रविवार, 22 जून 2025

विलेन

प्रिंसिपल साहब जब भी उसके सामने पड़ जाते, उसकी आदत थी कि पूरी विनम्रता और आदर के साथ हाथ जोड़ कर अभिवादन करना. वैसे वो सत्ता और शक्ति से दूर रहना पसन्द करता था. 

भाषा कोई भी हो, किस्सागोई का मज़ा जाता रहता, यदि कहानियों में विलेन न होते. किस्से-कहानियाँ हमेशा से मानव साहित्य का अभिन्न अंग रहे हैं. जब मनोरंजन के साधनों की कमी थी, तब भी कवियों-लेखकों का टोटा रहा हो, ऐसा नहीं लगता. लोगों में साहित्यिक सृजनशीलता और रचनात्मकता न होती तो, भारत में शायद वेद-पुराण-उपनिषद-धर्मग्रंथ न लिखे गये होते. अधिकतर भाष्य तो इसीलिये लिखे गये कि बड़े भाग्य से यदि मानव जीवन मिल ही गया है तो उसे जीना कैसे है. सही और सन्तुलित जीवनचर्या का पालन कर मानव स्वयं कैसे भगवानतुल्य जीवन जी सकता है. और विपरीत आचार-विचार पर चलने से वही मानव अमानुषिक व्यवहार कर दानव भी बन सकता है. किस्से-कहानियों में मानव और दानव के स्पष्ट अन्तर को दर्शाने के लिये, मानव को सद्गुणों, तो दानव को अवगुणों की प्रतिमूर्ति बना दिया जाता है. ताकि लोग बुराई के मार्ग पर चलने वाले का दुख:द अंत देख कर भलाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा लें. रामायण हो या महाभारत, एक तरफ़ महामानव था तो दूसरी तरफ़ महादानव. दोनों बराबर के शक्तिशाली, लेकिन एक सत्य और न्याय के पक्ष में तो दूसरा असत्य और अन्याय के. ये स्पष्ट विरोधाभास इसलिये भी किया जाता था कि लोग समझ सकें कि दुर्जन व्यक्ति दुर्जन ही रहता है और सज्जन अपनी सज्जनता का त्याग नहीं करते. अंत में चाहे कुछ भी हो जाये, विजय सदा सत्य और न्याय की होती है. 

जब से फिल्मों ने मानव जीवन में प्रवेश किया, किस्सा पढ़ने-सुनने-सुनाने वालों को एक नयी विधा मिल गयी. मुंशी प्रेमचन्द हों या शरत चन्द्र, उनके पात्रों को जीवन्त स्वरूप मिल गये. जिनके लिये पठन-पाठन थोडा दुष्कर कार्य था, उनके लिये 'बूढी काकी' को विज़ुअलाइज़ करना कठिन भी हुआ करता था. 'ईदगाह' पढ़ कर हामिद और उसकी दादी के दर्द का एहसास कराने के लिये चाहे लेखक ने कितना भी कलम तोड़ विस्तृत वर्णन किया हो, पाठक बिना कनेक्ट हुये उसका अनुभव नहीं कर सकता था. कहानी के मर्म को महसूस करने के लिये पात्रों की साइकोलॉजी में गहरे घुसना पड़ता था. तब जा कर कोई टैगोर-प्रेमचन्द-शरत-दोस्तवोस्की-टालस्टाय-गोर्की का मूल्याङ्कन कर पाता था. तब चलचित्र का प्रचलन कम था. किताबें ही आमोद-प्रमोद का साधन थीं. मूवी पिक्चर्स के आने के बाद पुस्तकों का उपयोग घटता गया. और आज ओटीटी और रील्स के आ जाने के बाद तो किताबों की ओर कोई देखना भी पसन्द नहीं कर रहा. लेकिन लिखने वाले हैं कि लिखने से बाज नहीं आ रहे. यदि कुछ नहीं बदला तो वो है, कहानियों के पात्रों का चरित्र. बिना हीरो, हिरोइन और विलेन के कहानी की कल्पना करना कठिन है. चाहे क्राइम थ्रिलर हो या लव स्टोरी, हीरो-हिरोइन के बाद सबसे मुख्य किरदार विलेन का ही होता है. बाकि सब को कैरेक्टर आर्टिस्ट और कॉमेडियन की श्रेणी में बाँट दिया जाता है. जो फिलर की तरह बीच बीच में अपना रोल निभाने आ जाते हैं. लेकिन वो मुख्य कहानी को प्रभावित नहीं करते. 

किस्सों और कहानियों के विलेन घोषित दुष्ट होते थे. कंस-दुर्योधन-रावण, सबको पता था कि वो गलत हैं, लेकिन यदि लेखक उन्हें बीच स्टोरी आत्मज्ञान से रियलाइज़ करा देता और वो सुधर जाते, तो ग्रन्थ लिखने का कोई औचित्य न रह जाता. इसलिये ये ऐसे पात्र थे, जो हारी हुयी बाज़ी को अंत तक निभाते गये क्योंकि कहानी में उनका किरदार ही ऐसा था. 

कमोबेश फिल्मों ने भी कहानियों के इस क्रम को बनाये रखा. प्राण-अजित-प्रेम चोपड़ा को फुल टाइम विलेन बना दिया गया. लोग हीरो-हिरोइन के नाम के साथ विलेन का नाम भी पता करके फिल्में देखने जाते. इन फिल्मों में सस्पेंस की कोई गुंजाइश न थी. कहानी भी दर्शकों को पहले से मालूम होती थी. जब सब कुछ सही चल रहा होगा, तभी विलेन की एंट्री होगी और वो सब कुछ तहस-नहस कर डालेगा, लेकिन कहानी का अन्त हीरो की विजय के साथ ही होगा. जब तक अंत सुखान्त न हो जाये, फ़िल्म ख़त्म नहीं होती थी. इसी चक्कर में कई बार फिल्में तीन घन्टे के ऊपर निकल जाया करती थीं. पब्लिक भी क्या करती, वास्तविक जीवन में सत्य, अहिन्सा और न्याय की विजय देख रही होती, तो निश्चय ही फिल्मों में अपना समय बर्बाद नहीं करती. उसकी कल्पनाओं को साकार कर-कर के देश में कितने स्टार-सुपरस्टार और मेगास्टार बन गये. अकेला आदमी जब दुष्टों के गिरोह को ख़त्म कर देता है, तो शोषित और असहाय लोगों को लगता है कि हीरो ने उनका बदला ले लिया. सीटी और तालियों से हॉल गूँज जाता. तीन घन्टे के लिये ही सही दर्शक अपने दुःख-दर्द भूल जाता. फ़िल्मों का एक निश्चित फॉर्मेट था. कुछ सीरियस, कुछ हास्य, कुछ करुणा, कुछ हिंसा के बीच आठ से दस गाने. उनमें वो अश्लील वाले गाने भी होते थे, जिन्हें कैबरे कहा जाता था. जिन फिल्मों में वैसे गाने नहीं होते थे, उन्हें पारिवारिक फिल्म बता कर प्रचार किया जाता था. जिस तरह वर्तमान में गानों का पिक्चराइज़ेशन होता है, उन्हें देख के लगता है कि अतीत के कैबरे भी बहुत शालीन हुआ करते थे.      

मसाला फिल्में देखते-देखते भी आदमी जल्दी ही बोर हो गया. उसको लगने लगा कि ये यथार्थ से कोसों दूर हैं. दर्शकों के इस ज्ञान के बाद, एक-एक कर के सभी स्टार फ्लॉप होते चले गये. साथ ही फिल्मों के कथानक और कलाकार अधिक वास्तविक होने लगे. एक दौर ऐसा आया जब ऐसी फ़िल्मों को आर्ट फ़िल्म या पैरलल सिनेमा तक घोषित कर दिया. इस युग ने बॉलीवुड में ऐसे-ऐसे हीरो-हिरोइन दिये, जिन्हें देख के लगता था कि ये हमारे पास-पड़ोस के चरित्र हैं. सब आम आदमी. रोल की अधिकता के हिसाब से किसी को हीरो मान लिया जाये तो मान लिया जाये, वरना उनका प्रयास होता था कि आम आदमी की जद्दो-जहद को उभारा जाये. आदमी कभी एक्सट्रीम का जीवन नहीं जीता. उसमें हीरो भी होता है और विलेन भी. गुण और अवगुण से मिल के बना है, आम आदमी. जो पुण्य भी करता है और पाप भी कर सकता है. क्योंकि वो आदमी है, कोई अवतार नहीं. आर्ट फ़िल्में अधिक रियलिस्टिक थीं. जिस आदमी को आप देवता की तरह मानते थे, वो ही कुछ ऐसा कर देता है कि आपको विलेन लगने लगता है. जबकि वो विलेन नहीं है, बस उसने अपने उद्देश्य या दृष्टिकोण की पूर्ति के लिये जो किया, वो आपके लाभ और लक्ष्य के विरुद्ध था. सिर्फ़ इसलिये उसे विलेन मान लेना भी उचित नहीं है. दूसरे के जूते में पैर रख कर देखेंगे तो विलेन भी इंसान लगेगा, जिसका विशेष परिस्थितियों में आपके लाभ की ओर ध्यान नहीं गया.   

इन फ़िल्मों के बदले भी बदले जैसे नहीं लगते थे. पुरानी फिल्में होतीं तो बन्दा जब तक विलेन को ठोंक-पीट के अपना प्रतिशोध पूरा न कर ले, दर्शकों को आनन्द नहीं आता था. अब के हीरो को मालूम है कि विलेन के पास पद है, शक्ति है, सत्ता है. जिसका दुरूपयोग करना उसका अधिकार इसलिये है कि वही उसका सत्य है. वो उसी सत्य को देख कर और उसी सत्य के लिये आगे बढ़ा है. सबके सच उनके अपने हैं. हमारा और दूसरे का दृष्टिकोण अलग इसलिये है कि हम एक ही तस्वीर को अलग-अलग कोण से देख रहे हैं. न कोई सही है, न गलत. सब सही हैं, अपनी-अपनी जगह. किसी के लिये हीरो, विलेन है तो किसी के लिये विलेन, हीरो. एक बॉस जब तक कुर्सी पर काबिज थे, रावण और दुर्योधन को जस्टिफ़ाई करते फिरते थे कि उसकी बहन और पिता के साथ अन्याय हुआ था. लेकिन जब कुर्सी से उतरे, तो रातों-रात गाँधी उनके आदर्श बन चुके थे. हमारा देश और धर्म, सभी को सुधरने के पर्याप्त मौके देता है. जब भी जग जाओ, आपका सवेरा आरम्भ. आपका दूसरे के जागने या सोने से कोई प्रयोजन नहीं है. सारा का सारा ज्ञान आपके स्वयं को जगाने के लिये है.

पद प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करने में प्रधानाचार्य की विवशता ये थी कि उन्हें, उन्हें लाभान्वित करना होता था, जो निरन्तर उनकी सेवा-टहल में लगे रहते थे. उसने उस प्रोजेक्ट को बनाने में बहुत मेहनत की थी. लेकिन प्रोजेक्ट आने के बाद प्रधानाचार्य महोदय ने उसे अपने एक विश्वासपात्र को पकड़ाना उचित समझा. ईश्वरीय न्याय का उन्हें भय होता तो वे ऐसा कदापि न करते. उसे भी यदि ईश्वरीय न्याय पर भरोसा होता तो वो इस बात का बुरा न मानता. अब जब प्रधानाचार्य महोदय कभी सामने पड़ जाते तो वैसे ही हाथ जोड़ कर अभिवादन करता, बस उसमें विनम्रता और आदर का भाव नदारद होता. 

आज की रियल लाइफ़ में विलेन और हीरो शायद ऐसे ही होते हैं. हर व्यक्ति किसी की कहानी में हीरो है, तो किसी और की कहानी में विलेन. 

-वाणभट्ट

पुनश्च: यदि मौका लगे तो नसीरुद्दीन शाह अभिनीत 'आधारशिला' देखने का प्रयास कीजियेगा. 

रविवार, 1 जून 2025

विकसित भारत - एक संकल्पना

गाँव अगर मैंने देखा है तो वो है, हमारे फूफा जी का गाँव-गोधना, मीरजापुर में. गर्मी की छुट्टियों में आम के पेड़ों की छाँव में पानी भरी बाल्टी में डूबे देसी 'चुसना' आम को बिना गिने चूसना, ठण्ड में गरम ताजा गुड़, पम्प पर नहाना, पुआल पर सोना और सुबह-सुबह खेतों में तीतर-बटेर लडाना, गाँव के नाम पर बस इतनी सी यादें थीं, मेरे जीवन में.

बाबा की असमय मृत्यु के बाद पिता जी आगे की पढाई के लिये बनारस और फिर इलाहाबाद पढने आ गये. हाईस्कूल से ही उन्होंने शहर के बंगलों के आउट हॉउसों में रह कर और बंगलों के बच्चों को पढ़ा कर, अपनी पढाई जारी रखी. इलाहाबाद विश्विद्यालय से बी.एससी. करने के बाद, पहले रेलवे में गुड्स क्लर्क और बाद में एजी यूपी में बाबू बनने का सफ़र आसान तो नहीं रहा होगा. दुश्वारियों पहले के लोगों के जीवन का हिस्सा थीं, जिसे वे निरपेक्ष भाव से जीते चले जाते थे. तब सम्भवतः दूसरों के सुख से तुलना करने का प्रचलन उतना न रहा हो जितना अब है. पर शायद ही उन्होंने कभी हम लोगों से अपने कठिन दौर ज़िक्र किया हो. मुझे याद नहीं कि कभी उन्होंने उस काल को कठिन दौर की तरह देखा या हमें दिखाया हो. बल्कि उस पर उन्हें गर्व था. हमें दिखाते - 'देखो, मैं लाउदर रोड के इस बंगले और लिडल रोड के उस बंगले के पीछे के सर्वेंट क्वाटर में रह कर पढता था. उनके पुराने शिष्य रास्ते में मिल जाते तो मास्साब को दण्डवत हो जाते.  

नौकरी लगने के बाद पापा, अपने सभी भाई और बहनों को पढ़ने-पढ़ाने के उद्देश्य से इलाहाबाद ले आये. थोडा सा सपोर्ट और अपनी  मेहनत से सभी अपने पैरों पर खड़े हो गये. पापा ने कभी इस बात का क्रेडिट भी नहीं लिया. क्योंकि तब कोई अपनी-अपनी नहीं सोचता था. परिवार का अर्थ समावेशी परिवार होता था. बाबा के बाद छ: बेटे और दो बेटियों का सम्मिलित परिवार, दादी की सबसे बड़ी पूँजी और ताक़त था. 

सबके सेटल होने के बाद दादी भी इलाहाबाद आ गयीं. और हम लोगों का जौनपुर के केराकत तहसील के डोभी ब्लाक के बोदरी गाँव से नाता ख़त्म सा हो गया. हम लोगों का जन्म प्रयागराज, तत्कालीन इलाहाबाद में हुआ जरुर था, लेकिन जौनपुर के नाम पर कुछ अपनापन अभी भी जरुर लगता है. पापा को कभी अपने संघर्ष के दिनों से कोई शिकायत रही हो, ऐसा मुझे कभी नहीं लगा. अलबत्ता जब कभी मै किशोर का - कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन - गाने का प्रयास करता तो हँसते हुये टोक देते - कोई न लौटाये मेरे बीते हुये दिन. उनका मूल सिद्धान्त था - न रो ऐ दिल, कहीं रोने से तकदीरें बदलती हैं. 

दादी के बाद तो हम लोगों का गाँव से सम्पर्क धीरे-धीरे ख़त्म होता गया. खेती की जो थोड़ी बहुत जमीन थी उसे बेचने का सभी भाइयों ने निर्णय लिया. जमीन बिकने के बाद हम लोग भी शहरी लैंडलेस लेबर में शुमार हो चुके थे. दुलारी फुआ और गाँव की कुछ महिलायें माघ मेले में संगम नहाने आती रहीं. धीरे-धीरे उनका आना कम होता गया. उनकी उम्र भी दादी के आस-पास ही रही होगी. अभी भी याद है माघ के भयंकर जाड़े में फुआ और गाँव की महिलायें बिना ब्लाउज के, सूती साड़ी में बोरसी के पास बैठ कर दादी से गाँव की पंचायत बतियाती थीं. उस समय न हमें उनके पिछड़ेपन का एहसास होता था, न ही उन्हें किसी प्रकार का संकोच. फुआ अपना खाना खुद बनाती थीं, आँगन के कोने में. ठसक उनकी भी दादी की तरह सास वाली रहती और मम्मी को उनके सारे इंतजाम करने होते. शहर में रह रहे हम और हमारे पड़ोसियों के बच्चे हर साल गुड में पगे बाजरे, जोंधरी और लइया के लड्डुओं के लिये फुआ के आने की बात जोहते. 

