रविवार, 3 मार्च 2024

संस्कार

संस्कार शब्द जब भी कान में पड़ता है तो हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का ही ख़्याल आता है. भारत में विशेष रूप से हिन्दुओं के संदर्भ में संस्कार का बहुत महत्व है. गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक संस्कार हिन्दुओं के साथ-साथ चलते हैं. अमूमन लोग इसका अर्थ तमीज़, तहज़ीब या मैनर्स समझ लेते हैं. लेकिन ये इन सबसे अलग है. संस्कार वो हैं जो बचपन से घुट्टी की तरह पिलाया जाता है. खास बात तो ये है कि संस्कार कोई किसी को सिखाता नहीं है. बल्कि इनको बच्चे अपने घर में अपने बड़ों के आचरण से सीखते हैं. समय और जगह के साथ-साथ संस्कार भी बदल जाते हैं. हालात तो ये हैं कि हर घर के अपने संस्कार होते हैं.

यहाँ पर सबसे बड़ा संस्कार बड़ों का आदर करना है. बड़े भी बस यही ताक लगाये देखते रहते हैं कि बच्चों में संस्कार नाम की चीज़ है भी या नहीं. लेकिन अक्सर ये बात दूसरों के बच्चों पर लागू होती है. हर व्यक्ति ये मान कर चलता है कि उसने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिये हैं. लेकिन तौलने का तराजू तो दूसरों के हाथ में होता है. 

ग्रेजुऐशन में जब पहली बार जीन्स खरीदी तो लगा रोज-रोज धुलाई से आज़ादी मिल गयी. एक जीन्स को हफ़्ते भर न रगड़ लो तो संतोष नहीं होता. उस पर गोल या बोट नेक वाली टी-शर्ट जब पहनता था तो लगता था कि कहीं न कहीं बात बन जायेगी. ये तो बहुत बाद में पता चला कि लड़कियाँ सिक्योर्ड फ्यूचर देखती हैं. एक से एक कैंटीन में चाय पिलवाने वाले स्मार्ट लड़के टापते रह गये. लड़कियाँ टॉपर्स के साथ नोट्स एक्सचेंज करते-करते सेट हो गयीं. वो तो भला हो कि नौकरी मिल गयी नहीं तो शादी के भी लाले पड़ जाते. 

ऐसे ही जीन्स और बोट नेक वाली टी-शर्ट पहने जब मैं कॉलेज से लौटा तो घर में फूफा जी ड्राइंगरूम में सोफ़े पर बैठे हुये थे. चरण-स्पर्श करने के इरादे से झुका तो उन्होंने घम्म से एक घूँसा पीठ पर मारा. पिता जी से बोले ये क्या संस्कार दे रखा है, बेटा भिखारियों जैसे कपड़े पहने घूम रहा है. अब उन्हें कौन समझाये की जीन्स को फेड कराने के लिये कितने जतन किये गये हैं. ऐसे ही जब पोस्ट ग्रेजुऐशन में थीसिस के दौरान हर बच्चा दाढ़ी बढ़ाये घूम रहा था, जीजा जी का पत्र आया कि कभी लखनऊ घूम जाओ. जब दाढ़ी बढ़ ही गयी थी तो सोचा कबीर बेदी की तरह सेट करवा लिया जाये. मौका निकाल के जब जीजा जी के पास पहुँचा तो उनका पहला रिऐक्शन यही था कि ये क्या लफंगों जैसी शक्ल बना रखी है. क्लीन शेव्ड (मूँछ मुंडे) जीजा ने मेरी दाढ़ी कटवा के ही दम लिया. संस्कार के नाम पर हम फूफा और जीजा जैसे मान्य लोगों की बात भला कैसे टाल सकते थे. तब फोन या मोबाइल तो थे नहीं कि बहन बता दे कि घर पर फूफा या जीजा आये हैं. इस डर से जीन्स-टीशर्ट-दाढ़ी सिर्फ़ हॉस्टल तक ही सीमित रही. घर जाता तो ओरिजिनल गोलमाल फ़िल्म के राम प्रसाद की तरह बालों में तेल चुपड़ कर ही घुसता.

कॉलेज के अपने संस्कार हुआ करते थे, जो रैगिंग के दौरान सीनियर्स ठोंक-पीट के सिखा देते. हॉस्टल पहुँचते ही बाल रंगरूटों की तरह कटवा दिये जाते. पैंट-शर्ट-बेल्ट-टाई ये फ्रेशर्स की ड्रेस हुआ करती थी. उस पर भी शर्त ये थी कि शर्ट लाइट कलर की और पैंट डार्क. सीनियर्स से बात करनी है तो अपनी शर्ट की तीसरी बटन देख कर. सीनियर्स के असाइनमेंट्स चाहे वर्कशॉप के हों या इंजीनियरिंग ड्राइंग के, बिना हुज्जत के निपटाना जूनियर्स का ही काम होता. सीनियर्स के सामने हँसना तो दूर मुस्कुराना भी गुनाह था. ये बात नौकरी के बाद समझ आयी कि यदि आप ज़्यादा खुश दिखोगे तो बॉस आपका काम लगा देगा. इसलिये मनहूस चेहरा बनाये रखिये ताकि उसे ग़लतफ़हमी रहे कि उसका इस्तक़बाल बुलन्द है. 

जमाना क्या बदला रैगिंग बैन हो गयी. नतीजा ये निकला कि जूनियर्स सीनियर्स को टी-ली-ली करके चिढ़ाया करते और सीनियर्स मन-मसोस के देखते रहते. सीनियर्स और जूनियर्स का सम्बन्ध भी समय के साथ कम होता गया. पहले जूनियर्स तीन साल सीनियर्स और सीनियर्स तीन साल जूनियर्स को जानते थे. अब एक बैच के बच्चे भी एक-दूसरे को पहचान लें तो बड़ी बात है. ये पौध जब डिग्री-विग्री ले कर बाहर आयी तो सीनियर-जूनियर का कॉन्सेप्ट खत्म हो चला था. आज जब ये नौकरी में आ गये तो रैगिंग जनित संस्कार की विहीनता हर तरफ़ परिलक्षित होती है. सीनियर अपनी इज़्ज़त अपने हाथ मान कर जूनियर्स से उचित दूरी बनाये रखते हैं. इसमें इनका दोष भी नहीं है. चूँकि इन्होंने बड़ों का बड़प्पन तो देखा नहीं है इसलिये उसको एप्रीशिएट करना इनके बस की बात नहीं है. सीनियर अगर कैंटीन में बैठा है तो जूनियर को पर्स नहीं निकालना. सारी किताबें और नोट्स पिछले बैच से अगले बैच तक ट्रांसफर होते रहते. सीनियर्स भी लोकल गार्जियन की तरह ख़्याल रखते. 

