कब्ज़ा कर रखा है. सड़क का पानी नाली-नाले तक पहुँचे भी तो कैसे. नालियाँ जो बरसाती पानी को नालों तक ले जाने के लिये बनायीं गयीं थीं, बन्द पड़ीं हैं. बड़े नालों को घरों के सामने या तो पाट दिया गया है या उनका सदुपयोग घरों के कचरे को फेंकने में किया जाता है. कूड़े वाला आया घर से कचरा निकाल - का सुगम संगीत फुल वॉल्यूम पर सुबह-सुबह चालू हो जाता है. वॉल्यूम इतना तेज कि कोई ये नहीं कह सकता कि वो कान में रुई डाल के सो रहा था. लेकिन क्या मजाल कि हर घर इस स्मार्ट सिटी मिशन की मुहिम में शामिल होने को तैयार हो. नगर निगम के अथक प्रयासों के बाद भी हर दो सौ मीटर पर एक कूड़े का अम्बार लगा दिख जायेगा. डेमोक्रेसी का मखौल उड़ाने वाले सब कुछ सरकार पर थोप कर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ने में लग जाते हैं. गुटका चबा कर दिन में तीन लीटर पीक उगलने वाले इसी में खुश हैं कि सफ़ाई अभियान फेल हो गया.
अभी चार दिन की बारिश में ही सारी कॉलोनी न सिर्फ़ धुल गयी बल्कि भर भी गयी. घरों के सामने ढाल भी लोगों ने सड़क की ओर झेल दिये हैं ताकि उनकी दीवार सुरक्षित रहे. ये बात अलग है कि डामर वाली सडकें पानी का भराव नहीं झेल पातीं और जल्द ही रोड़ी-गिट्टी सब बाहर आ जाती है. फिर यही लोग सरकार और इंजीनियर्स को कोसते हैं, बहुत भ्रष्टाचार है. इनकी उम्मीद होती है कि एक बार सी-सी रोड बन जाये तो हमेशा के लिये दिक्कत खत्म हो जाये. बरसाती पानी भर भी जाये तो गंगा जी सा आनन्द मिले, अभी उबड़-खाबड़ सड़क पर जल भराव का आनन्द लेने में पैर में मोच आने की सम्भावना ज़्यादा है. छई-छप्पा-छई वाले हालातों में लोग प्रसन्न हैं गंगा जी घर तक आ गयीं. बच्चों को घर बैठे कागज़ की कश्ती चलाने का सुअवसर मिल गया. लेकिन मोबाइल और कम्प्यूटर में घुसे बच्चों को कागज़ की नाव उत्साहित नहीं करती. कभी बाढ़ देखने जाना पड़ता था, अब घर के सामने ही पानी भर जाता है. इसमें भला कौन सी परेशानी है. लोग निश्चिन्त भाव से कहते हैं कि पानी अब पहले सा कहाँ बरसता. बस दो-चार दिन की दिक्क़त है, फिर तो सड़क सूखी ही मिलती है. शहर में हर नयी सड़क के साथ नालों का एक जाल तैयार होता जा रहा है, जो बहते नहीं, रुके-रुके से रहते हैं. बरसात से पहले उनकी सफ़ाई के बिल हर साल बदस्तूर पास हो जाते हैं.
अपने घर को हरा-भरा रखने के लिये अपनी बाउन्ड्री के अन्दर कुछ पौधे-गमले लगा रखे हैं. फुटपाथ घेरने का कोई इरादा भी नहीं है. सड़क का ढाल नाली की ओर ही रहने दिया है. पडोसी अक्सर कहते रहते हैं कि आप भी पर्यावरण संरक्षण में योगदान दीजिये. अपना फुटपाथ घेरिये. पूरी गली में बस एक ही घर के आगे फुटपाथ बचा हुआ है. सामने पानी कम भरता है. सड़क भी कुछ कम टूटी है. पड़ोसियों के यहाँ कोई गेस्ट आता है तो उसे गाड़ी पार्क करने की जगह भी वहीं दिखती है. मोहल्ले में किसी ने नालियों को अहमियत नहीं दी, इसलिये आदर्शवादी वर्मा जी को घर बैठे गंगा मैया की बाढ़ का आनन्द मिल जाता है. वैसे भी बड़े-बुजुर्ग फरमा गये हैं - समझदार की मौत है. टूटी सड़क, जल भराव और गंदगी को झेलने को वर्मा जी इसलिये विवश हैं कि शहर स्मार्ट हो गया है और वो अपने बचे-खुचे एनी बेसेंटिया संस्कारों को छोड़ भी नहीं पा रहे हैं.
बस बजबजाते रहते हैं, पर इनको सरकते देखा नहीं
स्मार्ट लोगों के शहर में, स्मार्ट सिटी को ढूँढता है, ढूँढता है, ढूँढता है...
- वाणभट्ट
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-7-22} को गीत "वीरों की गाथाओं से" (चर्चा अंक 4502)
पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
रोचक व सार्थक लेखन
जवाब देंहटाएंरोचकता, बेमिसाल व्यंग्य और तंज से भरा शानदार लेख।
जवाब देंहटाएंप्रयाग, ऐनी बेसेंट और नालों के साथ केशवपुरम की चर्चा का घालमेल लुभा गया ।
जवाब देंहटाएंयूं ही लिखते लिखते बड़ा कुछ लिख दिया। ये हमारी विडंबना है कि बारिश के बाद सड़के साफ नहीं होती बल्कि और गंदी हो जाती हैं। नगरपालिका के साथ साथ आम जनता को भी जागरूक होना होगा।
जवाब देंहटाएं24 जुलाई,2022 को लिखा गया यह लेख आज 28 जुलाई,2023 को भी एक एक शब्द प्रासंगिक है।गज़ब।एक ऋतु आये,एक ऋतु जाए मौसम बदले न बदले नसीब...
जवाब देंहटाएंVery good observation & its expression .congratulations.🙏
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