हमारी पूरी शिक्षा-दीक्षा शहर में हुयी. दैव योग से मेरा ग्रेजुएशन कृषि अभियान्त्रिकी में हुआ. खेती-बाड़ी में अभियान्त्रिकी का उपयोग की इस ब्रांच का मुख्य उद्देश्य और लक्ष्य है - खेती की लागत को कम करना, उत्पादन-उत्पादकता को बढ़ाना और कृषि कार्यों की समयबद्धता. आईआईटी और मोतीलाल में इंजीनियरिंग पढने की तमन्ना पाले बच्चों के लिये कृषि अभियान्त्रिकी में प्रवेश किसी दु:स्वप्न से कम नहीं था. कमोबेश यही स्थिति कृषि स्नातकों की होती है, जो मेडिकल की पढायी कर डॉक्टर बनने के प्रयास करते थे. कृषि अभियान्त्रिकी में बेसिक कृषि के साथ अभियान्त्रिकी के सभी मुख्य विषयों, जैसे सिविल, इलेक्ट्रिकल, मेंकैनिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि से अवगत कराया जाता है. सॉइल-वाटर, इरिगेशन, ड्रेनेज, फार्म मशीनरी, पावर और प्रसंस्करण के विषय में विस्तार से पढाया जाता है. एग्रीकल्चर इंजिनियर एक ऐसा इंजिनियर है, जिसे इंजीनियरिंग की सभी ब्रान्चेज़ की कुछ न कुछ जानकारी है. ताकि ये गाँव के स्तर पर होने वाली अभियान्त्रिकी समस्या को समझ सके, अपने स्तर पर उसे सुलझाने का प्रयास करे और न कर पाये तो विषय विशेषज्ञ को समस्या से अवगत करा उसका निराकरण करा सके. किसी को मोटे तौर पर समझाना हो तो समझ लीजिये ये ब्रांच, अभियान्त्रिकी की सभी विधाओं का सम्मिश्रण है या यूँ कह लीजिये कि इंजीनियरिंग का एमबीबीएस है. 

लगभग चालीस साल कृषि अभियान्त्रिकी में व्यतीत करने के बाद मुझे आपने प्रोफेशन पर गर्व अनुभव होता है, शायद कृषि अभियन्ता ही कृषि समस्याओं को अधिक समग्रता से देख सकता है और उनके सहज समाधान की योग्यता भी रखता है. कृषि विशेषज्ञ और कृषि अभियंता यदि साथ मिल कर काम करें तो वर्षों से पोषित समस्याओं का निराकरण और प्रबन्धन आसानी से हो सकता है. परास्नातक खाद्य प्रसन्स्करण में करने के बाद मेरी नौकरी की शुरुआत एक प्राईवेट लिमिटेड फ़ूड प्रोसेसिंग कंपनी से हुयी. कालान्तर में यही मेरे शोध का मुख्य विषय बना. कटाई-मड़ाई के बाद ही फसल से सामना होता. बोआई-कटाई से मेरा साबका बस फर्स्ट इयर में पड़ा था. हालाँकि प्रसंस्करण के लिये फसल की एकरूपता और गुणवत्ता की अहम भूमिका होती है. मेरा काम प्रसंस्करण लैब और मिल तक ही सीमित रहा. मुझ जैसे लैंडलेस शहरी लेबर के लिये खेती और किसानी एक दिवास्वप्न सा है. लहलहाती फसलों के बीच खड़ा खुशहाल किसान. जो अपने उत्पादित अनाज का प्रसंस्करण कर अधिक लाभ उठा रहा है. जो कृषक महिला और पुरुष हमारी लैब तक आते थे, सम्भवतः वो अपने सबसे सम्भ्रांत रूप में आते हों. जो मेरे मन मस्तिष्क में कहीं एक सम्पन्न ग्राम्य जीवन की परिकल्पना को साकार करते प्रतीत होते थे. 

जब भी सरकारें बदलती हैं तो कुछ नये नारे और स्लोगन देती हैं. पिछले साल जब विकसित भारत 2047 की बात उठी तो मुझे लगा ये भी एक स्लोगन बन कर न रह जाये. कानपुर 2047 जैसी मीटिंग्स हर शहर में प्रबुद्ध और गण्यमान जनों व विभिन्न संस्थाओं से सुझाव माँगे गये. तब पहली बार लगा है कि सरकार नारों को मूर्तरूप देने के लिये कृतसंकल्प लग रही है. इसके लिये शायद सरकार जनता की साझेदारी की अपेक्षा भी रखती है. सरकार से ज़्यादा ज़िम्मेदारी जनता की है कि उसे निर्णय करना है कि आज से पच्चीस साल बाद वो स्वयं को, अपने शहर को और अपने देश को कहाँ देखना चाहती है.  

मेरे एक मित्र ऑस्ट्रेलिया में रह रहे हैं. वो कुछ दिन पूर्व अपने दस वर्षीय पुत्र के साथ आये. मुझे बाज़ार जाना था, सोचा चलो बच्चे के भी घुमा लायें. मेरी मारुती 800 की बायीं सीट पर बैठते ही बच्चे ने सबसे पहले सीट बेल्ट लगा ली. मैंने मजाक में कहा पास ही जा रहे हैं बेल्ट की क्या ज़रूरत. बच्चे का जवाब मुझे शर्मसार करने वाला था - अंकल इट्स टेन इयर्स ओल्ड हैबिट. मजबूरन मुझे भी बेल्ट लगानी पड़ गयी. जब घर से चला तो वो बच्चा च्युइंग गम चबा रहा था. बाज़ार से लौटते हुये हमें दो घन्टे हो चुके थे. मुझे लगा ये लड़का अब तो कहीं न कहीं च्युइंग गम का निस्तारण करेगा. लेकिन बच्चे ने जेब से उसका रैपर निकाला और उसी में गम निकाल कर हाथ में रखे रहा. घर पहुँचने के बाद भाई साहब ने उसे डस्ट बिन में फेंक कर ही दम लिया. मैंने थोडा अभिभूत होते हुये उसके पापा और अपने मित्र से बच्चे की महानता का बखान किया तो उसने बताया भाई इन बच्चों से बच कर रहना. जब ये ढाई साल के थे तो इनके चक्कर में पिता जी का चालान कट गया था. हार्बर ब्रिज पर खड़े होकर पिता जी ने पैटीज़ का कागज़ बाक़ायदा गोली बना कर समुंदर में फेंक दिया, तो इन महाशय ने चीख़ चीख़ कर तूफ़ान उठा दिया - पापा, बाबा हैज़ लिटर्ड, पापा, बाबा हैज़ लिटर्ड. बाबा का तो क्या होता मेरा चालान कट गया. पता नहीं मुझे क्यों लगा कि बच्चों को सिखाने का सही समय है ढाई से पाँच साल. छोटे बच्चों को तो सही गलत बताया जा सकता है, पचीस साल के युवा को समझा पाना सरल न होगा. 

जब ये आदेश आया कि विकसित भारत का लक्ष्य ले कर सभी सरकारी कर्मचारियों को गाँव-गाँव जा कर सरकारी नीतियों के बारे में ग्रामीण भाइयों और बहनों को बताना होगा. एसी में रहने वाले और पीसी पर काम करने वाले अपने अन्य सहयोगियों की तरह मुझे भी लगा कि ये क्या बला है. गर्मी अपने चरम पर है, कुछ दिन रुक जाते तो अच्छा होता. लेकिन आदेश में इफ़ बट की गुंजाईश तो होती नहीं. सो हफ्ते भर तक रोज गाँव-गाँव जाना पड़ा. ये तो समझ आ गया कि इसके पीछे मन्शा क्या है. ये यात्रा शहर के साधन सम्पन्न लोगों को ग्रामीण वस्तुस्थिति से अवगत करने के लिये है. कुछ ऐसी ही कहानी में नासा में काम करने वाले मोहन भार्गव की है, जो अपनी बूढी आया, कावेरी अम्मा की खोज में चरनपुर गाँव पहुँच जाता है. जहाँ वो गाँव की परिस्थितियों से दो-चार होता है और गाँव वालों को मिल-जुल कर उन्हें खुशहाल और समृद्ध बनने के लिये प्रेरित करता है.   

हाइवे-सुपरफास्ट ट्रेन-स्काई स्क्रेपर-हाई स्पीड इन्टरनेट ये सब भले ही लोगों के लिये विकसित भारत की पहचान हैं, लेकिन ये सब संरचनात्मक प्रगति तब तक अधूरी हैं जब तक देश के अन्नदाता और देश की पचास प्रतिशत ग्रामीण जनसँख्या की प्रगति सुनिश्चित नहीं होती. आज़ादी के पचहत्तर साल बाद भी गाँवों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव साफ़ दिखता है. शायद आर्थिक तरक्की की होड़ में हमारे नागरिक देश-समाज के प्रति अपने दायित्वों पर खरे नहीं उतर सके. इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश शार्ट टर्म गेन हैं. लॉन्ग टर्म गेन के लिये ज़रूरी है, निवेश ढाई साल के बच्चे पर ताकि पच्चीस साल बाद वो एक बेहतर नागरिक बन सके.

-वाणभट्ट 

गुरुवार, 15 मई 2025

आई नाइन जेन चौदह

उसने सब्जी वाला झोला ला कर मेज पर रख दिया और ऑफ़िस की सफाई में लग गया. ऑफ़िस दस बजे शुरू होता था. लेकिन उसे आधे-एक घण्टे पहले आना पड़ता था. ऐसी ही उसकी ड्यूटी थी. सबसे पहले आना और सबसे बाद में जाना. सतवीर का काम ही था, सुबह-सुबह ऑफ़िस खोलना, सभी अफसरों की मेज साफ़ करना, और उनके आने से पहले स्वीपर से झाड़ू लगवाना. सुबह के एक घण्टे वो काफी व्यस्त रहता. शाम को ऑफ़िस बन्द करके जब लौटेगा तो इसी झोले में सब्जी लेता जायेगा. ये उसकी सीधी-साधी नियमित दिनचर्या थी. 

साहब का आते ही आते पारा चढ़ गया. ये झोला यहाँ क्यों रखा है. साफ़ सफ़ाई के चक्कर में वो आज झोला उस मेज से उठाना भूल गया था जिस पर हफ्ते भर पहले एक पर्सनल कम्प्यूटर इंस्टाल हुआ था. विभाग का पहला कम्प्यूटर था इसलिये बॉस के कमरे में उसे पूरे विधि-विधान के साथ स्थापित किया गया था. सतिया लगा कर पूजा अर्चना भी की गयी. तब राफ़ेल का ज़माना नहीं था, नहीं तो नीबू-मिर्ची भी लटका देते ताकि बुरी नज़र से हमारा कम्प्यूटर बचा रहे. 

बात सन् चौरानबे की है. बॉस अपने अट्ठावन्वे वसंत में चल रहे थे. रिटायरमेंट बस दो साल दूर था. उन्हें कम्प्यूटर का क-ख-ग नहीं पता था, लेकिन ये पता था कि कम्प्यूटर एक मँहगी मशीन है, जो बहुत उन्नत है और कुछ भी कर सकती है. इसलिये उसे बॉस के कमरे में ही एक अलग मेज पर इंस्टाल किया गया था. उसी मेज पर सतवीर झोला रख के भूल गया था. बॉस का गुस्सा सही था, इतने मँहगे कम्प्यूटर के पास मैला-कुचैला झोला रखना सही नहीं था. लेकिन उनका कनसर्न उससे भी आगे था. उन्हें डर था कि कहीं सब्जी का वायरस उनके कम्प्यूटर में घुस कर उसे खराब न कर दे. सतवीर ने अपनी गलती मानते हुये दोबारा ऐसा न होने का आश्वासन दे दिया.

तब पीसी यानि पर्सनल कम्प्यूटर का चलन अपने शुरुआती दौर में था. डॉस प्रोम्पट पर जा कर विन लिखना पड़ता था, तब विण्डोज़ आरम्भ होता था. एमएस-ऑफ़िस में तब भी वही प्रोग्राम्स हुआ करते थे, जो आज हैं - वर्ड, पावरपॉइंट, एक्सेल, एक्सेस आदि. हर प्रोग्राम के लिये ऑफ़िस के मोटे-मोटे प्रिंटेड मैनुअल्स भी आते थे, यदि आपने जेन्यूइन सॉफ्टवेयर खरीदा हो. इनमें से शुरू के तीन प्रोग्राम्स से अधिकांश कम्प्यूटर उपयोगकर्ता के काम चल जाते थे. कम्प्यूटर का दाम जितना ज़्यादा था, उतना ही लोगों को उसका फोबिया भी था. किसी ने ज़्यादा यूज़ तो किया नहीं था. डर लगा रहता था कि कहीं ख़राब न हो जाये. इसी समय ग्राफिक यूज़र इंटरफ़ेस से लोगों का सामना हुआ था. हम लोगों ने मास्टर प्रोग्राम में कंप्यूटर के नाम पर फोर्ट्रान में कुछ प्रोग्रामिंग और कुछ स्टैटिस्टिकल एनालिसिस की थी, वो भी मेन फ़्रेम कम्प्यूटर के टर्मिनल पर बैठ कर. 

विंडोज़-95 जब मार्केट में आया, तब पहली बार कम्प्यूटर को सीधे विंडोज़ पर खुलते देखा. विंडोज़ 95, 1.44 एमबी की 3.5 इंच की अट्ठारह फ्लॉपीज़ में आता था. लोड करने के लिये एक के बाद एक फ्लॉपी को लगाना पड़ता था. विंडोज़ इंस्टाल करना भी एक काम हो जाता था. फिर तो एक परिवर्तन सा आ गया. डेस्कटॉप पर्सनल कंप्यूटर्स हर किसी की मेज की शोभा बढ़ाने लगे. जब प्रोग्राम्स सीडी और डीवीडी पर आने लगे तो 1.44 एमबी की फ्लॉपीज़ का सबसे मुफ़ीद उपयोग चाय के कोस्टर्स की जगह होने लगा. अब तो सीधे इंटरनेट से प्रोग्राम्स डाउनलोड होते हैं. 

कम्प्यूटर ख़रीदना एक बात है, उसका बँटना या मिलना दूसरी. बँटवारे का तरीका वही पुराना वाला था. बन्दर बाँट वाला. अन्धे की रेवड़ी वाला. उपर से बँटना शुरू होता, नीचे हम लोगों का नम्बर आते-आते खत्म हो जाता. अब चूँकि उपर वालों के हाथ कम्प्यूटर में तंग थे, सो उसे ऑपरेट नये लोग ही करते, लेकिन वो लगता था उपर वालों के चेम्बर में ही. उपर वाले भी खुश और नीचे वाले भी.

सरकार ने मानवश्रम को और प्रॉडक्टिव बनाने के लिये धीरे धीरे सभी को पीसी मोहय्या करा दिया. ऑफिस के बाबू से लेकर विभागाध्यक्ष तक सबको व्यक्तिगत कम्प्यूटर उपलब्ध हो गये. विंडोज़ और एमएस ऑफिस सुविधा से लैस पीसी चलाना हर वो व्यक्ति सीख गया, जिसने सिंगल और डबल क्लिक करना सीख लिया. जल्द ही टाइप राइटर पुराने जमाने की बात हो गये. प्रेसेंटेशन्स के लिये ट्रांस्पेरेंसी का उपयोग लोग भूल लगे. सबको पीसी मिला, सबके दिन फिर गये. तब इंटरनेट भी अपने विकास के दौर में था, इसलिये कम्प्यूटर पर सिर्फ़ काम ही कर सकते थे. मल्टीमीडिया पीसी आने के बाद आप गाने सुनते हुये काम कर सकते थे. ऑफ़िस के खाली समय में गेम खेल सकते थे, सीडी ड्राइव में मूवी लगा कर पिक्चर्स देख सकते थे. ऑफ़िस में मल्टीमीडिया पीसी एक स्टेटस सिम्बल बन गया. लेकिन बन्दर बाँट में पर्चेज़ ऑफिस के बाबुओं ने स्वयं को और हेड को तो मल्टीमीडिया पीसी दिला दिया और बाकी लोगों को बिना मल्टीमीडिया का पीसी. इसका उद्देश्य ये था कि लोग समझ सकें कि ऑफिस-ऑफिस के खेल में कौन कितना दमदार है. अब पावर ये थी कि किसके कम्प्यूटर का कनफिगरेशन लेटेस्ट है. 

इंटरनेट आने के बाद तो कम्प्यूटर के पंख लग गये. सूचना क्रांति आ गयी. शीघ्र ही इंफॉर्मेशन रिवोल्युशन कब इंफॉर्मेशन एक्सप्लोज़न में बदल गया, पता ही नहीं चला. सूचना का ओवरफ्लो जो शुरू हुआ तो ये समझना मुश्किल हो गया कि कौन सी सूचना सही और विश्वसनीय है. यहीं से हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर कम्पनियों ने अपना खेला शुरू कर दिया. एक से एक सॉफ्टवेयर विकसित होने लगे और उन्हें चलाने के लिये कम्प्यूटर का हार्डवेयर उन्नत करना मजबूरी बनता गया. जब तक आप एक सॉफ्टवेयर में पूरी तरह पारंगत हो पाते, तब तक उसका अगला वर्ज़न आ जाता. अब चूँकि मामला स्टेटस से जुड़ गया था तो हर किसी की ख्वाहिश होती की मेरी मेज पर लेटेस्ट मॉडल हो. लेकिन बँटने का सिलसिला वही रहा, पहले बाबू फिर कोई और. बड़े-बड़े अफ़सर टापते रह जाते और उनके इंडेंट पर आया लेटेस्ट कंफिग्रेशन का कम्प्यूटर बाबू की मेज की शोभा बढ़ाता. पीसी का असली मज़ा तो एसी आने के बाद मिला. किसी ने टर्म ही गढ़ दिया एसीपीसी. ऑफ़िस आइये, एसी और पीसी (विथ इंटरनेट) ऑन कीजिये और दीन-दुनिया भूल कर लग जाइये काम पर. 