वो जब मेरे कमरे में आया तो मेज के दूसरी तरफ़ बिन्दास अन्दाज़ में विज़िटर चेयर खींच कर बैठ गया. ठीक भी है, कुर्सी बैठने के लिये ही तो होती है. उसे नौकरी जॉइन किये दो-एक साल हो चुके थे. लेकिन उसका मुझसे कोई काम नहीं पड़ा तो मेरे कमरे में उसका आना नहीं हुआ. लड़का बिन्दास था. उसके लहजे में ग़ज़ब का कॉन्फिडेंस था. अच्छा लगता है आत्मविश्वास से लबरेज़ युवाओं से मिल कर. मेरा अपना मानना है कि हर आने वाली पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी से ज़्यादा श्रेष्ठ होती है. ये कोई जबरदस्ती का जेनेटिक इम्प्रूवमेन्ट नहीं नेचुरल इवोल्यूशन है. हमारे समय में बच्चे को मालिश करके काला टीका लगा कर पालने पर झूला दो, तो बड़े आराम से झूलता रहता था. आज का बच्चा मोबाइल और कार्टून नेटवर्क से नीचे मानने को तैयार नहीं है. बात ख़त्म होने के बाद वो जिस अन्दाज़ में कुर्सी खींच के बैठा था, उसी अन्दाज़ में कुर्सी धकेल के उठ खड़ा हुआ. कुर्सी पैंतालीस डिग्री का आर्क बनाते हुये स्थिर हो गयी. बन्दा पलट के धड़धड़ाता हुआ निकल गया. बेतरतीब चीज़ें अखरती हैं, इसलिये उसके जाते ही मैने उस कुर्सी को यथावत अगले आगन्तुक के लिये ठीक से रख दिया. 

आजकल किसी को समझने-समझाने का ज़माना तो रहा नहीं. वैसे भी जब से घर में पेरेन्ट्स और स्कूल में टीचर्स ने कुटाई करना बन्द कर दिया है, तो नये बच्चों (जिसमें अपने बच्चे भी शामिल हैं) से संस्कार की उम्मीद रखना सही नहीं लगता है. मुझे लगता है कि जब समाज का कोई दबाव नहीं होता तो बच्चे खुल के जीते हैं. हम लोगों की तो उम्र ही इसी में निकल गयी कि लोग क्या कहेंगे और कहीं कोई इष्ट-मित्र बुरा न मान जाये. ये पीढ़ी इन मान्यताओं से मुक्त है. जीजा और फूफा का मज़ाक इन दिनों इतना बन गया है कि दोनों अपने चाह कर भी पुराने मोड में नहीं जा पा रहे हैं. अच्छा लगता है ये देख कर कि इन बच्चों में अपनी ज़िन्दगी जीने की ललक है. समय बदलता है तो उसे स्वीकार भी करना पड़ता है. 

कुछ दिन बाद किसी काम से हेड साहब के कमरे में जाना हुआ. जब मैं पहुँचा तो वो ही बन्दा हेड के सामने बैठा हुआ था. मैं भी एक कुर्सी पर विराजमान हो गया. मेरे आते ही बन्दे ने हेड से रुख़सत माँगी और उठ खड़ा हुआ. उसके अन्दाज़ से आज बिन्दासपन गायब था. बहुत ही सलीके से खड़ा हुआ. कुर्सी को धीरे से धकेला और उठ कर वापस कुर्सी को करीने से लगा दी. अब हम लोगों की आँखें मिलीं. मुस्कुराया मैं भी और मुस्कराया वो भी. मुझे अच्छा लगा कि कम से कम पहचान तो गया. आजकल काम न हो तो कौन किसको पहचानता है. आहिस्ते से वो कमरे के बाहर निकल गया. तब मुझे लगा कि बात संस्कार की नहीं, सीआर (कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट) की है.

-वाणभट्ट

रविवार, 25 फ़रवरी 2024

भला जो देखन मै चला

कबीर दास ने बुरा देखने का प्रयास किया था और उसका अन्त ख़ुद उन्हीं पर हुआ. वो अन्तर्ज्ञान का युग था. आज का युग बहिर्ज्ञान का है. हर कोई दीदे फाड़े बाहर की ओर देख रहा है. बाहर इतनी हैप्पनिंग्स हो रही हैं कि आदमी को अन्दर जाने का समय तभी मिलता है जब मुँह में दाँत और पेट में आँत काम करना बन्द कर दें. वो कुछ भी मिस नहीं करना चाहता. पाँच अख़बार और पचहत्तर न्यूज़ चैनल्स के बाद भी लोग-बाग़ (तथाकथित पत्रकार) अपना-अपना यूट्यूब चैनल बना के लाइक और सब्सक्राइब करने की डिमांड करते घूम रहे हैं. ये वो लोग हैं जिन्हें लगता है कि इन्होंने नहीं बताया तो दुनिया पीछे छूट जायेगी. जब चैनल के चैनल प्रो और अगेंस्ट सरकार हो गये हों तो भला अपना एजेंडा चलाने वाले पत्रकार कहाँ बच पायेंगे. ख़ासियत ये हैं कि अन्दर की ख़बर रखने वालों को किसी भी स्थापित भारतीय मीडिया पर भरोसा नहीं है. वो या तो बीबीसी देखते हैं या अल-जज़ीरा. जिनको अपनी अंग्रेज़ी पर शुबहा हो उन्हें इन्हीं देसी पत्रकारों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. और ये लोग अपनी-अपनी पसन्द के अनुसार पक्ष और विपक्ष की धज्जियाँ उड़ाया करते हैं. 

जिस उम्मीद में मैने ब्लॉग लिखना शुरू किया था कि कुछ एक्स्ट्रा इनकम हो जायेगी, उसी उम्मीद से ये भी अपने यूट्यूब चैनल पर लाइक या सब्सक्राइब करने का निवेदन करते रहते हैं. सुना है हज़ार फॉलोवर्स होने पर यूट्यूब कुछ पैसा देता है. मै भी सोच रहा हूँ कि इतनी मेहनत करके ब्लॉग लिखने से अच्छा है कि कुछ मिनट के लिये किसी भी महान हस्ती को गरियाना शुरू कर दिया जाये. डेढ़ सौ करोड़ के देश में हज़ार सब्सक्राइबर्स खोज पाना कौन सा कठिन काम है. अलग-अलग वाट्सएप्प ग्रूप्स पर जिन्हें रोज गुड मॉर्निंग, नये-नये वीडियोज़ और जोक्स भेजता रहता हूँ, वो ही अगर सब्सक्राइब कर लें, तो डेढ़-दो हज़ार लोग तो हो ही जायेंगे. लेकिन मार्केट में सब के सब किसी न किसी की बुरायी खोज के गरियाने में लगे हैं, तो मैंने सोचा कि मैं कुछ अलग करूँगा. लोग बुराई करने में लगे हैं तो मैं तारीफ़ करने में लग जाता हूँ. किसी वाट्सएपिया गुरू ने बताया था कि अच्छाई और भलाई के रास्ते पर भीड़ कम है. अगर मैं आम लोगों की भलाई का ज़िक्र करूँ तो शायद लोगों को अच्छा लगे और सब्सक्राइबर्स आसानी से मिल जायें.

वाणभट्ट कोई रवीश और अर्नब और सुधीर और अंजना की तरह ख्यातिलब्ध पत्रकार तो है नहीं जो किसी बड़े नेता-अभिनेता का इंटरव्यू ले सके. सो मेरे पास बचे पड़ोसी शर्मा जी. जिनसे मेरे सम्बन्ध वैसे ही थे जैसे दो पड़ोसियों के होते हैं या होने चाहिये. मैने मकान बनवाया तो उन्होंने भी बनवा लिया, मैने दूसरा तल्ला बनवाया तो उन्होंने भी बनवा लिया, मैने कार खरीदी तो उन्होंने भी. गोया दुनिया में उनका सारा कम्पटीशन मुझसे ही था. लेखक और सम्वेदनशील (डरपोक और दब्बू) होने का और कोई फ़ायदा हो न हो, हर कोई आपको अपने फ़ायदे के लिये यूज़ करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है. वैसे तो उन्हें मुझसे कोई खास मतलब तो था नहीं क्योंकि मैं खाता-पीता नहीं. जब पार्टी देनी हो तो दूर-दराज़ से लोगों को खोज लाते और मुझसे कहते यार तुझे क्या बुलाना, तू तो न पीता है, न पिलाता. लेकिन जब काम पड़ता तो मेरी ही घण्टी बजाते. चाहे घर की हो या फोन की. इसलिये मुझे इतना भरोसा तो था कि वो मेरे इस नेक काम के लिये मना नहीं करेंगे. सो पॉडकास्ट के लिये कैमरा, कैमरा स्टैंड और माइक लेकर उनके घर पहुँच गया. 

गेट के बाहर से घण्टी बजायी तो घर के अन्दर से कोई आवाज़ नहीं आयी. झाँक के देखा तो कार और स्कूटर दोनों खड़ी थीं. मतलब शर्मा घर के अन्दर ही था. जब से साइबर क्राइम शुरू हुआ है चोर-डकैत भी अब घर में घुसने की कोशिश नहीं करते. लोग अपने घर में बैठे-बैठे पास-पड़ोस की हरकत देखने के उद्देश्य से धड़ाधड़ सीसीटीवी लगवा रहे हैं. ताकि पता चल सके कि हमारी काम वाली पडोसी के घर काम तो नहीं कर गयी. मेरी छठीं इन्द्री कह रही थी कि कैमरे के उधर शर्मा अपने 75 इंच के टीवी पर मुझे गेट भड़भड़ाते हुये देख रहा है. मैं भी सोच के आया था कि आज अपना पहला वीडियो तो बना के ही लौटूँगा. काफी देर भड़भड़ाने के बाद उसे जब अन्दाज़ लग गया कि मैं नहीं जाने वाला, तो दरवाजा खोल के बाहर निकला. 'आइये-आइये वर्मा जी. जरा नींद लग गयी थी'. जब कि उसका चेहरा पूरी तरह चैतन्य दिख रहा था. सोचा पूछूँ पूरा घर सो रहा था क्या. लेकिन काम अपना था, इसलिये नाराज़ करना ठीक नहीं लगा. मेरे मन में पहला विचार यही आया कि किसी ढंग के आदमी से हमें शुरुआत करनी चाहिये थी. इस झूठे-मक्कार आदमी से भलाई की भला क्या उम्मीद की जाये. लेकिन मैंने तुरन्त मन में आये निगेटिव विचार का बहिष्कार कर दिया. सेल्फ़ टॉक में बोला - वर्मा, बी पॉज़िटिव. 

कैमरा-माइक देख के शर्मा थोड़ा कॉन्शस हो गया. बोला - भाई क्या इरादा है. मैने पूरे डीटेल में उसे बताया कि कैसे यूट्यूब पर अपना चैनल बना कर और सब्सक्राइबर्स बढ़ा कर एक्स्ट्रा कमायी की जा सकती है. शुरुआत उनके इंटरव्यू से करना चाहता हूँ. सुनते ही उनके चेहरे पर ऐसा भाव आया मानो कहना चाह रहे हों कि मेरे इंटरव्यू से जो कमायेगा उसका आधा मुझे दे. मुझे उसका काइयाँपन पहले से मालूम था. लेकिन आज सुबह ही किसी बाबा ने किसी चैनल पर बताया था कि अच्छाई और बुरायी देखने वाले की आँख में होती है. यदि आप को बुरायी दिखायी देती है तो आप में भी वो तत्व विद्यमान है. मुझे अपने अन्दर आये इस कुत्सित विचार पर आत्मग्लानि महसूस हुयी. भगवान सब देखता है. यहाँ तक कि हमारे विचार भी. बहरहाल सेंटर टेबल पर माइक और स्टैंड पर कैमरा सेट करके हमने इंटरव्यू शुरू कर दिया. पहले तो कैमरे के सामने वो कुछ हेज़ीटेन्ट लगे फिर धीरे-धीरे खुलते गये.