अब चूँकि हम लोग न कम्प्यूटर फील्ड के थे ना ही आईटी के, तो हम लोगों का काम तो सिम्पल कम्प्यूटर से भी चल जाता था. लेकिन हर नये प्रोसेसर के साथ कम्प्यूटर बदलना, एक फ़ैशन सा बन गया. उसके पीछे लॉजिक यही था कि टेक्नोलॉजी को हमेशा अपग्रेड करते रहना चाहिये. सभी के काम ऑफिस के पुराने वर्ज़न्स से चल जाते थे लेकिन बिल बाबा को तो चुल्ल लगी थी, मार्केट में रोज रोज नया ऑफिस झेल देते. उसके चक्कर में किसी को कम्प्यूटर बदलना पड़े तो उनकी बला से. सन् चौरानबे से लेकर अब तक मेरा तजुर्बा यही रहा है कि कम्प्यूटर की स्पीड मेरे लिये कभी कोई बाधा नहीं रही. सीमा तो सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरी स्वयं की स्पीड की थी. चाहे वो वर्ड पर काम करना रहा हो या एक्सेल या पीपीटी पर. चुनांचे थ्रीडी गेम्स खेलने के लिये आपको सिस्टम अपग्रेड करना मजबूरी हो सकता है. लेकिन ऑफ़िस में गेम्स का कोई ज्यादा तुक बनता नहीं. 

ख़ुदा गवाह है कि बिल बाबू का बिजनेस बढ़ाने के लिये मैंने कभी हार्डवेयर अपग्रेड नहीं किया. और कोई भी कम्प्यूटर दस साल से पहले नहीं बदला. मुझे अपनी सीमाओं का भली-भाँति ज्ञान था. कोई भी आसानी से पुरतनपंथी का तमगा दे सकता है लेकिन टेक्नोलॉजी के लिये प्रोडक्ट बदलने से मेरा परहेज अभी भी बना हुआ है. पुराने प्रोडक्ट को मेंटेन रखना मेरी हॉबी है. वो भी तब तक ही जब तक मैंटेनेंस की कीमत नये प्रोडक्ट से कम रहे. प्रोसेसर की स्पीड, रैम और हार्डडिस्क बढ़ती गयी और जनता हर नये अपग्रेड को हाथों हाथ लेती रही. इसका मुनाफ़ा हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर कंपनियाँ कमाती रहीं और हम स्टेटस के चक्कर में वही पुराने काम नये प्लैटफॉर्मस् पर करते रहे. 

हाल ही में एक बाबू ने अपना ऑफ़िस कम्प्यूटर बदल दिया. क्योंकि हाल ही में आई सेवन के उपर आई नाइन जेन चौदह प्रोसेसर आया था. मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया कि भाई आई थ्री से जब तुम्हारे ऑफ़िस के सब काम हो जाते हैं तो आई नाइन ले कर क्या फ़ायदा. उसने एक राज से परदा उठाते हुये बताया कि काम तो चल ही जाता था, लेकिन शाम को जब घर जाने की जल्दी होती है, तो आई थ्री बन्द होने में बहुत टाइम लेता था. नये मॉडल जो हैं ना वो फ़टाक से बन्द हो जाते हैं. मुझे लगा बात तो इसकी भी जायज़ ही है. 

 -वाणभट्ट

रविवार, 27 अप्रैल 2025

पीएनपीसी-टीएम

पीएनपीसीटीएम, ये जो टीएम नीचे लिखा दिख रहा है, दरअसल उसे ऊपर होना चाहिये था, सुपरस्क्रिप्ट की तरह. लेकिन ब्लॉगपोस्ट का सॉफ्टवेयर शायद सपोर्ट नहीं करता. इसलिये लोवर फॉण्ट में नीचे लिख दिया है. कृपया इसे सुपरस्क्रिप्ट समझ कर पढ़ें. ये टीएम कुछ और नहीं ट्रेडमार्क का द्योतक है. यानि कि ये जो पीएनपीसी है, इस पर किसी और का कॉपीराईट होना चाहिये, लेकिन मुझे  किससे परमिशन लेनी चाहिये ये पता नहीं चल रहा है. 

आजकल जमाना बहुत ख़राब हो गया है, जैसा कि सब बुजुर्ग कहते चले आ रहे हैं, तो अब जब हमने भी बुजुर्गियत के पायदान पर कदम रख दिया है तो हमारा भी हक़ बनता है कि हम भी ये कह सकें कि जमाना वाकई ख़राब हो गया है. नवजवान अभी हमसे इत्तेफ़ाक न रखना चाहें तो न रखें, लेकिन अपने बुजुर्ग होने तक ये इंतज़ार कर सकते हैं. अब चूँकि वाणभट्ट, अपने गुरु बाणभट्ट के आदर्शों पर चलते हुये, सत्यवादिता और अचौर्य के सिद्धांत का पालन करने को विवश है, तो टीएम (ट्रेडमार्क) या गोले में आर (रजिस्टर्ड) या सी (कॉपीराइट), लगा कर, धड़ल्ले से उनका प्रयोग कर लेता है. अब कोई चाहे भी तो उस पर बौद्धिक सम्पदा की चोरी का इल्ज़ाम नहीं लगा सकता.

जमाना तो इतना ख़राब है कि यदि आप किसी से कहते हैं कि मै झूठ नहीं बोलता, चोरी नहीं करता, और ईमानदार हूँ, तो वो बुरा मान जाता है. पूछता है कि तुम कहना क्या चाहते हो. तो वैधानिक चेतावनी देनी पड़ती है कि भाई मै अपनी बात कर रहा हूँ. इसका तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है. लेकिन भाई इतनी सी बात पर नाराज़ हो जाता है और सारी दुनिया में बोलता घूमता है कि वाणभट्ट बड़ा हरिश्चन्द्र की औलाद बना फिरता है. अब उसे कोई क्या समझाये कि चरित्र और संस्कार पिछले जन्मों के कर्मों से मिलते हैं. हाँ, यदि कोई चाहे तो अगले जन्म में अच्छे चरित्र और संस्कार के लिये इसी जन्म में अभी से प्रयास शुरू कर सकता है. लेकिन दुनिया में चरित्रवान-संस्कारवान लोगों के जीवन का हश्र देख कर शायद ही कोई इस दिशा में प्रयास करना चाहे. जिसे सच बोलने की बीमारी लग गयी घर-परिवार, देश-दुनिया को उसका दुश्मन बनने में देर नहीं लगती. सबको लगता है कि ये मिसफिट आदमी है, पहले समाज से इसे बाहर करो. ये तो वर्षों बाद पता चलता है कि ये तो सुकरात, अरस्तु और प्लूटो हो सकता था. ये जमाना ही था, जिसने तब उनका जीना मुहाल किया हुआ था. और इतने साल बाद अगर ये फिर धरा पर अवतरित हो जायें तो क्या जमाना इनकी पूजा करेगा, नहीं, वो फिर इन्हें जहर देगा, सूली पर चढ़ायेगा. और वे मुस्कुरा कर कहेंगे - प्रभु इन्हें क्षमा करना, ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं.

जालिम ज़माने से पिटने-पिटाने के बाद, जब आदमी को ये एहसास होने लगता है कि इस दुनिया-महफ़िल का मजा लेने के लिये भगवान ने अलग प्रकृति के लोग बनाये हैं, तो उसकी खोज शुरू होती है कि भगवान ने उसे किस लिये बनाया है. जैसे आज आपको अन्जाने देश-दुनिया में घूमने के लिये जीपीएस (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) की आवश्यकता होती है, उसी तरह भव-सागर में बिना डूबे, उसे पार करने के लिये भी आपको जीपीएस (गुरु पोजिशनिंग सिस्टमटीएम) की आवश्यकता होगी. ये सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी का ट्रेडमार्क कोटेशन है. वैसे भी मेरा एक मुफ्त का मशविरा है कि जिस देश में कानून-व्यवस्था-परिवार-समाज में विश्वास की कमी हो जाये, वहाँ सबको किसी न किसी भगवान-बाबा-गुरु को पकड़ के रखना चाहिये. क्योंकि यहाँ जीते जी किसी को कन्धा देने का रिवाज नहीं है. कानून-व्यवस्था पर पैसे और ताकत वालों का कब्ज़ा है. इसलिये आम आदमी के लिये बाबा से बढ़िया कोई विकल्प नहीं है. और किसी विकसित या विकासशील देश में इतने सूफी-सन्त-पीर-फ़क़ीर-पैगम्बर हुये हों तो बताओ. इसी खोज में किसी ने मुझे ओशो के चेले के चेले के ग्रूप में जोड़ दिया. ओशो स्वयं अरस्तु-सुकरात से कहीं ज्यादा पहुँचे हुये सिद्ध थे, लेकिन उनके जीते जी कोई उनको नहीं पहचान सका. वो तो भला हो कि वो अमरीका चले गये, वर्ना अपने हीरों को तो हम कोयला बना के मानते हैं. मुझे ये तब पता चला कि जब उनके चेले के चेले को सुना. जब चेला इतना सिद्ध है, तो गुरु की थाह कहाँ होगी. ये पीएनपीसी उन्हीं का ट्रेडमार्क है. अब मुझे ये नहीं पता कि ये उनकी ओरिजिनल खोज है या उन्होंने अपने गुरु उद्घृत किया है. अब आप कहेंगे कि ट्रेडमार्क क्यों, कॉपीराइट क्यों नहीं, तो बाबागिरी से प्रॉफिटेबल कोई और ट्रेड या बिजनेस हो तो बताइये. हर्र न फिटकरी, रंग एकदमै चोखा. 

यदि आप सन्त टाइप के हैं, तो माया-मोह छोड़ के दुनिया से निकल लीजिये और सन्त हो जाइये. अगर दुनिया में रहते हुये दुनिया को समझ आ गया कि ये सन्त टाइप का व्यक्ति है तो यही दुनिया आपका जीना हराम कर देगी. दुनिया एक फरमा बना के चलती है, जो उसमें फिट बस वो ही फिट. दुनिया में रहीम दास जी को गलती से लगने लगा था कि-

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग,

चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग.

अर्थात्, यदि व्यक्ति उत्तम प्रकृति का है तो उस पर कुसंगति का प्रभाव नहीं पड़ता. जैसे चंदन पर विष का प्रभाव नहीं पड़ता जबकि उसके ऊपर कितने काले नाग लिपटे रहते हैं. 

जल्द ही रहीम दास जी को अपनी गलती का एहसास हो गया होगा, कि आदमी अपनी मूल प्रकृति से बाज नहीं आने वाला. उन्होंने भूल सुधार करते हुये फिर लिखा- 

कह रहीम कैसे निभे, बेर केर को संग,

वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग.

अर्थात्, कंटीले बेर और मुलायम केले का संग भला कैसे निभ सकता है. जब बेर का पेड़ मस्ती में झूमता है, तो बगल के केले के पेड़ को झलनी कर देता है. 

अब भी यदि आपको ये लगता है कि दुर्जनता का अन्त सज्जनता से हो सकता है तो आप अपने को ईसा और गाँधी की श्रेणी में रख सकते हैं.   

अधिकांश सज्जनों की दुविधा का कारण भी यही है, वो सज्जनता त्यागना नहीं चाहते और दुनिया के हिसाब से वो अपने को फिट नहीं कर पाते. दुनिया उन्हें सुधारने पर आमादा रहती है. इस पूरी प्रक्रिया में सबसे बुरी बात ये है कि आप तो जानते हैं कि आप सज्जन हो, आपके दुश्मन भी जानते हैं कि आप सज्जन हैं. वो आपकी बेल्ट के नीचे भी वार कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने किसी प्रकार की नैतिकता-संस्कार की कसम तो खायी नहीं है. वो देश-समाज के फिट लोग हैं और सबने मान भी रखा है कि 'समरथ को नहीं दोष गोसाईं'. जब भी उन्हें काम पड़ता है, वो मुँह उठाये आपके पास पहुँच जाते हैं. और खुदा न खास्ता आपका कोई काम पड़ गया तो वो अपनी औकात बताने से नहीं चूकते. आप सज्जन बने रहिये, वहाँ तक तो ठीक है, लेकिन इसका ढिंढोरा कभी न पीटिये.  

जब वो कमरे में आ कर गिरा तो, सज्जन, हाँ यही नाम था उसका, को मालूम था कि आज बॉस ने इसकी थ्रैशिंग की होगी और इसे कोई कन्धा नहीं मिल रहा होगा, इसलिये यहाँ बियाबान में मिलने चला आया है. आने वाले को मालूम था कि सज्जन उसको रुमाल भी देगा और कन्धा भी. उसकी भड़ास भी निकल जाएगी और ये किसी को कुछ बतायेगा भी नहीं. इतना विश्वास बनाने में लोगों का जीवन निकल जाता है. लोग मान लेते हैं कि सज्जन ने कहा होगा तो सच ही कहा होगा और सज्जन को भी इस प्रतिष्ठा को जीना पड़ता. एक भी असत्य उसके जीवन भर के अर्जित पुण्य को मटियामेट कर सकता है. उसने आते ही अपनी व्यथा-कथा शुरू कर दी. सज्जन ने पानी दिया, तो बॉस को पानी पी-पी कर कोसने लगा, और जब चाय दी, तो चाय पी-पी कर. किसी की बुराई बतियाने में जो रस है, उसका कोई सानी नहीं है. वैसे इस रस की महिमा का बखान परसाई जी बहुत पहले कर गये थे - रस का नाम था - निन्दारस. सज्जन तो, सज्जन था लेकिन इस रस का मौका हाथ से जाने न देता. इसके माध्यम से उसे बहुत सी वो बातें पता चल जाती थीं, जो अक्सर सज्जनता के कारण किसी से पूछने में वो सन्कोच करता था. 

ये सीसीटीवी कैमरे क्या लगे, कौन-कब-कहाँ गया या जा रहा है, ये कोई छिपा नहीं सकता. बॉस की बुराई-बुराई खेलते, अभी कुछ ही देर हुयी थी कि सज्जन के इण्टरकॉम पर बॉस का फोन आ गया - तुरन्त इधर आइये. सज्जन को लगा हो न हो कोई अर्जेंट काम आ पड़ा हो. रुमाल पकड़ा कर, उसने जल्दी से बॉस का रुख किया. बॉस अपने तख़्त-ए-ताउस पर विद्यमान था. उसका रुख देख के लग गया कि आज बॉस का रुख ठीक नहीं है. उसने घुसते ही पूछा - आपके पास कौन बैठा था. उसे मालूम था कि सज्जन झूठ नहीं बोलेगा. सज्जन भी इतनी सी बात के लिये भला क्यों झूठ बोलता. बता दिया. बॉस को होना ही था, आपे से बाहर. आप लोग क्या बातें करते हैं, मुझे सब पता है. आप लोग बैठ कर मेरी बुराई करते हैं. बताइये करते हैं ना. अब सज्जन झूठ तो बोलेगा नहीं. बता दिया. बॉस फट गया. मै देख लूँगा तुमको भी. डिपार्टमेंट का माहौल ख़राब कर रखा है. सबको यहाँ मै सुधारने में लगा हूँ और तुम उन्हें सपोर्ट करने में लगे हो. सज्जन ने कहा - सर मानवता की बात है. आदमी परेशान होगा तो कहीं तो उदगार निकालेगा. आप बॉस हैं और हमेशा रहेंगे. अगले का कुछ बोझ कम हो जायेगा, फिर से मन लगा के काम करेगा. हम लोगों की चर्चा सिर्फ विभाग तक सीमित नहीं रहती हम तो पॉलिसीज़ के लिये प्रधानमंत्री और मंत्री को भी नहीं छोड़ते. धोनी और तेंदुलकर को खेलना आता है या नहीं आता, ये भी हम बतियाते हैं. दरअसल हम लोग जिस विभाग में हैं वहाँ बोने और काटने के बीच में पर्याप्त समय है, तो हम पंचायत-पॉलिटिक्स नहीं करेंगे तो और कौन करेगा. आप बताइये कि आप लोगों को जब समय काटना होता है, तो क्या और कैसी बातें करते हैं. आपका स्टैण्डर्ड कोई हमसे छुपा है क्या. बुराई बतियाना कोई बुरी बात नहीं है. ये बात आप समझ लीजिये. बुराई भी उसी की होती है जो हमसे आगे होता है. आप हमसे आगे हैं. वैसे भी परसाई जी के अनुसार दुनिया के सारे रस एक तरफ और निन्दारस एक तरफ. निन्दारस बुराई नहीं, टॉनिक है. भड़ास निकालिये और पुन: रिचार्ज हो कर काम पर लग जाइये. आपको भी कभी अपनी भड़ास निकालनी हो तो मेरे पास आ जाया कीजिये. गारेंटी है कमरे की बात बाहर तक नहीं जायेगी.  