उनकी परतें खुलने लगीं. मेरा जन्म गाँव के एक गरीब किसान के यहाँ हुआ. अनपढ़ माँ ने मुझे पढ़ायी की अहमियत समझायी. पिता जी तो बस खेती में मदद की ही आस करते थे. प्राइमरी के मास्टर जी ने मेधा को पहचाना और छात्रवृत्ति के एग्जाम के लिये तैयारी करवायी ताकि शहर के सरकारी स्कूल में दाख़िला मिल सके. अपने गाँव से शहर आने वाला मै पहला व्यक्ति था. शहर के गवर्नमेन्ट इंटर कॉलेज के होस्टल में जब रहने आये तो मेरी ही तरह उस जिले के अन्य गाँवों से और भी बच्चे आये थे. सभी मेहनती बच्चे आपस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रखते थे. क्लास में शहर के बच्चे भी थे. जिनको देख के इंफेरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स हुआ करता था. हमारी अँग्रेज़ी की शिक्षा कक्षा छः से आरम्भ हुयी, जब कि शहर के बच्चे नर्सरी से अँग्रेज़ी पढ़ रहे थे. चूँकि होस्टल के सब छात्रों को छात्रवृत्ति से ही गुजारा करना होता था, इसलिये शहरी बच्चे जिस स्वच्छंदता से जिया करते थे, वो हमें स्वप्न सा लगता था. पढ़ायी के अलावा और कोई काम था नहीं. कुछ शहर वाले दोस्त भी बने. लेकिन उनकी मौज-मस्ती-ख़र्चे अलग थे. इसलिये दोस्ती बस क्लास और पढायी तक रही. चूँकि हमारा टारगेट सिर्फ़ पढायी था, इसलिये पहले ही अटेम्प्ट में रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिल गया. चार साल इंजीनियरिंग की पढ़ायी के साथ पूरा फ़ोकस अँग्रेज़ी सुधारने में लगा दिया. यहाँ भी पढ़ायी छात्रवृत्ति पर ही निर्भर थी. इसलिये तमन्नाओं पर अंकुश लगाना जरूरी था. क्लास के एक लड़के की पर्सनाल्टी मुझे अच्छी लगती थी, उसी को कॉपी करने का प्रयास शुरू कर दिया. उसकी चाल-ढाल, कपड़े पहनने का सलीका, बोलने-बतियाने का तरीका. पहली ब्रान्डेड जींस नौकरी लगने के बाद खरीदी. बाद में भाई-बहन को पढ़ाने की जिम्मेदारी मैंने अपने ऊपर ले ली. सभी ठीक-ठाक नौकरी में हैं. आज तीस साल शहर में रहते हो गये लेकिन मेरे अन्दर का गाँव अभी भी जीवित है, जो मुझे शहरी होने से रोकता है. शहर की चिकनी-चुपड़ी पॉलिश्ड बातें करने की कोशिश तो करता हूँ लेकिन उसमें कहीं न कहीं नकलीपन सा लगता है. अपने कॉम्प्लेक्सेज़ के साथ जीना कठिन है, लेकिन मुझे रोज जीना पड़ता है. प्रत्यक्ष रूप से जो शहरों में व्याप्त हेकड़ी है, उसे बनाये रखने की कोशिश करता रहता हूँ. ताकि कोई मुझे बहुत शरीफ़ समझ कर फ़ायदा उठाने का प्रयास न करे. अब तो दूसरों पर डॉमिनेट करने की प्रवृत्ति गाँव तक पहुँच गयी है. मै आज भी अपने आस-पास के लोगों से प्रभावित हो जाता हूँ और उनसे कुछ न कुछ सीखने का प्रयास करता रहता हूँ. गाँव के मास्टर जी से लेकर अब तक जो भी लोग मेरी ज़िन्दगी में आये, वो मेरे व्यक्तित्व का अंग बन गये.   

मै और मेरा कैमरा उनको खुलते हुये सुनते-देखते रहे. मुझे लगा कि भक्ति चैनल पर किसी स्वामी महाराज का प्रवचन सुन रहा हूँ. मेरे ज्ञान चक्षु खुल रहे थे. किसी के बारे में हम लोग बड़ी जल्दी अपनी ओपिनियन बना लेते हैं. लेकिन यदि किसी को सही से जानना हो तो उसके किरदार में घुसना ज़रुरी है. हर शख़्स की अपनी कहानी है, सबके अपने-अपने सच हैं. लेकिन हैं सब के सब भले. कबीर जी से माफ़ी के साथ मै कहना चाहता हूँ कि भलाई देखने की कोशिश हो तो हर कोई भला ही दिखता है. जब सब भले हों तो मैं भी बुरा कैसे हो सकता हूँ. वैसे भी हमारे बुजुर्गों ने कहा है कि आप भले तो जग भला. अब चूँकि पहली बार मैने भलाई के मुद्दे की बात उठाई है तो ये कहने में गुरेज कैसा कि - मो सम भला न कोय. 

एक आदमी के बनने या न-बनने में भी बहुत लोगों का योगदान होता है. जिनसे हम अच्छी या बुरी चीज़ें सीखते हैं. वही हमारी वर्तमान पर्सनाल्टी का हिस्सा बन जातीं हैं. बरबस निदा फ़ाज़ली साहब की ये पंक्तियाँ याद आ गयीं-

हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी 

जिसको देखना हो कई बार देखना

अपना वीडियो कम्प्लीट कर के यूट्यूब पर अपलोड कर दिया है. दिल खोल के लाइक और सब्सक्राइब कीजिये. अगला पॉडकास्ट मै मोहल्ले के माफ़िया पर बनाने की सोच रहा हूँ. उसकी भी कोई दिल को छू जाने वाली अन्तर्कथा ज़रूर होगी. अपने पॉडकास्ट पर मै हर टॉम-डिक-हैरी (ऐरे-गैरे) को अपनी भावनायें व्यक्त करने का मौका दूँगा. आज ही सुबह मुझे सपना आया है कि यूट्यूब वाले चेक लिये मेरे घर का पता पूछते घूम रहे हैं. 

-वाणभट्ट

शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

बच गयी

कुछ दिन पहले तक पुंगानुरू के नाम से सब अन्जान थे. भला हो हमारे प्रधान का जिसने उनके साथ अपने वीडियो को वायरल कर दिया. गाय की वो प्रजाति जो विलुप्ति की कगार पर थी, एकाएक पॉपुलर हो गयी. सरकार बदली तो पौष्टिक दूध देने वाली इन गायों का संरक्षण की ओर ध्यान दिया जाने लगा. जिससे इनकी संख्या में वृद्धि हुयी है. और निकट भविष्य में इनकी संख्या तेजी से बढ़ने वाली है क्योंकि इनकी माँग में अत्यन्त वृद्धि देखने को मिली है. बहुत से लोग आज अपने आवास या फ्लैट में अन्य पालतू जानवरों की जगह इन छोटी-छोटी गायों को पालने के इच्छुक दिखायी दे रहे हैं. 

ऐसे ही जब लहरी बाई का नाम सुना तो एक सुखद आश्चर्य हुआ कि मध्य प्रदेश की एक आदिवासी महिला श्री अन्न की विलुप्त हो रही लगभग 150 प्रजातियों को संरक्षित करने में बिना किसी सरकारी अनुदान के तन-मन-धन से जुड़ी हुयी हैं. बहुत सम्भव है कि बीज संरक्षण की ये विधा उन्होंने अपने पुरखों से सीखी हो. ये वो लोग हैं जिनका स्वदेशी तकनीकी ज्ञान (आईटीके) अंग्रेजी शिक्षा से बच गया. किसी राजनेता की नीतियों के समर्थक और विरोधी दोनों होते हैं, लेकिन उनके विचारों और कार्यों के दूरगामी परिणाम होते हैं. जैविक (ऑर्गेनिक) और प्राकृतिक (नेचुरल) खेती (फ़ार्मिंग) को पुनः मुख्य धारा पर लाने का प्रयास, इस सरकार की पुरातन पद्यतियों के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है. इसी प्रकार श्री अन्न को प्रोत्साहन ऐसे समय में करना, जब सब इसकी महत्ता भूल कर, इसकी ओर से विमुख हो चले थे. सम्भवतः इसका मूल उद्देश्य लघु और सीमांत किसानों की उत्पादन लागत को कम करना और उनके उत्पाद के लिये उच्च मूल्य का बाज़ार तैयार करना हो ताकि उनकी उपज का अधिक मूल्य मिल सके और उनकी आय में वृद्धि हो.

वर्षा आधारित कृषि हमेशा से एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है. निरन्तर हो रहे असन्तुलित आधुनिक विकास ने मनुष्य के जीवन को सुख-सुविधायें अवश्य प्रदान की हैं किन्तु साथ ही पर्यावरण को अपूरणीय क्षति भी पहुँचायी है. इस कारण हुये जलवायु परिवर्तन ने कृषि में चुनौतियों को और भी बढ़ाया है. हरित क्रान्ति के लगभग पचास वर्षों के बाद अब प्रबुद्ध लोगों को ये लगने लगा है कि अधिकाधिक उत्पादन हेतु सिंचित क्षेत्रों में भूमिगत जल के दोहन और रासायनिक खाद-कीटनाशकों के विवेकहीन उपयोग से प्राप्त उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि टिकाऊ नहीं है. बढ़ती जनसँख्या की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुये, कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि के साथ पर्यावरण भी संरक्षित करना आज एक बहुत बड़ी चुनौती बन के उभरा है. वर्षा आधारित खेती में कृषक आय में अस्थिरता के कारण कृषि एक लाभकारी उद्यम नहीं प्रतीत होता है. इसीलिये कृषि कार्यों से पलायन की प्रवृत्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि दिखायी पड़ती है. आज कृषक को कृषि कार्यों से जोड़े रखने के लिये कृषि का लाभप्रद होना अत्यन्त आवश्यक है. आशा की जाती है कि कृषि आय को दुगना करने के लिये उत्पादन दुगना करना होगा. किन्तु होता ठीक इसका विपरीत है. उत्पादन ज़्यादा हो तो बाज़ार भाव कम हो जाता है. कृषि का सारा कारोबार किसान पर ही टिका है पर पूरी कृषि उत्पाद मूल्य श्रृंखला में किसान उद्योग के लिये सस्ते कच्चे माल का प्रदाता बन के रहा गया है. बीज-खाद-रसायन-कीटनाशक कंपनियों के लिये कृषक बाज़ार है जब कि कटाई के बाद स्थापित उद्योगों के लिये कृषक सस्ते कृषि उत्पाद को उपलब्ध कराने का माध्यम बन के रह गया है. यदि पूँजी-प्रवाह की ओर ध्यान दिया जाये तो ये आसानी से देखा जा सकता है कि पूँजी ग्रामीण अंचल से शहरों की ओर प्रवाहित हो रही है. जब हर ओर कृषक समृद्धि और कृषि आय बढ़ाने की बात हो रही है ऐसे में समस्त मूल्य श्रृंखला में किसान ही सबसे कमज़ोर कड़ी बन के उभरा है. उत्पादन का सारा जोखिम किसान का होता है जबकि मूल्य श्रृंखला के अन्य प्रतिभागी, जो उत्पाद के बाजार मूल्य का निर्धारण भी करते हैं, और सिर्फ़ लाभ पर ही काम करते हैं. उत्पादन से लेकर भोजन की थाली तक की खाद्य श्रृंखला जिस किसान पर निर्भर है, उसकी वित्तीय और आर्थिक स्थिति का ध्यान रखना श्रृंखला के अन्य सभी प्रतिभागियों के लिये आवश्यक है और ये उनका उत्तरदायित्व भी है. 

कार्य कोई भी हो लेकिन आय इतनी तो अवश्य होनी चाहिये कि चार-छः लोगों के एक परिवार का समुचित भरण-पोषण हो सके. कोई भी लाभदायक व्यवसाय के लिये एक निश्चित पूँजीगत निवेश की आवश्यकता होती है. किन्तु कृषि के क्षेत्र में ऐसा नहीं है. जिसके पास जितनी ज़मीन है, उसी पर खेती कर रहा है. बढ़ती जनसंख्या के साथ जोत भी छोटी होती गयी. लेकिन कोई और विकल्प न होने कारण किसान खेती छोड़ नहीं पाता. उस उत्पादन से जितनी आय होती है, उसी में परिवार का पालन करने की विवशता ही कृषक को कृषि कार्य में लगे रहने से हतोत्साहित करती है. आज स्थिति ये है कि किसान की अगली पीढ़ी खेती नहीं करना चाहती. जीविकोपार्जन के लिये 60 प्रतिशत से अधिक लोग आज भी खेती पर आश्रित हैं, जबकि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 20 प्रतिशत से भी कम है. इसलिये आवश्यक है खेती को फ़ायदेमंद बनाने की. हरितक्रांति ने देश को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने में अपना अमूल्य योगदान दिया. इस समय देश को पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ, आर्थिक रूप से समृद्ध और सामाजिक रूप से न्यायसंगत हरितक्रांति की आवश्यकता है. तभी इसे सदाबहार क्रांति कहा जा सकेगा. पर्याप्त घरेलू आय, रोजगार के अवसर, संरचनात्मक सुविधायें, विपणन सशक्तिकरण, ग्रामीण आय में वृद्धि के माध्यम से ही कृषक की सामाजिक सुरक्षा का निर्वहन किया जा सकता है. सतत विकास लक्ष्य में कृषक आय से लेकर, भूमि-मृदा संरक्षण और जल संचयन तक की दिशा में प्रयास करने की बात हो रही है. हरित क्रान्ति के पुरोधा भी इस बात से सहमत दिखायी देते हैं.