गुरू जी के चेले के चेले ने ये ही बताया है कि व्यक्ति को बचना चाहिये - पीएनपीसी यानि परनिन्दा-परचर्चा से. लेकिन सज्जन से सज्जन व्यक्ति सज्जनता तो छोड़ सकता है लेकिन पीएनपीसी नहीं. यदि सज्जन ने ये भी छोड़ दिया तो उसे डर है कि वो आदमी ही नहीं रह जायेगा. देवता उसे सशरीर स्वर्ग चलने के लिये लेने ना आ जायें.

-वाणभट्ट 

सोमवार, 31 मार्च 2025

कृषि शोध - दशा और दिशा

भारतीय कृषि का इतिहास 9000 वर्षों से भी पुराना है. कृषि एवं पशुपालन अपनाने के साथ ही मानव सभ्यता का विकास एक समाज के रूप में होना आरम्भ हुआ. प्रारम्भ से ही वर्षा आधारित खेती में प्रति वर्ष दो फसल लेने का प्रचलन था. उस समय भी देश-विदेश से खाद्य सामग्री का आदान-प्रदान हुआ करता था, जिसके माध्यम से नयी फसलों का भारत में प्रवेश हुआ और भारतीय फसलें भी विदेशों तक पहुँचीं. मध्ययुगीन काल में भी भारत में सिंचाई और भूमि संरक्षण प्रबन्धन के प्रमाण मिलते हैं. मानव जीवन में पादप और पशुधन की उपयोगिता को भारतीय समाज ने चिन्हित कर लिया था. ईसा से 8000 वर्ष पूर्व ही फसलों में जौ और गेहूँ की खेती और, पशुओं में बकरी और भेंड पालन का उल्लेख मिलता है. पंक्तिबद्ध बुआई, फसलों की मड़ाई, चारागाह और अनाज भण्डारण की पद्यतियाँ भी विकसित की गयी थीं. भारत में कपास का उत्पादन 5वीं सहस्राब्दी ईसा पूर्व में आरंभ हो गया था, जिसने आधुनिक वस्त्र औद्योगीकरण को एक सुदृढ़ नीव रखी. आम और खरबूज भारतीय उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के मुख्य फल थे. भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग, सिन्धु और गंगा घाटी में धान का उत्पादन लिया जाता था. गन्ने का उद्भव दक्षिणी और दक्षिण पूर्व एशिया माना जाता है. हेम्प का उत्पादन तेल, रेशे और दवाइयाँ प्राप्त करने के लिये किया जाता था. मिश्रित खेती का सिन्धु घाटी सभ्यता की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान था. यहाँ पर पशुचालित कृषि यन्त्रों के उपयोग का भी वर्णन मिलता है. रबी और खरीफ़ का वातावरण किन फसलों के लिये अनुकूल है, इसका ज्ञान भी भारतीय कृषकों को था. जूट का उत्पादन भारत में सबसे पहले आरम्भ हुआ. वनस्पतियों के औषधीय गुणों के आधार पर आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्यति का विकास हुआ. वृक्षों और पशुओं को उनकी उपादेयता के आधार पर पूजनीय भी माना जाने लगा. वैदिक साहित्य में फसलों, फलों, सब्जियों, पशु व मत्स्य पालन आदि एकीकृत कृषि प्रणाली के विषय में भी उल्लेख मिलता है. पारम्परिक अनाज और दलहन फसल चक्र कृषि प्रणाली ने उत्पादन की स्थिरता और भूमि की उर्वरता को बनाये रखा. सहस्त्र वर्षों की कृषि व्यवस्था ने वर्तमान कृषि को एक सुदृढ़ आधारशिला प्रदान की. प्राचीन काल से भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है. वर्तमान में जब कुल जनसंख्या का पचास प्रतिशत भाग जीविकोपार्जन के लिये कृषि पर निर्भर हो, तो इसमें कोई संशय नहीं रहता कि भारत आज भी एक कृषि प्रधान देश है.  

भारत में कृषि शोध 1829 में करनाल में एक ऊँट और बैल प्रजनन फार्म की स्थापना के साथ आरम्भ हुआ. बाद में 1868 में कोयंबटूर में कृषि कॉलेज और अनुसंधान स्टेशन, 1889 में पूना में पशु चिकित्सा विज्ञान के लिए एक बैक्टीरियोलॉजिकल रिसर्च लेबोरेटरी और 1905 में शाही कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) के रूप में इनका विस्तार हुआ. आईएआरआई में कृषि अनुसंधान, शिक्षा और विस्तार हेतु प्रशिक्षण आरम्भ किया, किन्तु स्वतन्त्रता के पूर्व इसकी गतिविधियों को समुचित संज्ञान नहीं मिला. स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात यहाँ किये गये प्रयासों ने हरित क्रान्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. हरित क्रान्ति ने न केवल देश को भोजन उपलब्धता के गंभीर संकट उबारा अपितु देश को खाद्य अधिशेष (सरप्लस) राज्य में परिवर्तित कर दिया. हरित क्रान्ति कृषि इतिहास में आज भी मानव जाति की सर्वोत्तम उपलब्धि के रूप में अंकित है. 

इसी बीच इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागराज) में वर्ष 1910 में डॉ. सैम हिगिनबॉटम के नेतृत्व में, भारत में ईसाई चर्च संगठनों ने कृषि संस्थान की स्थापना की. डॉ. हिगिनबॉटम ने 1903 से 1909 तक, इलाहाबाद क्रिश्चियन कॉलेज में अर्थशास्त्र और विज्ञान पढ़ाया, जिसे वर्तमान में इविंग क्रिश्चियन कॉलेज के रूप में जाना जाता है, और साथ ही साथ स्थानीय बोली का अध्ययन भी किया। इस अवधि में वो आसपास के गाँवों में एक परिचित व्यक्ति बन गये. उन्होंने ग्रामीणों की रहन-सहन की स्थिति को बहुत पास से देखा. कृषि में प्राचीन प्रणाली के उपयोग ने उन्हें चिन्ता में डाल दिया. उनको अनुभव हुआ कि कृषकों में अत्यधिक आर्थिक गरीबी का मूल कारण कम उत्पादकता है. अंततः 1909 के अंत में उन्होंने एक कृषि स्कूल की स्थापना करने का निर्णय लिया. उनकी कल्पना, ग्रामीण छात्रों को उन्नत कृषि विधियों की शिक्षा के माध्यम ग्रामीण जीवन स्तर में सुधार लाने की थी. डॉ. हिगिनबॉटम एक ऐसा कृषि विद्यालय स्थापित करना चाहते थे जो युवाओं को गाँवों में काम करने के लिए प्रशिक्षित करे और साथ ही ग्रामीणों की व्यावहारिक कृषि समस्याओं पर शोध भी करे. प्रयागराज में यमुना नदी की दूसरी ओर के क्षेत्र को कृषि तकनीकों के प्रदर्शन के उद्देश्य से विकसित किया गया ताकि प्रति वर्ष संगम पर आने वाले श्रद्धालुओं को उन्नत कृषि प्रणालियों का प्रदर्शन कराया जा सके. अनौपचारिक रूप से कृषि शिक्षा वर्ष 1912 में  प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से आरम्भ की गयी. डेयरी, पशुपालन और कृषि फार्म विकसित किये गये. कृषि यान्त्रिकी और डेयरी में डिप्लोमा 1923 में आरम्भ हुआ, फिर 1932 में कृषि में स्नातक और वर्ष 1943 में कृषि अभियन्त्रिकी में स्नातक शिक्षा आरम्भ हुयी. यह संस्थान कृषि अभियन्त्रिकी में स्नातक प्रदान करने वाला एशिया का पहला और विश्व का चौथा संस्थान बन गया. कृषि अभियन्ता प्रो. मैसन वाग ने कृषि अभियान्त्रिकी विभाग की स्थापना की, और उन्हें आज भी भारत में कृषि अभियान्त्रिकी के संस्थापक के रूप में स्मरण किया जाता है. 

कृषि उत्पादन में हरित क्रान्ति द्वारा अभूतपूर्व वृद्धि में उच्च उपज देने वाली उन्नत प्रजातियों के उपयोग का मुख्य व अमूल्य योगदान है. उन्नत प्रजाति के बीजों से वांछित उत्पादकता प्राप्त करने के लिये खाद और सिंचाई की समुचित व्यवस्था भी सुनिश्चित की गयी. पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वृहद सिंचित क्षेत्रों और साधन सम्पन्न कृषकों के चयन ने हरित क्रान्ति में अपनी भूमिका निभायी. नीतिगत निर्णय जैसे सरकार द्वारा उत्पादित फसल का उचित मूल्य पर क्रय ने भारतीय किसानों को मँहगे आदान के प्रति प्रतिक्रियाशील (इनपुट रेस्पोंसिव) कृषि पद्यतियों को अपनाने के लिये प्रेरित किया. फसलों के सुरक्षित भण्डारण की सुविधा भी विकसित की गयी. जब यही उत्पादित अन्न, सार्वजानिक वितरण प्रणाली के माध्यम से उपभोक्ताओं की थाली तक पहुँचा, तब जा कर हरित क्रान्ति संपन्न हुयी. हरित क्रान्ति के सभी कारकों का यदि सूक्ष्म निरीक्षण किया जाये तो इसके प्रमुख घटक थे- 1. उन्नत प्रजाति के बीज और उनकी उपलब्धता, 2. खाद की समुचित मात्रा, 3. वृहद सिंचित क्षेत्र, 4. नीतिगत व्यवस्थायें, जैसे समर्थन मूल्य पर उत्पाद की सुनिश्चित खरीद, 5. भण्डारण व्यवस्था, और 6. सार्वजानिक वितरण प्रणाली. कृषि उत्पादन के किसी भी क्षेत्र में हरित क्रान्ति मॉडल को दोहराने के लिये हरित क्रान्ति के समस्त कारकों का संयोजन करना पड़ेगा. 

भारतीय कृषि ने हाल के वर्षों में प्रभावशाली वृद्धि दर प्राप्त की है. अब भारत कृषि वस्तुओं के आयात के साथ ही उनका निर्यात भी कर रहा है. भारत चावल का सबसे बड़ा निर्यातक बन चुका है, तथा भैंस-माँस, पोल्ट्री, अंडे और दूध के बड़े उत्पादक देशों में से एक बन गया है.  दूध और फसल उत्पादन के एकीकरण ने बड़ी संख्या में सीमांत किसानों की आय में वृद्धि करने में सहायता की है। गौ और पशुपालन के द्वारा मृदा स्वास्थ्य में सुधार की भी संभावनाओं ने देश को पुन: आकृष्ट किया है. प्राकृतिक और जैविक खेती का मुख्य उद्देश्य है - खेती व्यय को कम करना, भोजन में पौष्टिकता को बनाये रखना, मृदा एवं जल संरक्षण. कृषि अनुसंधान, शिक्षा और विस्तार प्रणाली ने कृषि उत्पादन और उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है, किन्तु भविष्य की बढ़ती हुयी जनसंख्या, खाद्य आवश्यकता, पर्यावरण असन्तुलन, कीटाणु-जीवाणु प्रकोप आदि चुनौतियों का समाधान खोजना भी अत्यन्त आवश्यक है. बदलते वैश्विक परिपेक्ष्य और उभरती हुयी चुनौतियों की पृष्ठभूमि में, कृषि अनुसन्धान, शिक्षा एवं विस्तार प्रणाली एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है. भविष्य की आशंकाओं और सम्भावनाओं के बीच देश का कृषि उत्पादन, अनुसन्धान व विस्तार की कार्य प्रणाली पर ही निर्भर है. आज उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि के साथ जल एवं मृदा संरक्षण की महत्ता को भी समझा जा रहा है. कृषि में लघु और सीमांत किसानों के लिये फसल उत्पादन में लाभप्रदता भी एक मुख्य चुनौती बन कर उभरी है. बढ़ते परिवार के साथ घटती हुयी प्रति व्यक्ति जोत ने खेती की लाभप्रदता को प्रभावित किया है. बढ़ती आदान लागत, मौसम पर निर्भरता, घटती श्रमिक उपलब्धता  और उत्पाद का उचित मूल्य न मिल पाने के कारण आज कृषि एक लाभप्रद व्यवसाय नहीं रह गया है. श्रम और आय के अनुपात को देखते हुये ग्रामीण युवा पीढ़ी का कृषि से विमुख होना सहज सम्भाव्य है. समुचित आय व रोजगार की खोज में गाँवों से पलायन बढ़ा है. ग्रामीण अंचल में कृषि कार्यों को सम्पादित करने के लिये श्रमिकों का अभाव है. आजकल हर कोई टिकाऊ खेती की बात कर रहा है, किन्तु उससे अधिक आवश्यक हो गया है कि किसान खेती में टिका रहे. यदि भूमि के हिस्से से होने वाली आय एक परिवार के लिये पर्याप्त न हो तो ऐसे व्यक्ति का खेती में टिके रहने को विवशता से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता. वर्तमान अर्थयुग में सम्पन्नता के सभी समीकरण आय और लाभ केन्द्रित हो गये हैं और होने भी चाहिये, ऐसे में किसी को खेती करने के लिये प्रेरित करना सम्भव नहीं है. खेती को लाभप्रद बनाने के लिये आवश्यक है सम्यक समग्र दृष्टि.  

वर्तमान परिस्थितियों में खेती को लाभप्रद बनाने की दिशा में प्रयास हो रहे हैं. प्राय: ये मान लिया जाता है कि उत्पादन दुगना हो गया तो लाभ भी दुगना हो जायेगा. किन्तु माँग और आपूर्ति की गणित इसके ठीक विपरीत है. कृषि को लाभप्रद उद्योग बनाने के प्रयास में किसान बीज, उर्वरक, कीट-पतवार नाशक, यन्त्र निर्माताओं आदि कृषि आदान कम्पनियों के लिये एक बाज़ार मात्र है. भारत में अभी भी 50 प्रतिशत से अधिक लोग ग्रामीण क्षेत्रों  में रह कर कृषि आधारित कार्यों में संलग्न हैं. जबकि उत्पादन के बाद कृषि उत्पाद शहरों में स्थित मिलों में भण्डारण व प्रसंस्करण के लिये चला जाता है. इन प्रसंस्करण कंपनियों के लिये गाँव सस्ते कृषि उत्पाद के स्रोत हैं. समस्त खाद्य मूल्य श्रृंखला गाँवों के बाहर स्थापित है. फसल उत्पादन में सन्निहित सभी संकटों का सामना किसान करता है जबकि उसके उत्पाद का मूल्य निर्धारण बाज़ार करता है. प्राय: किसान को अपना उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम मूल्य पर बेचने को विवश होना पड़ता है. इसके पीछे ग्राम स्तर पर भण्डारण और प्रसंस्करण सुविधाओं का अभाव है. एक प्रकार से देखा जाये तो पूँजी प्रवाह गाँवों से शहरों की ओर जाता दिखायी देता है. इन परिस्थितियों में ग्रामीण युवाओं का उन्नत जीवन शैली के लिये ग्राम्य अंचल से शहरों में पलायन नितांत स्वाभाविक है. मूल्य श्रृंखला में किसान सबसे निर्बल कड़ी और मूल्य श्रृंखला के अन्य हितधारकों का दायित्व है कि वे श्रृंखला की कमज़ोर किन्तु अनिवार्य कड़ी के हितों का संरक्षण करें.    

कोई भी उद्योग बिना लाभ के पुष्पित-पल्लवित नहीं हो सकता. सर्वाधिक उद्यम वाले कार्य कृषि, को कभी उद्योग की दृष्टि से नहीं देखा गया. जबकि कृषि ही ऐसा उद्योग है जो बढ़ती जनसंख्या के लिये आय व रोजगार का एक चिरस्थायी समाधान बन सकता है. किन्तु इसके लिये कृषि में उन्नत बीजों से लेकर भोजन की थाली तक पहुँचने में मूल्य श्रृंखला के समस्त आयामों पर कार्य होना चाहिये. हरित क्रांति के उपरोक्त अनेक घटकों में सर्वाधिक ध्यान किसी एक कारक ने आकृष्ट किया तो वो था - उन्नत प्रजाति. क्रान्ति के अन्य कारकों का योगदान गौण हो गया. फलस्वरूप कृषि शोध की दिशा ही बदल गयी. फसल प्रबन्धन जैसा व्यावहारिक और अनुप्रयुक्त विज्ञान नेपथ्य में चला गया. उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि के लिये कृषि शोध, प्रजाति विकास के एकांगी मार्ग पर बढ़ गया. जिस क्षेत्र में वित्तीय पोषण का प्रावधान अधिक होगा, वही शोधकर्ताओं को आकृष्ट भी करेगा. इसका सीधा उदाहरण एलोपैथी चिकित्सा व अन्य वैकल्पिक चिकित्सा पद्यतियों में देखने को मिलता है. अधिक वित्तीय उपलब्धता के कारण एलोपैथी श्रेष्ठ मस्तिष्क और छात्रों को आपनी ओर आकृष्ट करने में सफल रही है. इसमें छात्र ने किस भाषा में, किनके द्वारा शिक्षा प्राप्त की, वही छात्र के विचारों का निर्धारण करता है. अंग्रेजों की आधीनता ने भारतीय मानस पटल पर अंग्रेजी में पढ़े और पढाये विषयों की अमिट छाप छोड़ी है. ये छाप इतनी गहरी है कि देश अपने ही पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान को संदिग्धता से देखता है. आयुर्वेद और होमियोपैथी का सबसे मुखर विरोध एलोपैथी चिकित्सकों द्वारा ही होता है. ऐसे ही जब प्राकृतिक और जैविक खेती के वैज्ञानिक अध्ययन का विषय उठा तो सबसे अधिक विरोध अंग्रेजी में कृषि शिक्षा ग्रहण किये लोगों की ओर से हुआ. जबकि इसका मूल उद्देश्य खेती-किसानी में लागत मूल्य और फसल को रासायनिक उर्वरक और कीट-खरपतवार नाशकों के उपयोग को कम करना था. ताकि लोगों में रसायन रहित भोजन के उपयोग को बढ़ावा दे कर उन्हें खाद्यजनित रोगों से बचाया जा सके. इसके प्रचार के मूल में प्राकृतिक और जैविक खेती से उत्पन्न उत्पादों के लिये उच्च मूल्य के बाज़ार का निर्माण करना भी है.  

भारत ने कृषि शिक्षा के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व प्रगति की है. 1877 में सैडापेट में पहले कृषि कॉलेज की स्थापना के साथ औपचारिक कृषि शिक्षा का आरम्भ हुआ, जो बाद में कोयंबटूर में स्थानांतरित हो गया. बंगाल इंजीनियरिंग कॉलेज, शिवपुर में वर्ष 1898 में औपचारिक पाठ्यक्रम के रूप में कृषि शिक्षा आरम्भ की गयी. यह केवल 20 वीं शताब्दी के आरम्भ में वृहद स्तर पर औपचारिक कृषि अनुसंधान और शिक्षा की आवश्यकता का अनुभव किया गया. 1905 में आईएआरआई की स्थापना के बाद, 1906 में कानपुर, नागपुर, लायलपुर और कोयंबटूर, 1907 में पुणे और 1908 में सबौर में कृषि कॉलेजों की स्थापना की गयी. आज भारत में 74 कृषि विश्वविद्यालयों की एक सुदृढ़ और सशक्त कृषि शिक्षा प्रणाली है, जिसमें 63 राज्य कृषि विश्वविद्यालय, 3 केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, 4 केन्द्रीय विश्वविद्यालय कृषि संकाय के साथ, और 4 मानित विश्वविद्यालय सम्मिलित हैं. इन विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध कृषि कॉलेजों की संख्या भी कम नहीं है.  

आज अधिकांश कृषि शोध उन्नत प्रजातियों के विकास पर प्रमुखता से कार्य कर रहे हैं. कृषि की प्रत्येक समस्याओं का समाधान प्रजातियों के विकास में खोजा जा रहा है. चाहे जलवायु परिवर्तन का विषय हो या उत्पादन-उत्पादकता का, फसल सुधार के माध्यम से ही समस्याओं को सुलझाने का प्रयास हो रहा है. इस एकल दिशा प्रयास के कारण प्राकृतिक जैविक विविधता के बाद भी दिन प्रति दिन संस्तुत नयी-नयी प्रजातियों का विकास हो रहा है. इनमें अधिकांश प्रजातियाँ, उत्पादकता व एक या दो अन्य विशेषताओं के लिये चिन्हित की जा रही हैं. इनका उद्देश्य 15 से 20 प्रतिशत तक उत्पादकता में वृद्धि है. जबकि उचित फसल प्रबन्धन से इस वांछित उत्पादकता को प्राप्त किया जा सकता है. केवल उचित यन्त्रीकरण से उत्पादन-उत्पादकता में वृद्धि के साथ ही संसाधनों का उपयोग अधिक प्रभावी ढंग से किया जा सकता है. कृषि की अनेकानेक समस्याओं के व्यावहारिक व अभियांत्रिकी समाधान सहज उपलब्ध हैं. स्वतंत्रता के पचहत्तर सालों में अभियांत्रिकी के विभिन्न क्षेत्रों में अभूतपूर्व विकास हुआ है. प्रजातियों का विकास एक समय लेने वाली प्रक्रिया है. अभियान्त्रिकी का सदुपयोग करके कृषि समस्याओं का शीघ्र व त्वरित निदान किया जा सकता है. खेती में श्रम और लागत कम करने में कृषि अभियान्त्रिकी ने अमूल्य योगदान दिया है. उत्पादित फसल के मूल्य सम्वर्धन से कृषक और ग्रामीण आय में वृद्धि की अपार संभावनायें हैं. जलवायु परिवर्तन सहिष्णु, कीट व रोग रोधी प्रजातियों के विकास का मुख्य उद्देश्य, उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि ही रहा है.  प्राय: मुख्य  उपयोगकर्ताओं, किसान, प्रसंस्करणकर्ता और उपभोक्ता, की आवश्यकताओं के अनुरूप प्रजातियों के विकास को वरीयता नहीं मिलती. खेती में कृषि कार्यों की समयबद्धता अत्यंत आवश्यक है. इसलिये वृहद् स्तर पर खेती करने के लिये प्रत्येक कृषि कार्य के यंत्रीकरण की आवश्यकता है. इसके लिए आवश्यक है कि प्रजातियों के विकास में यन्त्रों के प्राचल (पैरामीटर्स) का भी ध्यान रखा जाये. पंक्तिबद्ध व मेंढ पर बुआई के लिये सीड ड्रिल और प्लांटर्स का उपयोग होता है. अगल प्रजातियों के भिन्न आकार के बीजों के कारण मशीन का बार-बार संयोजन करना पड़ता है. उत्पादित अनाज की साफ़-सफाई में भी हर आकार की चलनी न होने के कारण सफाई क्षमता प्रभावित होती है. प्रत्येक फसल के दानों की आकार-सीमा नियत करके सीड ड्रिल से लेकर थ्रेशर, ग्रेडर, और प्रसंस्करण मशीनों की दक्षता को बढाया जा सकता है.

अब आवश्यकता है चतुर (स्मार्ट) फसल सुधार की. अभियांत्रिकी औसत के नियम पर कार्य करती है. पूरे विश्व में मानव संरचना अलग-अलग है, किन्तु पूरे विश्व में मेज और कुर्सी की ऊँचाई लगभग नियत है. भवनों के निर्माण में भी अधिकांश पैरामीटर्स वैश्विक स्तर पर सामान्य मानव के आधार पर बनाये जाते हैं. इसी प्रकार मशीनों का डिज़ाइन भी सामान्य मानव के अनुरूप तैयार किया जाता है. इससे यन्त्र निर्माण में सुविधा हो जाती है. कृषि में भी प्रजाति विकास में अभियांत्रिकी और मशीन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखना चाहिये. यदि कृषि उत्पादन का अधिकतम यंत्रीकरण करना है तो बोआई, निराई, गुड़ाई, कटाई, थ्रेशिंग आदि समस्त फसल उत्पादन प्रणालियों की आवश्यकताओं को प्रजाति विकास में सम्मिलित करना होगा. मशीन की सेटिंग के अनुसार यदि कृषि पद्यतियों को अपनाया जाये तभी कृषि का अधिकतम यन्त्रीकरण सम्भव हो पायेगा. अभी एक ही फसल की भिन्न प्रजातियों के बीज अलग-अलग आकार के होते हैं, इसके कारण हर प्रजाति के लिये मशीन पैरामीटर्स को बदलना पड़ सकता है. यंत्रीकरण में सर्वाधिक योगदान ट्रैक्टर्स का है. इसलिये आवश्यक है कि फसल पंक्तियों के बीच कम से कम ट्रैक्टर के पहिये के बराबर दूरी सुनिश्चित हो. आजकल मशीन द्वारा हार्वेस्ट करने के लिये सभी फसलों की ऊँचाई बढ़ाने के प्रयास चल रहे हैं. इस प्रोजेक्ट की विशेषता ये है कि इस मशीन से कटाई और मड़ाई के शोध में कोई अभियन्ता सम्मिलित नहीं है. यंत्रीकरण का लाभ तब ही है जब बोआई से लेकर कटाई तक के सभी कार्य मशीनों की सहायता से किये जायें. जबकि इस परियोजना का लक्ष्य मात्र कटाई और मड़ाई तक ही सीमित है. बोवाई व अन्य कृषि कार्य मानव श्रम द्वारा ही किये जाते हैं. चूँकि फसल पंक्तियों के बीच की संस्तुत दूरी ट्रैक्टर के पहियों की चौडाई से कम होती है इसलिये अन्य कृषि कार्य जैसे निराई-गुड़ाई, कीटनाशक का स्प्रे श्रमिकों द्वारा किया जाता है. ट्रैक्टर के पहिये के बराबर दूरी रखने पर खेत में पौधों की संख्या कम हो जाती है, जो उत्पादन और उत्पादकता पर ऋणात्मक प्रभाव डालती है. कृषि उत्पादों का अंतिम उपयोगकर्ता या तो प्रसंस्करणकर्ता होता है या उपभोक्ता. किन्तु दुर्योग से प्रजाति विकास में उनकी आवश्यकताओं की उपेक्षा की जाती है. उनकी आवश्यकताओं का समावेश करके लक्ष्योंमुख प्रजातियों का विकास कम संसाधन में किया जा सकेगा. भारत जैविक विविधताओं का देश है, अन्तः आवश्यकता है देशी प्रजातियों की गुणवत्ता और उत्पादकता बढ़ाने की. कृषि शिक्षा में रत सभी विश्वविद्यालय व कॉलेज फसल सुधार कार्यक्रम चला रहे हैं. इस प्रकार देश की जैविक विविधता को निर्बाध रूप से बढाया जा रहा है. स्थिति ये हो गयी है कि शुद्ध देसी प्रजाति खोजना और उनका संरक्षण कर पाना कठिन होता जा रहा है. भारत को जलवायु और मृदा संरचना के आधार पर बाईस कृषि पारिस्थितिक क्षेत्रों में बाँटा गया है. प्रत्येक क्षेत्र में स्थापित विभिन्न शिक्षा व् शोध संस्थान उस क्षेत्र की फसलों के विकास में लगे हुये हैं. सभी के पास उन्नत प्रजातियाँ हैं, किन्तु हर समूह अपनी-अपनी प्रजाति की संस्तुति कर रहा है. यदि सभी समूह मिल कर ये निर्णय लें कि इस क्षेत्र में ये दो या चार प्रजातियाँ ही उच्चतम उत्पादन देंगी, तो बहुत संभव है किसान को उन्नत प्रजातियों के बीज आसानी से उपलब्ध हो सकें. इससे न केवल फसल उत्पादन और प्रसंस्करण में यन्त्रीकरण करना सुलभ हो जायेगा, अपितु उत्पादकता में भी वृद्धि अवश्य होगी. फसल सुधार का कार्य नेपथ्य में चलता रहता है, अग्रभाग में तो विकसित प्रजातियाँ और उनके बीज ही दिखायी देते हैं. मिसाइल के विकास में कितना मौलिक विज्ञान, भौतिकी, गणित, रसायन शास्त्र पर काम हुआ, ये कोई नहीं देखता. दिखाई देता है आकाश, पृथ्वी और नाग का सफल प्रक्षेपण. अपने कार्यक्षेत्र से भिन्न विषयों का शोध में समावेश करके कम समय में उपयुक्त उन्नत प्रजाति का चयन या विकास किया जा सकता है. पहले बैसाखियों का भार बहुत अधिक होता था. कलाम साहब के सुझाव से मिज़ाइल में उपयोग होने वाले हल्के और मजबूत मिश्र धातु के उपयोग ने एक बहुत बड़ा परिवर्तन ला दिया. फसल सुधार व कृषि सम्बंधित अन्य विषय विशेषज्ञों का सामूहिक प्रयास अधिक उन्नत और प्रचलित प्रजाति का विकास करने में सक्षम होगा. प्रसंस्करणकर्ता को भी एकसमान कच्चा माल चाहिये होता है, भिन्न प्रजातियों के लिये भिन्न प्रसंस्करण उपचार भी करने पड़ते हैं. इसमें अन्तिम उत्पाद की गुणवत्ता प्रभावित होती है. भारत में आम के पैक्ड जूस का विपणन बहुत सी कम्पनियाँ कर रही हैं. वे भी आम का गूदा या गाढ़ा जूस विदेशों से आयात करती हैं. जबकि भारत में आम की पैदावार बहुतायत से होती है. जब कंपनियों से पूछा गया कि आप भारतीय पल्प का उपयोग क्यों नहीं करते तो उनका उत्तर था यहाँ आम की इतनी अधिक प्रजातियाँ हैं कि पूरे खेप के लिये एक सान्द्रता, रंग और मिठास का पल्प नहीं मिलता जबकि आयातित पल्प एकरूप होता है. यही समस्या मिल मालिकों को भी होती है. आयातित दलहनी फसलों की पूरी खेप एक सी होती है, इसलिये मशीन सञ्चालन में बहुत ज्यादा समायोजन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती. कम प्रजातियों का अर्थ है, किसानों के लिये बीजों की सहज उपलब्धता और प्रसंस्करण हेतु एकरूप कच्चा माल. प्रजातियों की संख्या कम करने के लिये निस्तारण से पहले प्रजातियों को जितने अधिक परीक्षणों (स्क्रीनिंग) से गुजरना होगा, उतनी ही कम प्रजातियाँ सभी पैरामीटर्स पर सफल होंगी. अभी तक उन्नत प्रजातियों को उत्पादन, उत्पादकता और रोग रोधकता के आधार पर निर्गत किया जाता है. मशीन निर्माताओं और प्रसंस्करण के लिये उपयोगी पैरामीटर्स को भी संज्ञान में लिये जाने से निश्चय ही प्रजातियों के निस्तारण संख्या में कमी आयेगी. उपभोक्ताओं के स्वाद और वरीयता को सम्मिलित करने से किसी भी निर्गत प्रजाति के अप्रचलित हो जाने की सम्भावना भी कम होती है. बीस साल पहले फसल की ऊँचाई बढ़ाने के उद्देश्य से फसल सुधार कार्यक्रम आरम्भ किये गये थे. एक अभियन्ता ही ये समझ सकता है कि फसल को ऊँचा करने की तुलना में कंबाइन की कटर बार को नीचे करना एक आसान विकल्प है. आज अधिकांश फसलें कम्बाइन से कट रही हैं. बीस साल पहले यदि किसी ने इस बात पर ध्यान दिया होता तो मशीन से कटाई के लिये फसल की ऊँचाई बढ़ाने की आवश्यकता नहीं पड़ती. कुछ लोगों की अवधारणा थी कि  बीजों का आकार छोटा होना चाहिये, क्योंकि बड़े दाने थ्रेशर मशीन में टूट जाते हैं. बहुत सम्भव है उन्हें थ्रेशर में सेटिंग बदलने के प्रयोजन का भान न रहा हो. 

जिस तरह प्रजातियों का विकास हो रहा है, उसी तरह अभियान्त्रिकी तकनीकों का विकास भी हो रहा है. कृषि वैज्ञानिकों को चाहिये कि प्रजाति विकास में उन्नत अभियांत्रिकी तकनीकों का भी प्रयोग करें. काल्पनिक सुपर वैरायटी की अवधारणा में अवांछित क्षेत्रों में शोध संसधान को व्यर्थ कर देना उचित नहीं है. आजकल फसल कटाई के दौरान न झडें या भण्डारण में बिना किसी रसायन के भण्डारगृह में कीट से सुरक्षित रहे, इस दिशा में प्रजाति विकसित करने की योजना की चर्चा हो रही है. जिन समस्याओं का सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ प्रबंधन हो सकता है, उन क्षेत्रों में प्रजातियों का विकास करने के प्रयास, मानव श्रम और वित्तीय संसाधनों के दुरूपयोग से अधिक कुछ नहीं है. कृषि शोध में एक समस्या ये भी है कि हर व्यक्ति अलग-अलग परियोजना पर काम कर रहा है. जबकि बड़े-बड़े काम समूह द्वारा किये जाते हैं. इसरो में एक परियोजना पर हज़ारों लोग मिल कर काम करते हैं, जो उनकी सामूहिक उपलब्धि होती है. कृषि शोध में शोध एकाकी है तो सफलता भी व्यक्तिगत है. कृषि के किसी भी क्षेत्र में अभियन्ताओं की भूमिका पर कोई विशेष बल नहीं दिया गया है. यहाँ तक कि अधिकांश कृषि विज्ञान केन्द्रों में हर विषय के विषयवस्तु विशेषज्ञ मिल जायेंगे सिवाय कृषि अभियंता के. अभियंता का दृष्टिकोण समाधान उन्मुखी होता है और वो संस्थान में संसाधन सृजन के कार्य में प्रमुख भूमिका निभा सकता है. प्रजातियों के विकास कार्यक्रमों में अभियंताओं का समावेश प्रजाति विकास को एक नयी दिशा देने में सक्षम है. इनका व्यावहारिक ज्ञान कृषि शोध को नया आयाम देगा. 