भारत का हमेशा से कृषि उत्पादन के क्षेत्र में एक अग्रणी स्थान रहा है. किन्तु अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा कृषि में कम आय चिन्ता का विषय है. जल्दी ख़राब होने वाले फल और सब्जियों का अत्यधिक उत्पादन, उत्पादकों के लिये हानि का कारण बन जाता है. उत्पादन बढ़ने के साथ ही, प्रसंस्करण के लिये आवश्यक मूलभूत सुविधाओं के अभाव में हानियाँ भी उसी अनुपात में बढ़ीं हैं. खाद्य प्रसंस्करण उद्योग अभी भी अपने आरम्भिक अवस्था में है. अधिक क्षमता वाली वृहद स्तर प्रसंस्करण इकाइयों को एकसमान कच्चे उत्पाद की आवश्यकता होती है. हरित क्रान्ति ने कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिये उन्नत  प्रजातियों के विकास की ओर प्रेरित किया. किन्तु आज देश में बहुतायत में उपलब्ध प्रजातियों द्वारा उत्पादन लिये जाने के कारण प्रसंस्करण उद्योग में अंतिम उत्पाद की गुणवत्ता असमान कच्चे माल के प्रयोग के कारण प्रभावित होती है. इसीलिये बहुराष्ट्रीय खाद्य प्रसंस्करण कम्पनियाँ किसानों के साथ खेती अनुबंध कर रही हैं. इसी कारण राष्ट्रीय खाद्य उद्योग में भी एकसमान आयातित कच्चे माल का उपयोग करना पसन्द किया जा रहा है. भारत में आम के पेय पदार्थ कई बड़ी कम्पनियाँ बना रही हैं. भारत आम की अनेकानेक प्रजातियों के उत्पादक भी है और निर्यातक भी. किन्तु आम के पल्प में असमानता होने के कारण ये कम्पनियाँ एकसमान रंग और मिठास वाले आयातित आम के पल्प या कनसंट्रेट्स को उपयोग में लाती हैं. उच्च गुणवत्ता वाले भारतीय आम निर्यात के बाद बहुत ही कम मूल्य पर बाज़ार में बेचे जाते हैं. प्याज-लहसुन-टमाटर-आलू के दामों में अस्थिरता हर साल की समस्या बन चुकी है. कृषि उत्पादन और आय इसी प्रकार की अनिश्चितताओं से ग्रसित है. भंडारण और प्रसंस्करण की सुविधाओं में निवेश अनिश्चितताओं को कम करने की दिशा में एक सार्थक प्रयास सिद्ध हुआ है. 

हरितक्रांति के बाद से निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों ने कृषि उत्पादन वृद्धि की दिशा में अनेकानेक सफल प्रयास किये हैं. फसल सुधार की विभिन्न परंपरागत और आधुनिक पद्यतियों की सहायता से कीट-रोग और जलवायु सहिष्णु उन्नत प्रजातियों के विकास ने कृषि उत्पादन के नये आयाम रचे हैं. किन्तु दुर्योग से सभी ने उन्नत प्रजाति के बीजों के विकास को ही कृषि की समस्त समस्याओं का समाधान मान लिया है. परिणामस्वरूप एक ही कृषि जलवायु क्षेत्र के लिये अनेकों प्रजातियाँ विकसित और संस्तुत कर दी जाती हैं. जिस कारण उन्नत बीजों की उपलब्धता प्रभावित होती है. भला हो मझोले-सीमांत वर्षा आधारित खेती करने वाले किसानों का, जो विश्व के सभी शोधकर्ता इनका उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिये कृतसंकल्प हैं. ये अथक प्रयास निरन्तर इसलिये इसलिये जारी है उत्पादन में वृद्धि करके उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारी जा सके. हर फ़सल जिसका मानव खाद्य उपयोग चिरंतन काल से चला आ रहा था, उनके सुधार में लोग लगे हुये हैं. आज हालात ऐसे हो गये हैं कि पराम्परागत देसी प्रजातियों के बीज अब मिलने मुश्किल हो गये हैं. कुचक्र तो यहाँ तक रचा जा रहा है कि दस साल से पुरानी प्रचलित प्रजातियों को बीज श्रृंखला से ही बाहर कर दिया जाये ताकि नयी-नयी प्रजातियों को उत्पादनकर्ताओं तक पहुँचाया जा सके. शोध यदि नौकरी या व्यवसाय बन जाये तो उसकी परिणति प्रोन्नति और लाभ तक ही सीमित रह जाती है. इसके लिये लोग यदि हर सम्भव हथकण्डे अपनाते हैं तो कोई गलत नहीं है. हमारे यहाँ जब गाय और भैंसों की देसी नस्लें विलुप्त होती जा रही हैं, तो वहीं ब्राज़ील में उन्हीं देसी गायों का दुग्ध उत्पादन का बढ़ जाना, कहीं न कहीं समुचित प्रबन्धन अपनाने की दिशा में इंगित कर रहा है. यदि मात्र अनुकूल वातावरण उत्पादन बढ़ाने में सहायक हो सकता है,  तो निश्चय ही उचित प्रबन्धन उत्पादन वृद्धि का एक महत्वपूर्ण माध्यम बन सकता है. नियत पर संशय तब होता है, जब एक ही क्षेत्र के लिये संस्तुत बीसियों प्रजातियों में से वंश-सुधारकों में एक, दो या तीन प्रजातियों के चयन पर सहमति नहीं बन पाती. विभिन्न प्रजातियों के रंग-रूप-आकार-गुण में अंतर होने के कारण उत्पादन से पूर्व कृषि यंत्रों की सेटिंग में समय और श्रम व्यर्थ होता है, और प्रसंस्करण मशीनों में भी कई एडजस्टमेंट करने पड़ते हैं. इससे प्रसंस्कृत उत्पाद की एकरूपता और गुणवत्ता भी प्रभावित होती है. 