कृषि शोध की वर्तमान समस्या ये है कि ये हर कृषि समस्या का समाधान प्रजातियों के उन्नयन में देखती है. जबकि उनका प्रबंधन एक सस्ता और आसन विकल्प हो सकता है. समस्याओं का उन्नत प्रजातियों के विकास से सम्पूर्ण निराकरण के प्रयास कभी भी अधिक समय तक प्रभावी नहीं रहते. इसीलिये जो समस्यायें कृषि में पचास वर्ष पहले थीं, वो आज भी अस्तित्व में बनी हुयी हैं. समस्या के सम्पूर्ण उन्मूलन करने की चेष्टा से अधिक सरल है उनका प्रबन्धन. अभियांत्रिकी तकनीकों के माध्यम से समस्या को समाप्त तो नहीं पर उसकी तीव्रता को कम लागत में नियंत्रित अवश्य किया जा सकता है. इसी प्रकार वर्षों से पौधों के उकठा रोधी बनाने के लिये शोध चल रहे हैं. किसी ने मृदा की नमी से इसे सहसम्बद्ध करने का प्रयास नहीं किया. सम्भवतः भूमि में नमी की कमी उकठा रोगाणु को सक्रिय करता हो. सिंचाई की आधारभूत संरचना में निवेश कृषि एवं कृषक की अनेकानेक समस्याओं को साधने में सिद्ध होगा. विगत छह वर्षों में, भारत के सिंचित क्षेत्र में उल्लेखनीय वृद्धि हुयी है, जो सकल फसली क्षेत्र के 47% से बढ़ कर 55% हो गया है. भविष्य में सिंचित क्षेत्र का परिमाण बढ़ना सुनिश्चित है. प्रजातियों के विकास हेतु शोध दल में भिन्न विषय वस्तु विशेषज्ञों का समावेश किसी अनावश्यक शोध की सम्भावना को कम करेगा, साथ ही कृषि शोध में टीम भावना का भी विकास करेगा. अधिकांश प्रजातियों को कीट और रोगरोधी क्षमता, जलवायु परिवर्तन के न्यूनतम असर और अल्पतम जल आवश्यकताओं के लिये परीक्षित (स्क्रीन) किया जाता है. किसी क्षेत्र के लिये किसी प्रजाति की संस्तुति से पहले उसे अधिकाधिक पैरामीटर्स के लिये स्क्रीन करना चाहिये ताकि संस्तुत प्रजातियों की संख्या कम से कम हो और उसका अधिकाधिक उपयोग हो सके. कम प्रजातियों की संख्या बीजों की उपलब्धता को भी सुनिश्चित करेंगी और, यन्त्र निर्माताओं और प्रसंस्करणकर्ताओं की आवश्यकता की पूर्ति भी करेगी.

डॉ. हिगिनबॉटम ने अर्थशास्त्री होने के बाद भी 1943 में ही कृषि में अभियांत्रिकी के महत्त्व को समझ लिया था. किन्तु आज स्वतंत्रता के पचहत्तर साल बाद भी इस विषय को कृषि शोध में समुचित स्थान नहीं मिला है. ये दुर्भाग्य ही है कि संस्थानों में कृषि लागत को कम करने के या तकनीक प्रदर्शन के लिये भी यंत्रीकरण को समुचित रूप से नहीं अपनाया गया है. आज भी अधिकांश कृषि शोध संस्थानों में कृषि अभियांत्रिकी विभाग नहीं हैं. जल और मृदा संरक्षण, फसल उत्पादन का यंत्रीकरण और कटाई के बाद प्रसंस्करण आज की महती आवश्यकता हैं जो कृषि को औद्योगिक स्वरुप दे कर कृषक और ग्रामीण आय में वृद्धि करने में सक्षम हैं. 

-वाणभट्ट

शनिवार, 22 मार्च 2025

मुर्गीदाना

किसी भी भाषा में यदि किसी मुहावरे की रचना हुयी है तो उसके पीछे देश-समाज का वर्षों का अनुभव निहित होता है. तभी तो मुहावरे एकदम टाइम टेस्टेड उदाहरण बन जाते हैं. आप सिर्फ़ उनका ज़िक्र कीजिये और लोग समझ जाते हैं कि आप कहना क्या चाहते हैं. हमारे देश में एक ऐसा ही मुहावरा है 'हारे को हरि नाम'. इस देश में साधू-संत ऐसे ही बहुतायत में नहीं पाये जाते. शायद लौकिक सफलता के लिये जिस साम-दाम-दण्ड-भेद की आवश्यकता होती है, वो सबके बस की बात नहीं है. इसलिये वो दुनिया जीतने से बेहतर स्वयं पर विजय प्राप्त करने के असम्भव से प्रयास में लग जाता है. इस प्रयास को इसलिये असम्भव कह रहा हूँ कि आत्मविजय पाने के लिये भी हम दुनिया के प्रपंच छोड़ने को तैयार नहीं हैं. पूर्व जन्मों के संयोग से जहाँ भी अवस्थित हैं, हम वहीं पर ज़िन्दगी का पूरा मज़ा लेते हुये परमानन्द का आनन्द लेना चाहते हैं. इस चक्कर में धोबी के गधे की तरह ना घर के बचते हैं ना घाट के. और जब अन्त समय सर पर आ कर खड़ा हो जाता है तो अन्तरात्मा कहती है कि दुविधा में दोऊ गये, माया मिली ना राम. माया तो वैसे भी महाठगिनी है, साथ तो सिर्फ़ राम ही रहते हैं. लेकिन पूरा जीवन माया जो नाच नचाती है, वो नाच ना होता, तो हम सब भी किसी अन्य जीव की तरह धरती पर आते और विचरण करके निकल जाते. 

अभी कुछ दिन पहले ही दुनिया की हैपीनेस इन्डेक्स की रिपोर्ट आई है. भारत 118 पायदान पर है. इस रिपोर्ट से ये भी पता लगा कि एक से एक आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े देश भी खुशहाली में हमसे आगे हैं, तो कम से कम मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. हमारे देश में कर्तव्य-ईमानदारी-सत्यनिष्ठा-नैतिकता-संस्कार जैसी बड़ी-बड़ी बातें, बचपन से घुट्टी में इस कदर पिलायी जातीं हैं कि जब भी हम किसी प्रकार के आनन्द के बारे में सोचते हैं तो लगने लगता है, कहीं कोई पाप तो नहीं करने जा रहे. और एक बार ये विचार आ गया तो आप, जिसको दुनिया आनन्द मानती है, का क्या ख़ाक वो मज़ा ले पायेंगे. एक तो हमारा बहुसंख्यक लोगों का धर्म ही ऐसा है, जो भोग से अधिक त्याग को तरजीह देता है. कभी-कभी तो मुझे लगता है कि सनातन से विमुख होने और नये-नये सम्प्रदायों के उदय का यही मुख्य कारण है कि यहाँ तो व्यक्ति के लिये यम और नियम का पालन करना ही अत्यन्त कठिन है. और यदि आप ने उसका पालन कर लिया तो आप स्वार्थ से उपर उठ कर सम्पूर्ण जगत के हितार्थ काम करने लगेंगे. परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई. आपकी अपने व्यक्तिगत आनन्द की इच्छा ही समाप्त हो जायेगी. 

आप किसी से भी बात कीजिये, तो वो बतायेगा कि वो कितना भला आदमी है और घर-परिवार-समाज ने उसके भले होने का नाजायज़ लाभ उठाया है. उसके हिस्से तो त्याग ही आया. इसमें कोई शक भी नहीं है कि हम लोग वाकई भले लोग हैं. सामान्य तौर पर मेरा व्यक्तिगत अनुभव कहता है कि शुद्ध-स्वार्थी लोगों की संख्या हमारे यहाँ कम है. हम बिना नियम-कानून वाले सम्पूर्ण आज़ादी वाले एक ऐसे देश-समाज की परिकल्पना करते हैं - जहाँ गम भी न हो, आँसू भी न हो, बस प्यार ही प्यार पले. अब ऐसे युटोपियन समाज की कल्पना में जियेंगे तो दुखी तो रहना  ही पड़ेगा. गुलज़ार साहब से किसी ने पूछा कि कविताओं-ग़ज़लों में इतना दुःख क्यों भरा होता है. ऐसा जवाब कोई शायर ही दे सकता है - सुख फुलझड़ी की तरह होता है. आता है तो लगता है, बहुत ज़ल्दी ख़त्म हो गया. दुःख स्थायी और लम्बा लगता है, अगरबत्ती की तरह. जिसको समझ आ गया कि जीवन में हर चीज़ द्वैत में मिलती है, उसे सुख-दुःख भाव विह्वल नहीं कर सकता. समतल पर हम रहना नहीं चाहते. हम चाहते हैं सुखों का पहाड़ खड़ा करना. लेकिन भूल जाते हैं कि पहाड़ जितना ऊँचा होगा, बगल में खाई भी उतनी ही गहरी होगी. चूँकि मै स्वयं को आम भारतीयों की तरह ही एक आदर्शवादी भारतीय मानता हूँ, तो ये बता देना उचित होगा कि ये विचार स्वयंभू भगवान ओशो के तमाम चेलों में से किसी एक चेले के प्रवचन के माध्यम से मेरे कानों में पड़े थे. वर्ना मेरी क्या मजाल कि इतनी बड़ी बात कह या समझ भी सकूँ. 

जब व्यक्ति सफलता के शिखर पर होता है तो उसे ये कहने में कतई गुरेज नहीं होता कि सब कुछ उसने अपनी मेहनत के दम पर अर्जित किया है. और ख़ुदा न खास्ता यदि किसी कारण से व्यक्ति असफल हो जाये तो उसे ये कहने में देर नहीं लगती कि मेहनत तो बहुत की थी लेकिन भगवान् को मंज़ूर नहीं था. सफलता अहंकार को जन्म देती है जबकि विनय का उद्भव विफलता में निहित है. अहंकार के गुब्बारे में भरी हवा बस एक पिन की मोहताज होती है. फिर न गुब्बारा रहता है, न गुब्बारे का वज़ूद. भगवान् की विशेष कृपा से मै कुछ इमोशनल कवि हृदय व्यक्ति हूँ, इसलिये दूसरों के स्वाभिमान-अभिमान-अहंकार का मै बराबर ख्याल रखता हूँ. इसके लिये कभी-कभी आपको अपने स्वाभिमान का पायदान भी बनाना पड़ सकता है. दूसरों के अहम् का पोषण कवि टाइप के लोग ही कर सकते हैं, क्योकि उनमें दूसरों के दर्द को महसूस करने की विलक्षण प्रतिभा होती है. अपने अहम् का पोषित करने वाले भी अक्सर इन्हीं को इनकी औकात दिखाने का मौका नहीं चूकते. अपने कांफिडेंस को बढ़ने का सबसे आसान, सुगम और सटीक हथियार है, दूसरे के कांफिडेंस पर प्रहार. 

ऐसा नहीं है कि मेरा गुब्बारा कभी फूलता या फूला नहीं था. या आज भी कभी-कभी फूल नहीं जाता. फूलने और पिचकने की अनेक चक्रों से गुजरने के बाद ये एहसास हुआ कि गुब्बारे का वज़ूद बना रहे, ये अधिक आवश्यक है. दूसरे तो पिन लिये घूम ही रहे हैं. तेरहवीं पर पूड़ी का भोग लगाते हुये कहेंगे कि दूसरों के दुःख-दर्द से सरोकार रखने वाला एक भला आदमी नहीं रहा. इसलिये हवा कम कर ली लेकिन किसी दूसरे को हवा कम रखने की सलाह आजतक नहीं दी. आसमान में तैरते रंग-बिरंगे गुब्बारों का आनन्द आप तभी ले सकते हैं जब आप उनके नीचे और जमीन की सतह के करीब उड़ रहे हों. ये हर व्यक्ति की व्यक्तिगत यात्रा है जिसे उसे स्वयं तय करना है.   

इसी तरह दुनिया से पिटते-पिटाते जीवन के पचास पतझड़ पार कर लिये. ज़्यादातर जो लोग बसन्त व्यतीत करने की बात करते हैं. वो सम्भवतः वो लोग हों जिन्होंने जीवन का भोग किया हो. यहाँ तो लगता था कि आदर्शों की स्थापना और दुनिया सुधारने का सारा ठेका मेरे ही हिस्से आया. दुनिया का मज़ा लेना हो तो मीन-मेख निकालने की आदत से बचना चाहिये. ऐसे बहुत से उदहारण मिल जायेंगे जिन्होंने पेट भरने को अहमियत दी, भले दिमाग खाली रहा. अगले जन्म में भगवान् से भरा पेट और खाली दिमाग़ माँगूँगा (ये विचार भी मेरा नहीं है, कहाँ किससे उठाया है, याद नहीं. मेरे ब्लॉग के विचार प्रायः अपने नहीं होते. कहीं से पढ़ता हूँ, कहीं चेप देता हूँ, डिसक्लेमर के साथ). इन्होंने ज़िन्दगी का भरपूर आनन्द लिया और मुझे इस बात का एहसास दिलाने से कभी नहीं चूके कि इतना उठा-पटक करके तुम्हें क्या मिला. हम कहाँ तुम कहाँ. तब ऐसी स्थिति बन जाती है कि लगता है ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं. और यहीं से शुरू होती है आदमी की अन्तर्यात्रा. परमात्मा की खोज. 

इसके लिये सबसे ज़रूरी है किसी गुरु का होना. वही आपको भगवान से मिलवा सकता है. पण्डित-पुजारी हवन और पूजा तो करवा सकते हैं लेकिन भगवान से मिलने के लिये एक अदद गुरु का होना अति आवश्यक है. तमाम अध्यात्मिक चैनलों और यू-ट्यूब पर निर्झर झड़ रहे ज्ञान के कारण आज आपके लिये सुविधाजनक बाबा की खोज कोई बड़ा काम नहीं रह गया है. उन्नीस सौ चौंतीस में प्रकाशित 'अ सर्च इन सीक्रेट इण्डिया' के लेखक पॉल ब्रनटन को एक अध्यात्मिक गुरु की खोज में भारत का चप्पा-चप्पा छानना पड़ गया था. अब तो समस्या सेलेक्शन की है. चॉइस इतनी अधिक हैं कि आप की समझ नहीं आता किसे पकडें किसे छोडें. जब इस क्षेत्र में प्रवेश किया तो पता चला, चेला गुरु नहीं सेलेक्ट करता, गुरु चेला सेलेक्ट करता है और आप वहीं पहुँच जाते हैं, जो आपके लिए सबसे उचित है. पहले तो कई बाबाओं के प्रवचन यू-ट्यूब पर सुने गये. उनके कुछ टीवी प्रोग्राम्स देखे गये. सभी के प्रवचन एक से बढ़ कर एक. सभी अच्छी-अच्छी बातें करते. सबकी लम्बी-लम्बी फैन फालोइंग. सभी सोशल मीडिया पर 365 दिन 24/7 उपलब्ध. बाबाओं के अनुयायियों और मंदिरों-तीर्थों पर बढती बेतहाशा भीड़ देख कभी-कभी मुझे लगता कि जब सब लोग इतने अच्छे हैं, तो समाज में बढ़ते अपराध का ज़िम्मेदार कौन है. मंदिरों पर भीड़ बढ़ी है तो शराब के ठेकों पर भी भीड़ पहले से अधिक ही दिखती है. ये कहना बहुत कठिन हो गया है कि क्या सही है और क्या गलत. सही गलत का अंतरद्वंद जब हद से बढ़ गया तो एक बाबा को गुरु बना लेना मैंने उचित समझा. 

गुरु जी का आश्रम हमारे शहर के पास ही था बल्कि ये कहना ज़्यादा उचित होगा कि आश्रम शहर के अन्दर ही आ गया था. योग-ध्यान के लिये जितनी सुख-सुविधाओं की आवश्यकता होती है सब आश्रम में उपलब्ध थीं. गुरु जी के चेले अधिकांशतः शहरवासी ही थे. प्रतिकूल मौसम में उन्हें अत्यधिक ठण्ड या गर्मी बर्दाश्त नहीं होती थी. गुरु जी तो पच्चीस वर्ष हिमालय पर कठिन तपस्या करके आये थे. उन्हें मालूम था कि चेलों को समाज से नया-नया विमोह हुआ है. आश्रम में सुविधा न मिली तो ये पुन: माया-मोह के जाल में फँस जायेंगे. आश्रम में अवर्णनीय शांति थी. गुरु जी प्रवचन के बाद चेलों को गाइडेड मेडिटेशन करवाते. बताते दुनिया में सिर्फ़ मानव के पास ही प्रभु को खोज सकने की क्षमता है, लेकिन वे दुनियादारी को ही सच मान के बैठे हैं. जब ऊपर वाले की बे-आवाज़ की लाठी पड़ती है तो कुछ दिनों तक मंदिरों के चक्कर काटते फिरते हैं. बाद में वही ढाक के तीन पात. वृद्धावस्था में जब शरीर भी भोग में साथ देने से इन्कार कर देता है तो भगवान की याद आती है. क्या आप भगवान् को बासी फूल अर्पित करते हैं. तो भगवान को याद करने के लिये बुढ़ापे का इन्तजार क्यों. जितनी जल्दी आप अपनी अध्यात्मिक यात्रा आरम्भ करेंगे अगले जन्म में उसके आगे से यात्रा शुरू होगी. गुरु जी की वाणी में अपार स्नेह झलकता था. मानो वे इस यात्रा को इसी जन्म में पूरा करवा देंगे. 

एक दिन उन्होंने अपने प्रवचन में इस बात पर बल दिया कि सृष्टि के कण-कण में भगवान हैं. हम सभी भगवान के अंश हैं. सभी में प्रभु विद्यमान हैं. हमको सभी में ब्रह्म को देखने का प्रयास करना चाहिये. इंसान ही नहीं समस्त चर-अचर जगत प्रभु की ही कल्पना है और उस सर्वव्यापी प्रभु की कोई कृति विकृत कैसे हो सकती है. एक शिष्य ने पूछा भी कि जो लोग दुश्मनी निभाने का कोई मौका नहीं छोड़ते, जो दिन-रात अपमानित करने में लगे रहते हैं, उनसे कैसे निपटा जाये. गुरु ने मुस्कुरा कर कहा - तुममें भगवान का अंश है, पहले तो तुम्हें ये अनुभव करना होगा. सबमें ब्रह्म स्वरुप का दर्शन करो. कल्याण होगा. शिक्षक से तो चर्चा की जा सकती है लेकिन गुरु की बातें गूढ़ होती हैं. उन्हें आत्मसात करना पड़ता है.   

दो-तीन महीने ऐसे ही बीत गये होंगे. नया मुल्ला प्याज़ ज़्यादा खाता है. मै नियमानुसार हर रविवार आश्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा देता. लोग अपनी-अपनी समस्यायें गुरु जी से साझा करते और गुरु जी उनका निराकरण बताते. ये सब प्रवचन और मेडिटेशन सेशन के बाद होता था. जिसको जाना हो चला जाये लेकिन मुझे ये सेशन ज़्यादा इंटरेस्टिंग लगता. 

एक दिन उसी शिष्य ने पूछा - गुरुदेव आप के कहे अनुसार मैंने तो हर किसी में ब्रह्म का स्वरुप देखना आरम्भ कर दिया है लेकिन बाकी लोग तो और आक्रामक होते जा रहे हैं. पहले ही मै दुनिया में फिट नहीं हो पा रहा था अब तो लगता है दुनिया के बाहर ही हो गया हूँ. मेरे लिये तो हर व्यक्ति प्रभु का दिव्य रूप है. मै उन्हें ब्रह्म स्वरूप मान कर सहायता करता रहता हूँ, लेकिन वो लोग तो हमें ना-ना प्रकार से प्रताड़ित कर रहे हैंउन्हें मुझमें ब्रह्म क्यों नहीं दिखता. 

गुरु जी अपने चिरपरिचित अन्दाज़ में मुस्कुराये. बोले एक किस्सा सुनाता हूँ - एक बार एक व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक समस्या हो गयी. उसे लगता था कि वो मुर्गी का दाना है. जब भी कहीं बाहर निकलता तो जैसे ही कोई चिड़िया या मुर्गी सामने आ जाये, वो पैनिक हो जाता था और वापस घर में घुस जाता था. घर-बाहर-ऑफिस वाले सब परेशान. अच्छा-भला लम्बा-तगड़ा आदमी एक मुर्गी से डर रहा है. किसी ने सलाह दी कि किसी मानसिक रोग विशेषज्ञ के पास दिखाया जाये. डॉक्टर ने उसकी पूरी बात सुनी फिर उसे समझाया - देख भाई तेरे दो हाथ हैं, दो पैर हैं, दो कान हैं, एक नाक है, एक मुँह है. तू मुर्गीदाना थोड़ी न है. तू आदमी है. फिर उसकी पत्नी से बोला कि थेरेपी तब तक चलेगी जब तक ये समझ नहीं जाता कि ये मुर्गीदाना नहीं आदमी है. पत्नी रोज उसे ले कर आती. डॉक्टर रोज उसे यही बताता कि उसके दो हाथ हैं, दो पैर हैं, दो कान हैं, एक नाक है, एक मुँह है. वो मुर्गीदाना नहीं आदमी है. ऐसा करते-करते तीन महीने निकल गये. एक दिन वो आदमी आया और बोला - डॉक्टर साहब अब मुझे समझ आ गया कि मेरे दो हाथ हैं, दो पैर हैं, दो कान हैं, एक नाक है, एक मुँह है. मै मुर्गीदाना नहीं हूँ. मै आदमी हूँ. डॉक्टर बहुत खुश हुआ. उसने कहा अब तुम पूरी तरह स्वस्थ हो. जाओ अब नार्मल जीवन जियो. वो आदमी क्लिनिक से निकल गया. डॉक्टर अलगे पेशेंट को देखने में लग गया. इतने में वही आदमी दौड़ता हुआ आया और परदे के पीछे छुप के खड़ा हो गया. डॉक्टर परदे के पीछे गया और उससे पूछा कि क्या बात है जो यहाँ छिप के खड़े हो. वो आदमी बोला डॉक्टर साहब मै तो समझ गया कि मेरे दो हाथ हैं, दो पैर हैं, दो कान हैं, एक नाक है, एक मुँह है. मै मुर्गीदाना नहीं हूँ. मै आदमी हूँ. लेकिन जो बाहर मुर्गी घूम रही है उसे कौन बतायेगा कि मै मुर्गीदाना नहीं आदमी हूँ.

गुरु ने कहा - तुम्हारा भी यही हाल है. जब तक तुम्हें अपने ब्रह्म रूप पर विश्वास नहीं होगा तब तक दूसरे में ब्रह्म कैसे दिखेगा. सबसे आवश्यक है स्वयं के ब्रह्म होने पर विश्वास. 

-वाणभट्ट

शनिवार, 8 मार्च 2025

इन द परस्युट ऑफ़ हैप्पीनेस

देवेश का फोन आया तो उसमें आग्रह के भाव से कहीं ज्यादा अधिकार का भाव था. 'भैया हमका महाकुम्भ नय नहलउबो का. तुम्हार जइस इलाहाबादी के रहे हम डुबकी नय लगाय पाये तो तुम्हार प्रयागराजी होवै के का फ़ायदा.' 

इस महाकुम्भ में एक बार पहले भी नहा पाने की स्मृतियाँ जीवन्त हो गयीं. कानपुर से निकलते ही मेले का सा माहौल बन गया था. जिसे देखो प्रयागराज की ओर बढ़ा चला जा रहा है. रास्ते में कोई चाय की दुकान या ढाबा नहीं था जहाँ लोगों की भीड़ न हो. जहाँ-जहाँ टोल प्लाजा और डाईवर्ज़ंस थे, वहाँ-वहाँ यही भीड़ जाम में कन्वर्ट हो जा रही थी. पेट्रोल पम्प पर गाड़ियों की लम्बी-लम्बी लाइनें लगी हुयी थीं. ऐसी लाइनें हम लोगों को तभी देखने को मिलती थीं जब अफवाह फ़ैल जाती थी कि बजट में तेल का दाम बढ़ने वाला है, या शहर के सभी पेट्रोल पम्पों में बस दो दिन का पेट्रोल बचा है. लोग वाहन उपयोग के इतने आदी हो चले हैं कि यात्रा के किसी अन्य मोड के बारे में सोच भी नहीं सकते. सब टैंक फुल कराने में लगे रहते. मौकापरस्त लोग पेट्रोल के थोड़े ज्यादा पैसे भी वसूल लें तो वाहन स्वामी सहर्ष दे देते. अख़बारों और न्यूज़ चैनेल्स में प्रयागराज जा रही सभी ट्रेनों के ठसाठस फुल होने के दृश्य दिखाये जा रहे थे. स्टेशन पर भी ट्रेन्स में चढने-उतरने में मारा-मारी दिखायी जा रही थी. कुछ स्टेशनों पर तो तिल रखने की भी जगह नहीं दिख रही थी. क्या रिजर्वेशन और क्या बिना रिजर्वेशन. भीड़ इतनी की ना तो कोई टिकट खरीद सकता था, ना कोई उसे चेक कर सकता था. जब आप पुण्य कार्य के लिये जा रहे हों तो टिकट खरीदने या देखने या दिखाने को प्रभु के कार्य में हस्तक्षेप ही माना जायेगा. लेकिन ये तय है कि बिना श्रद्धा के कोई घर से निकलने की हिम्मत नहीं कर सकता. वैसे भी हमारे यहाँ मान्यता है कि जब कोई अदृश्य शक्ति आपको प्रेरित करती है, तभी आप तीर्थ के लिये निकल पाते हैं. आप गंगा जी नहीं जाते, गंगा जी आपको बुलाती हैं.

बहुत से मन के चंगे लोगों ने कठौती में ही गंगा मान कर बाल्टी स्नान कर लिया. और जो लोग प्रयागराज रिटर्न थे, उनको भी अपने इस ब्रह्म ज्ञान से वंचित न रहने दिया. कुछ को प्रयागराज से लौटे श्रद्धालुओं द्वारा लाया संगम का जल मिल गया था. यदि कोई कहता है कि भारत में भगवान बसते हैं, तो उसने सही ही कहा है. एक सौ पचास करोड़ के देश में यदि मात्र दस प्रतिशत लोग ही आज़ादी के पचहत्तर साल बाद विकसित भारत की सुविधाओं का लाभ लेने में सक्षम हों तो बाकी एक सौ पैंतीस करोड़ को भी तो जीने का कोई ना कोई सबब चाहिये ना. पढ़े-लिखे अज्ञानी इसे अन्ध भक्ति कह सकते हैं. उन्हें धर्म को अफ़ीम बोलने में किसी प्रकार की आत्मग्लानि महसूस नहीं होती. लेकिन मज़हब को नासूर बोलने में चोक लेने लगती है.

जितने लोग निकल पड़े थे, उन्हें स्वयं से ज्यादा भगवान का ही भरोसा था. कब और कैसे पहुँचेंगे, कहाँ रुकेंगे, क्या खायेंगे, ये सोच लिया होता तो वे घर से निकल ही नहीं पाते. सरकार ने बहुत पुख्ता इंतज़ामात किये थे, ताकि अधिक से अधिक लोग महाकुम्भ में सम्मिलित हो सकें. मुख्य नहान दिनों के अलावा प्रतिदिन एक से दो करोड़ लोगों द्वारा संगम पर आस्था की डुबकी लगाना जीवन में एक बार प्राप्त होने वाला अनुभव था. लेकिन उस अनन्त जनसमूह में आपका अपना अहम तिरोहित हो जाता है. एक अस्तित्वहीनता का बोध जन्म लेता है. साथ ही ये भान भी होता है बूँद-बूँद से सिन्धु बना है. बूँदों के बिना सागर का अस्तित्व नहीं है. सागर में बूँद का कोई वज़ूद हो न हो लेकिन हर बूँद में सागर के समस्त गुण-धर्म-अवयव उपस्थित हैं. सब अपने-अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार धरती पर अवतरित और अवस्थित हैं. सब की अपनी-अपनी नितान्त एकाकी यात्रा है. सब यहाँ यदि उमड़े पड़ रहे हैं तो अपने-अपने व्यक्तिगत मोक्ष की कामना के साथ. 

हमारे वाकर्स ग्रूप के चार बन्दों ने पच्चीस जनवरी को महाकुम्भ जाने का निर्णय लिया. मैंने जब से होश सम्भाला है हर पन्द्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी को देश के झण्डे को नमन अवश्य किया है. मुझे उम्मीद थी कि पच्चीस को जा कर, उसी दिन लौट के आ पाना शायद सम्भव न हो पाये, इसलिये मैंने जाने से मना कर दिया. शाम को हम और गर्ग साहब जब आराम से चाय का लुफ्त उठा रहे थे, बर्थवाल जी का फोन आया कि यार मिश्रा ने भीड़-भाड़ देख कर जाने का आइडिया ड्राप कर दिया है. हम लोग की विशेषता है कि व्यक्तिवाचक नामों के ऊपर सहजता से जातिवाचक सूचकों से लोगों को बुला लेते हैं. माँ-बाप खामख्वाह ही बच्चों के नाम पर रिसर्च करते हैं. जब कि हम वर्मा-शर्मा से भी काम चला सकते हैं. अब कोई और इंटरेस्टेड हो तो उसे अकोमोडेट किया जा सकता हैं. शायद गंगा मैया की पुकार थी जिसने मुझे बॉस से स्टेशन लीव लेने के लिये प्रेरित किया. 'सर यदि इजाज़त हो तो इस बार मै प्रयागराज में ही झन्डा फहरा लूँ.' माँ गंगे की कृपा से मुझे इस बात की सहर्ष अनुमति भी मिल गयी. अब भी अगर मै कहूँ कि मै प्रयागराज गया था, तो मेरी भूल होगी. करने और करवाने वाला तो बस केशव है, हम तो बस अपने-अपने अहम् का वहम पाले बैठे हैं. प्रभु की माया ही ऐसी है. 

हम लोग प्रातः छ: बजे इलाहाबाद के रास्ते पर निकल पड़े थे. रास्ते के दृश्य का बखान पहले ही कर चुका हूँ. बहरहाल किसी तरह लखनऊ वाली तरफ से हम इलाहाबाद में प्रवेश कर पाये. हाइवे छोड़ने के बाद सामने अन्तहीन जाम से सामना हुआ. शहर के भीतर के जाम की स्थिति कोई बेहतर नहीं थी. कई डायवर्ज़ंस को झेलते हुये किसी तरह हम लोग अपने बाघम्बरी स्थित घर पहुँच पाये. मित्रों ने राय दी कि कार को घर पर ही छोड़ दिया जाये और आगे की यात्रा पैदल तय की जाये. इलाहाबाद में जिसका जीवन बीता हो उसे घर से संगम तक पैदल जाने की बात थोड़ी अटपटी लगी. मैंने प्रतिरोध किया कि कार जहाँ तक जा सकती है वहाँ तक चलते हैं, उसके बाद पैदल चल लेंगे. लेकिन जाम के मद्देनज़र मित्रों ने लोकल व्यक्ति की सलाह मानने से इन्कार कर दिया. मन मसोस के मुझे भी उनके साथ पैदल चलना पड़ गया. ये तो बाद में पता चला कि ये हम लोगों का उस दिन का सबसे अच्छा निर्णय था. संयोग से हमारे घर से संगम की कुल दूरी अधिक से अधिक पाँच किलोमीटर की होगी. सो ये तो पता था कि अधिकतम कितना चलना पड़ सकता है. जाम-डाईवर्ज़ंस में घूमते-फिरते हम लोगों संगम स्नान करके लौटने में छ: घन्टे लगे. इस बीच जब हम लोग कुछ अल्पाहार के लिये रुके तो मुझे ध्यान आया कि मेरा एकादशी का व्रत भी है और सुबह से कुछ संतरों और केलों का ही सेवन किया था. बाकी लोगों ने बीच में भोजन जैसा कुछ लिया था. शाम तीन बजे से निकले-निकले रात नौ बजे हम वापस घर लौट पाये. सुबह छ: बजे से हम निरंतर यात्रा पर थे. सभी के शरीर थक चुके थे लेकिन संगम स्नान के बाद सभी की आत्मा जोश से लबरेज थी. स्नान के बाद माथे पर चन्दन-टीका करके हम सब एक अनजान स्फूर्ति का अनुभव कर रहे थे. 

मैंने पता किया पास ही एक स्कूल के प्रांगण में झन्डा फहराने का कार्यक्रम सुबह नौ बजे संपन्न होना था. मैंने कहा उसके बाद निकलने में कल दस तो बज ही जायेगा. सबने एक दूसरे की ओर देखा. बर्थवाल ने बोला - कल यदि झन्डा आप अपने ऑफिस में ही फहरायें तो कैसा रहेगा. सभी के चहरे चमक उठे. अगले पाँच मिनट में हम फिर सफ़र पर थे. जितना जाम जाने में था उतना ही जाम लौटने में भी था. लेकिन शहर के भीतर, हाइवे पहुँचने तक. जाने वाले रास्ते पर अभी भी जाम की स्थिति बनी हुयी थी. हमारी लौटने वाली साइड पर कतिपय कम भीड़ थी. रात तीन बजे हम लोग वापस कानपुर आ सके और मै अपने संस्थान के 26 जनवरी समरोह में सम्मिलित भी हुआ. अब इसे कोई दैवी शक्ति न माने तो न माने, मुझे मालूम है कि ये सब मुझे मेरे सामर्थ्य के बाहर प्रतीत होता यदि मैंने माँ गंगा के बुलावे पर अपना दिमाग लगा दिया होता. यही स्थिति कमोबेश सभी श्रद्धालुओं के साथ हुयी होगी. कुछ को शहर प्रवेश से ही पन्दरह-बीस किलोमीटर पैदल चलना पड़ा था. लेकिन आध्यात्म से चमकते उनके चेहरों पर पुलिस-प्रशासन के लिये अतिश्योक्तिरंजित शब्द थे. किसी को किसी प्रकार का न गिला था न शिकवा.    