कृषि आधारित बहुत सी समस्याओं का समाधान जल उप्लब्धता, मृदा पोषण और उचित फसल प्रबन्धन से सम्भव है. कृषि यंत्रीकरण भी उत्पादन वृद्धि, समय प्रबन्धन, खर-पतवार, कीट और रोग नियन्त्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. फसल के मुख्य चरणों पर पानी की उपलब्धता और मृदा के पोषक तत्वों की उपस्थित से फसल उत्पादन की समस्याओं के प्रकोप को कम किया जा सकता है. फसल चक्र अपना कर खर-पतवार, कीट और रोग का नियन्त्रण करने की एक परम्परागत विधि रही है. प्रजातियों को एकाधिक विशेषताओं और अन्तिम खाद्य उद्देश्य के अनुसार विकसित करने की आवश्यकता है. ताकि उन्नत प्रजातियाँ न सिर्फ़ उत्पादन बढ़ायें बल्कि प्रसंस्करण की दृष्टि से भी उन्नत हों. जैव विविधता के देश में नयी-नयी प्रजातियों के विकास जैव विविधता में निरन्तर वृद्धि कर रहा है. एमएससी और पीएचडी में की गयी पढ़ायी की पुनरावृत्ति के प्रति प्रतिबद्धता ने नवीन शोध की सम्भावनाओं को कम किया है. रटन्त विद्या चतुरलिंगम तो बना सकती है, लेकिन फुनसुख वांगड़ू जैसे मौलिक विचारक नहीं. मात्र प्रोन्नति के उद्देश्य से किये जा रहे शोध कार्य से 'ब्रेक थ्रू' तकनीक प्राप्त करने की सम्भवना नहीं के बराबर है. सारे विश्व में पशुओं और फसलों की प्रजातियों का सुधार कृषि शोध का मुख्य आधार बन गया है. सबका लक्ष्य ऐसी प्रजातियों का विकास करना है जिससे लैटिन अमेरिका, अफ़्रीका और दक्षिणी-पूर्व एशिया के असिंचित क्षेत्र के लघु और सीमान्त किसानों का उत्पादन बढ़ाना और उनकी आय में वृद्धि करना है ताकि उनका जीवन स्तर सुधर जाये. गौर की बात ये है कि सभी अंग्रेजी में विज्ञान पढ़े लोग उन्हीं फसलों को सुधारने में संकल्पित हैं, जिनके मानव उपयोग का पता हमारे पुरखों ने बिना किसी आधुनिक विज्ञान के लगा लिया था. पूरा विज्ञान और समस्त वैज्ञानिक मिल कर एक नयी फसल नहीं खोज पाये जो खाने योग्य हो. लेकिन अब यही आधुनिक विज्ञानी, उन्हीं की प्रजाति पर प्रजाति निकाले जा रहे हैं. ऐसी ही एक प्रोटीन अधिक्य वाली फसल है खेसारी. जिसका भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बहुत पहले से उपयोग किया जाता रहा है. किन्तु इसमें उपस्थित कुछ अपौष्टिक तत्वों के कारण इसका खाद्य उपयोग प्रतिबंधित कर दिया गया. कई वर्षों से खेसारी की ऐसी प्रजातियों का विकास करने का प्रयास चल रहा है, जिनमें अपौष्टिक तत्व कम हों. किन्तु बहुत सम्भव है कि केवल उचित प्रसंस्करण पद्यतियों को अपना कर अपौष्टिक तत्व को कम करके इस फसल को उपयोग लायक बनाया जा सके. लेकिन प्रयास प्रजाति विकास के माध्यम से ही किया जा रहा है.

रोगों से प्रतिरोधक क्षमता विकसित करके उन्नत प्रजातियों से उत्पादन बढ़ाना, सभी वंश-सुधार कार्यक्रमों का मुख्य उद्देश्य होता है. इसके लिये बीमारी से ग्रसित क्षेत्र में विकसित प्रजातियों की स्क्रीनिंग की जाती है. उत्तरजीविका और उत्पादकता के आधार पर प्रजातियों का चयन किया जाता है. चूँकि उत्पादकता ही सेलेक्शन का एक मात्र आधार है इसलिये बहुत सम्भव है कि प्रजातियाँ जो स्वाद, रंग, गन्ध, पाक, पाचन और प्रसंस्करण गुणों की दृष्टि से अधिक उन्नत हों, वो भी स्क्रीनिंग की बलि चढ़ जाती हैं. प्रजातियों का विकास में इन सभी अन्य गुणात्मक मापदण्डों का समावेश करना अत्यावश्यक है. इससे प्रजातियों के बेतहाशा निस्तारण में कमी आएगी और उच्च एकाधिक गुणवत्ता वाली प्रजातियों की प्राप्ति होगी. इसके लिये कृषि विज्ञान की सभी विधाओं को वंश-सुधार सम्मिलित किया जाना आवश्यक है. फसल उत्पादकता के साथ-साथ, पौष्टिकता, प्रसंस्करण और पाक गुणों के महत्व को भी समझने की आवश्यकता है. बड़े स्तर व क्षमता की प्रसंस्करण इकाइयों को एकसमान कच्चे माल की आवश्यकता होती है. मिलों की आवश्यकता के अनुसार अनुबन्ध खेती (कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग) द्वारा कृषक आय में वृद्धि सम्भव है. वर्तमान फसलों के वंश-सुधार कार्यक्रमों में उत्पादकता के अलावा अन्य सभी विशेषताओं को विशेष महत्व नहीं दिया जाता. गौर करने वाली एक बात ये भी है कि सुधार सिर्फ़ निरीह प्राणीयों या वनस्पतियों का ही किया जा रहा है. कोई शेर-चीते-मगरमच्छ को शाकाहारी, सभ्य या पालतू बनाने का प्रयास नहीं कर रहा. जिसमें भी इन्सान से ज्यादा ताकत है या जिनसे इन्सान को ख़तरा हो सकता है, उनका सुधार नहीं संरक्षण किया जा रहा है. बैल को तो हमने जोत लिया और उसकी नस्लें भी सुधार दीं. घोड़े-गधे-खच्चर को भी सुधार दिया गया लेकिन किसी ने नील गाय की शक्ति को कृषि उपयोग में लाने का प्रयास नहीं किया. प्राइवेट और पब्लिक सभी अन्धाधुन्ध तरीके से फसल या जीव सुधार किये जा रहे हैं. इस व्यवस्था और विचारधारा पर नियन्त्रण लगाने की आवश्यकता है नहीं तो भविष्य में कोई भी शुद्ध प्रजाति नहीं बचने वाली. भविष्य में देश लहरी देवी जैसे लोगों का ऋणी रहेगा जिन्होंने मूल प्रजातियों को वैज्ञानिक विकास की अंधी दौड़ से बचा कर संरक्षित किया.