देवेश बाबू, हैं तो पटना के खाँटी बिहारी, लेकिन इलाहाबाद में साथ बीटेक करने के दौरान इलाहाबादी भाषा-शैली में विशारद भी कर डाली. ये उपाधि कोई संस्थान या विश्वविद्यालय नहीं देता. इसे आपको परम ज्ञानी इलाहाबादियों संगत में रह कर ही प्राप्त करना होता है. जिसका उपयोग रिक्शे-ऑटो से करना नितान्त आवश्यक है, अन्यथा वे आपको बाहरी समझ कर दुगना पैसा वसूल लें. इसका दूसरा सबसे प्रयोग होता था तब होता है जब इलाहाबादी बकैतों को डील करना हो. अगर आपने बहस-मुबाहिसा (वाद-विवाद) में परिस्कृत भाषा शैली का प्रयोग गलती से कर दिया तो आपके लिये लॉजिकल तरीके से बात कहना मुश्किल हो जाये. बहुत मुमकिन है कि इलाहाबादी आपको बताय दे कि तुम अबहिन लरका हो और तुमका कुच्छौ नय मालूम है. ऐके बाद बहस की कौनो गुंजाईश बचत है का. आपको बैकफुट पर आना ही पड़ता कि इन जाहिलों से कौन भिड़े. 

मेरा इलाहाबाद कुछ हद तक सन अट्ठासी के बाद से छूट सा गया था, ये बात अलग है कि आप चाहिये तो भी इलाहाबाद छूटता कहाँ है. दिल्ली-पंजाब में रहने के बाद हिन्दी जैसा कुछ तो बचा रहा लेकिन इलाहाबादी भाषा पर कमांड जाता रहा. फेसबुक और वाट्सएप्प पर इलाहाबादी ग्रूप्स में होने के कारण हम लोग गाहे-बगाहे इलाहाबादी की प्रैक्टिस कर लेते हैं. ईश्वरीय विधान के अनुसार फिलहाल मेरा डेरा कानपुर है, जो कि एक गंगा किनारे वाला शहर है. मैंने देवेश को बताने की कोशिश की कि भाई भगवान् के फज़ल से मै पहले ही पच्चीस जनवरी को ही संगम स्नान का पुण्य लाभ ले आया. मेरी अब तक की ज़िन्दगी में अटेंड किये गए माघ, अर्धकुम्भ और कुम्भ मेलों में पहला अवसर था, जब मुझ इलाहाबादी को अपने घर से संगम तक की दूरी पैदल नापनी पड़ी हो. इसके पहले सायकिल, स्कूटर या कार संगम क्षेत्र तक चली जाया करती थी. लेकिन 144 साल बाद पड़ने वाला ये महाकुम्भ भी तो पहली बार पड़ा था. देवेश के पुन: गंगा स्नान के आग्रह को मुझे मानना ही था. दोस्ती होती भी तो निभाने के लिये है. तय हुआ कि 21 फरवरी को सुबह निकल कर भाई दिल्ली से कानपुर आ जायेगा और शाम को ऑफिस करके हम लोग प्रयागराज को कूच कर जायें ताकि रात 12 तक हम संगम तट पर पहुँच जायें. 

लेकिन ऐसा हो न सका, देवेश भाई का प्रवेश कानपुर में रात आठ बजे के बाद हुआ. खाना-पीना करके हम लोग रात ग्यारह बजे उसकी ऑटोमेटिक गियर वाली एसयूवी से निकल पाये. उसके ड्राइवर ओम को कानपुर में आराम करने के लिये बमुश्किल आधा एक घंटा मिला होगा. लेकिन वो ड्राइवर ही क्या जो ये न हाँके कि मैंने तीन-तीन दिन तक लगातार कार चलायी है. उसका एक पक्ष ये है कि मेरे रहते साहब को आराम न मिला तो मेरे होने का क्या लाभ. दूसरा पक्ष ये भी हो सकता है कि साहब की ड्राइविंग पर उसे भरोसा कम हो. गाडी ऑटोमेटिक थी और बड़ी थी इसलिये मुझ जैसे छोटी गाड़ी ब्रिओ चलाने वाले पर न तो दोस्त को विश्वास था न ड्राइवर को. 

प्रयागराज की बानगी भौती बायपास से ही दिखनी शुरू हो गयी थी. हमें लगा शायद जाम कानपुर के एन्ट्री पॉइंट रामदेवी तक हो लेकिन जल्द ही ये एहसास हो गया कि पूरे इलाहाबाद तक इस जाम से जूझना पड़ेगा. बाई पास के बाद जाम और बढ़ता जा रहा था. कोई ढाबा, चाय की दुकान, पेट्रोल पम्प खाली नहीं था. जाम में जो गाड़ियाँ दिख रही थीं, उनमें से गाहे-बगाहे ही यूपी की गाड़ियाँ थीं. पंजाब, गुजरात, हिमाचल, राजस्थान आदि प्रदेशों से आ रही गाड़ियों का ताँता लगा हुआ था. उसमें हमारी दिल्ली की एक गाडी भी फँस गयी थी. किसी को कोई हड़बड़ी आज नहीं थी. कोई कान-फोडू हॉर्न नहीं. सब शांति से अपनी लेन में गाड़ी लगाये खड़े थे. जगह मिलती तो बढ़ते, न मिलती तो खड़े रहते. ये बात अलग है कि छ: लेन सड़क पर आठ लेन बन चुकीं थीं, जो जाम के दृश्य को और भी भयावह बना रही थीं. ड्राइवर के बगल वाली सीट पर मै काबिज था, पीछे वाली सीट पर भाई रश्मि भाभी के साथ विराजमान थे. सामने वाली कार लगभग दस मीटर मूव कर चुकी थी, पीछे वाले से रहा नहीं गया, उसने हॉर्न ठोंक दिया. मैंने ओम की ओर मुड़ के देखा तो उसे आँख बन्द किये ध्यानावस्था में पाया. हल्के से आवाज़ देकर उसे गाडी किनारे किसी चाय की दुकान पर लगाने को कहा. 

उसके बाद की कमान देवेश ने सम्हाली और ड्राइवर साहब एक घन्टे की नैप लेने के इरादे से बगल वाली सीट पर बैठ गये. सुबह 6 बजे हम लोग इलाहाबाद के एन्ट्री पॉइंट पर थे. और गूगल मैप आगे का रास्ता नीला दिखा रहा था, जो हमें किसी चमत्कार जैसा लगा. लगा हाइवे छोड़ के हम एक घन्टे में घर पर होंगे. लेकिन एन्ट्री पॉइंट पर आठ लेन ट्रैक का जाम बगल सब लेन में भी प्रवेश कर चुका था. ओम तब तक अपनी नींद पूरी करके उठ गया था. एक पेट्रोल पम्प पर हम लोगों ने टैंक फुल करा लिया ताकि लौटते समय पेट्रोल की चिंता न रहे. वहीं पर चाय पी गयी. चाय वाले से पूछा यहाँ इतने बड़े जाम का क्या कारण है, जबकि आगे सड़क खाली है. उसने एक कातिल मुस्कराहट के साथ जवाब दिया - यहाँ से इलाहाबाद में प्रवेश बंद है. सब को लखनऊ वाली तरफ से ही घुसना होगा. बनारस रूट पर आगे बढने से पहले एक टोल भी है. अब मुझे उस जाम का कारण समझ आ गया था. ओम ड्राइविंग सीट पर अपनी जगह पुन: स्थापित हो गया और देवेश पिछली सीट पर बैठते ही नींद के आगोश में आ चुका था.          

लगभग 15-20 लाख की शहरी आबादी वाले शहर में प्रतिदिन एक करोड़ से ज्यादा लोगों के आने से प्रशासन को यदि अप्रत्याशित कदम उठाने पड़ें, तो उठाने ही पड़ेंगे. एक तरफ से आओ और दूसरी तरफ से निकल जाओ. मुझे लगा ऐसी व्यवस्था ठीक ही है. चूँकि इस यात्रा के सूत्रधार मा-बदौलत ही थे तो मेरी पलक झपकने का सवाल ही कहाँ था. चलाना मुझको था नहीं सो मेरी ड्यूटी बस ये ही देखने की थी कि ड्राइव करने वाला झपिया तो नहीं रहा. लेकिन इस भीषण जाम में झपियाने की गुंजाईश नहीं थी. झपियाये नहीं कि आगे या पीछे से ठुंके नहीं. इस बात का संतोष था कि धीरे ही सही, आगे बढ़ तो रहे हैं. लखनऊ रूट से जब इलाहाबाद के लिए बढ़े तो लगा, अब घर सारे जामों के बाद भी जल्द पहुँच जायेंगे. लेकिन आगे बढ़ने पर बताया गया फाफामऊ पुल से प्रवेश निषेध है. आगे बेला कछार से स्टील ब्रिज के द्वारा शहर में प्रवेश किया जा सकता है. हमने मान लिया कि जाम से बचने का एक तरीका डायवर्ज़न भी है, सो बिना किसी हील-हुज्जत के आगे बढ़ लिये. इलाहाबादी होने के नाते मुझे ऐसे किसी पुल का ज्ञान नहीं था जो सीधे स्टैनली रोड पर खुलता हो, लेकिन इंतजाम पुलिस का था और पुलिस का विनम्रता से आग्रह करना अपने आप में एक अजूबा सा लगा. ये भी लगा कि ज्यादा झिकझिक की तो भाई लोग अपने पुराने रूप में न आ जायें. तो हम लोग बढ़ते चले गये. और स्टील ब्रिज से होते हुये स्टैनली तक पहुँच गये. अब मेरा गन्तव्य, मेरा घर, मात्र छ:-सात किलोमीटर यानि आधा घंटा की दूरी पर था. तभी सामने चौराहे पर एकाएक कुछ पुलिस वाले प्रकट हो गये. उन्होंने बताया - दरअसल बेला कछार में पार्किंग बनायी ही इसलिये गयी है कि वहाँ इलाहाबाद के बाहर से आने वाली गाड़ियों को खड़ा करा दिया जाये. वहाँ दूर दूर तक न हाथी था ना घोड़ा था, सभी को पैदल ही जाना था. रेतीली मिटटी में इ-रिक्शे चल नहीं सकते थे. मै तो बस इस ख़ुलूस में बढ़ा जा रहा था कि अपना घर तो है ही.            

पुलिस वाले ने मुस्कुराते हुये बड़ी मासूमियत से हमें रोक दिया. आप अपनी गाड़ी बेला कछार में लगा दीजिये. मैंने बताया कि मै इलाहाबाद का ही रहने वाला हूँ. उसने बताया या तो इलाहाबाद की कार हो या इलाहाबाद का आधार हो तब ही हम आपको शहर प्रवेश की इज़ाजत दे सकते हैं. मैंने चिरौरी के अन्दाज़ में कहा - भाई जब नौकरी बाहर है, आधार भी कानपुर का है, तो क्या करूँ. देवेश की तन्द्रा कुछ देर पहले ही टूटी थी. बिफर गया - ये कह तो रहे हैं कि इनका घर है यहाँ पर और ये भी सरकारी अधिकारी हैं सेन्ट्रल गवर्नमेंट में. पुलिस वाले पर देवेश के पर्सनालिटी का कुछ रौब पड़ा या नहीं ये तो कहना मुश्किल है लेकिन पीछे लग रहे जाम की अपेक्षा हम लोगों को प्रवेश की अनुमति देना उसे ज्यादा उचित लगा. हमारे मुड़ने की जगह भी नहीं थी. उसने साथ ही ये शब्द भी जोड़ दिये सीधे से निकल जाइये आप लोग दाहिने कहाँ मुड़ने जा रहे थे. उस दिन पहली बार मुझे अपने ही शहर में बेगानेपन का एहसास हुआ. शुक्र है कि हम आगे निकल गये अगर वापस लौट के बेला कछार में गाड़ी पार्क करनी पड़ती तो हम लोगों को भले थोडा ज्यादा चलना होता लेकिन बेचारे पाठकों का क्या होता. उनके के लिये ये लम्बा ब्लॉग और लम्बा हो जाता. उस पुलिस वाले में हमें देवदर्शन हो गये. भगवान् के प्रति आस्था कुछ और बढ़ गयी. 

शहर के जाम से जूझते हुये किसी तरह जब हमने घर के सामने गाडी खड़ी की तो दोपहर का एक बजा था. कानपुर से इलाहाबाद अपने घर तक की यात्रा में हमें चौदह घन्टे लग चुके थे.  

अब हमारा अगला काम था जल्दी से फ्रेश हो कर संगम की ओर पैदल प्रस्थान करना. पिछले अनुभव ने यही सिखाया था. शहर में जिधर देखो आदमी ही आदमी. पूरा रास्ता पैदल श्रद्धालुओं से भरा हुआ था. आपको अपने लिये जगह बनाते हुये आगे बढ़ना एक चुनौती से कम नहीं था. तीर्थयात्रियों के लिये आने और जाने के मार्ग को भी अलग करने का प्रयास किया गया था. भीड़ को कम करने के उद्देश्य से बैरिकेड्स लगा कर रूट डाईवर्जन्स भी किये गये थे. सामने दिख रहे गंतव्य तक पहुँचने में आपको कितनी दूरी तय करनी होगी और कितना समय लगेगा ये कहना मुश्किल था. इ-रिक्शे ने अलोपी मन्दिर पर छोड़ दिया. किसी ने बताया आजकल यंग बाइकर्स मोटरसायकिल पर लोगों को थोडा और आगे तक ले जा सकते हैं. किराया दो सौ रुपये प्रति सवारी और एक मोटरसायकिल पर दो सवारी से कम नहीं बैठा रहे थे. वो दो मोटरसायकिल वाले भी हमें देवदूतों से कम नहीं लगे. लेकिन उन्होंने शास्त्री ब्रिज के नीचे जहाँ छोड़ा वहाँ से भी संगम एरिया ढाई किलोमीटर तो रहा ही होगा. लेकिन रेले के साथ बढ़ते हुये शायद ही किसी को ये ध्यान आया हो कि हम सबने रात भर यात्रा की है या किसी प्रकार की थकान है. शिव रात्रि और मेले का आखिरी स्नान करीब ही था और हर कोई चाहता था कि वो इस महाकुम्भ का हिस्सा बने इसलिये प्रतिदिन एक से डेढ़ करोड़ लोग प्रयागराज में संगम स्नान कर रहे थे. संगम पर हर तरफ़ आदमी ही आदमी दिख रहे थे. कहीं भी कपड़े-बैग रखने की जगह नहीं दिख रही थी. मेले की खासियत होती है, आप बढ़ते जाते हैं तो रास्ता निकलता जाता है. हम सबने बारी-बारी से स्नान किया. इस भीड़ में हर व्यक्ति अकेला था. उसके संकल्प, उसकी मान्यतायें उसकी अपनी थीं. सभी उस अद्भुत वातावरण में राग-द्वेष से पूरी तरह मुक्त थे. जितने संकल्प उतनी डुबकी. डुबकी सभी इष्ट-मित्र-परिवार के लिये. भाभी जी ने सम्पूर्ण भक्ति भाव के साथ पूजा अर्चना सम्पन्न की. लेकिन चन्दन-टीका और सेल्फी भी ज़रूरी थी स्नान को यादगार बनाने के लिये. 


पाप-पुण्य की अह्मंयताओं से मुक्त ये स्नान हमारे जीवन के कुछ अविस्मरणीय क्षणों में शामिल हो गया. आनन्द की खोज में सभी इधर-उधर भटक रहे हैं. यूँ ही करोड़ों लोग कष्ट झेलते हुये हर साल माघ मेले में संगम तट पर नहीं पहुँच जाते. इस बार तो ग्रहों का विशेष संयोग वैसे भी 144 साल बाद पड़ा था. इस भीड़ का हिस्सा बनके हर व्यक्ति आल्हादित अनुभव कर रहा था. हम भी उनमें से एक थे. लेकिन एक बात हमें अच्छे से समझ आ गयी थी, कष्ट जितना अधिक होगा आनन्द का लेवल भी उतना ही अधिक होगा. कम या अधिक सभी 60 करोड़ श्रद्धालुओं ने इस यात्रा में कष्ट उठाये होंगे. लेकिन सब तृप्त आत्मा से वापस लौट गये. उन करोड़ों लोगों की तरह वापस लौटते हुये हम भी इस अद्भुत अनुभव को संजोने में लगे थे. गंगाजल और संगम की मिट्टी साथ थी, अपने उन इष्ट-मित्रों के लिये जो किसी कारण से संगम तक नहीं पहुँच पाये थे. आनन्द वो नहीं है जो आप अपने लिये करते हैं. आनन्द वो है जो हम दूसरों के लिये करते हैं. और इसकी खासियत है कि ये बाँटने से बढ़ता है. 

- वाणभट्ट 

विलेन

प्रिंसिपल साहब जब भी उसके सामने पड़ जाते, उसकी आदत थी कि पूरी विनम्रता और आदर के साथ हाथ जोड़ कर अभिवादन करना. वैसे वो सत्ता और शक्ति से दूर र...