कभी-कभी लगता है कि हमने अंग्रेजी में ग्रहण की शिक्षा को ही ज्ञान और विज्ञान मान लिया है. शायद इसीलिये जैविक और प्राकृतिक खेती के पक्षधर पालेकर और देवव्रत जी का नाम आते ही पियर रिव्यूड अंग्रेजी जर्नल वाले साइंसदान असमन्जस में पड़ जाते हैं. ये वैसी ही बात है जैसे अंग्रेजी में चिकित्सा शास्त्र पढ़े लोगों में बाबा रामदेव का नाम सुनते ही करेन्ट दौड़ जाता है. आज आवश्यकता है देसी चिकित्सा और कृषि पद्यति को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर परखने और स्थापित करने की. जब भारत की गोवंश नस्लें ब्राज़ील में जा कर उचित प्रबन्धन से अधिक दुग्ध उत्पादन कर सकती हैं तो यहाँ पर भी वैसा किया जा सकता है. ये तो वर्तमान सरकार के प्रयास हैं जो पुरानी प्रजातियों के संरक्षण और विकास की ओर ध्यान दिया जाना आरम्भ हुआ है. प्राकृतिक खेती को बढ़ावा भी अंग्रेज़ी में आधुनिक कृषि विज्ञान पढ़े वैज्ञानिकों को तर्क-संगत नहीं लगता, किन्तु सरकार चाहती है कि हमारी पारम्परिक कृषि पद्यति की वैज्ञानिक अवधारणा पर काम किया जाये. पर्यावरण संरक्षण व स्थायित्व वाली खेती का मूल्याङ्कन व तुलनात्मक अध्ययन करने की आवश्यक है. जिस उत्पादन-उत्पादकता वृद्धि हेतु सुपर रेस विकसित करने के प्रयास सदियों से चल रहे हैं, वो एक वैज्ञानिक पटकथा से अधिक कुछ नहीं है. कृषि उत्पादन से लेकर उपभोग तक की समस्त खाद्य व मूल्य श्रृंखला का समग्रता से अध्ययन द्वारा ही सही टिकाऊ खेती का चयन किया जा सकता है. आज टिकाऊ खेती की ही नहीं बल्कि समृद्ध किसान की बात भी होनी आरम्भ हो गयी है. इसलिए आवश्यक हो जाता है कि कृषि शोध फसल सुधार से आगे कृषक आय तक समग्रता से देखे, सोचे और प्रयास करे. 

वर्तमान स्थिति में लहरी बाई जैसी महिलायें, पालेकर जी और देवव्रत जी जैसे लोग ये सम्भावना दिखाते हैं कि स्वदेशी तकनीकी ज्ञान को वैज्ञानिक पुष्टि और विज्ञान द्वारा समर्थन दिये जाने की आवश्यकता है. वो तो अच्छा हुआ जो पुंगानुरू गायें वंश-सुधारकों की दृष्टि से बच गयी. नहीं तो पूरी सम्भावना है कि यदि पुंगानुरू गाय की ओर सुधारक भाईयों का ध्यान गया होता तो वे उसकी ऊँचाई बढ़ाने में लग जाते ताकि स्टूल पर बैठ कर दूध दुहने की सुविधा मिल सके.

-वाणभट्ट

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

तीसरी कसम

सेंटेड रबर मार्केट में तब नया-नया आया था. मँहगा था इसलिये हर किसी के लिये उसे खरीद पाना संभव न था. कक्षा तीन की क्लास थी. को-एड स्कूल था वरना सिर्फ़ लड़कों के स्कूल में किसी को चॉकलेट की महक वाले रबर, जिसे अब इरेज़र कहा जाता है, लाने की क्या जरूरत थी. बताने वाले बताते हैं कि अजय ने पिता जी के गल्ले से अठन्नी पार करके अनिता को गिफ्ट दिया था. मिलने के बाद अनिता ने उसे पूरी क्लास के सामने ऐसे पेश किया जैसे उसे उसके पेरेंट्स ने दिलाया है. पूरे क्लास ने उस रबर को छुआ और सूँघा भी. एकदम कैडबरी की महक वाली उस रबर को चबा जाने का मन करता था. अनिता भी पेन्सिल से लिखे को मिटाने के लिये सैन्डो रबर का ही उपयोग करती. लेकिन चॉकलेट वाली रबर हमेशा हाथ में रखती जिसे बीच-बीच में सूँघती रहती. बहुत से बच्चों को उस रबर को देख कर रश्क होता लेकिन उनके पेरेंट्स किसी प्रकार की फ़िजूलखर्ची के खिलाफ़ थे. एक दिन लंच के बाद लौट के सब आये तो हाहाकार मचा हुआ था. अनीता ज़ार-ज़ार रो रही थी. उसके ज्योमेट्री बॉक्स से चॉकलेटी रबर गायब थी. टीचर ने पूरी क्लास को वार्निंग दी - जिसने भी लिया हो चुपचाप निकाल के दे दे. वर्ना यदि चेकिंग में निकला तो समझ लेना ख़ैर नहीं है. मै बड़े मज़े से इस तमाशे को देख रहा था. देखें किसका नम्बर लगता है. एक-एक करके सभी के बस्ते चेक हो रहे थे. लेकिन मुझे क्या पता था कि उस रबर को तो निकलना था मेरे ही बस्ते से. किसी ने शैतानी में उसकी रबर निकाल कर मेरे बस्ते में रख दी थी. अब टीचर ने मुझे रंगे हाथ पकड़ लिया, तो मेरे पास सफ़ायी देने का कोई चारा नहीं बचा था. मैंने पूरी ईमानदारी से कहा - मैम किसी ने मेरे बस्ते में ये रबर डाल दी है. मुझे कुछ नहीं पता. विद्या कसम. टीचर भी मेरी बाल-सुलभ मासूमियत देख मुस्कुरा कर रह गयी.

आठवीं तक पहुँचते-पहुँचते बच्चों को और कुछ पता चले न चले, लड़का और लड़की का अन्तर समझ आने लगता है. को-एड स्कूलों में तो लड़के किसी न किसी को मेरी वाली तेरी वाली करने लगते हैं. हालाँकि ये बात उस लड़की को शायद ही पता होती हो. एक दिन छुट्टी के बाद स्कूल से बाहर निकला तो अजय ने पीछे से कॉलर पकड़ लिया. पकड़ने का तरीके में यारी-दोस्ती वाला टच नहीं था. मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा. मै भी भिड़ गया. अजय की पर्सनाल्टी मुझसे बीस ही थी लेकिन तब अपने हिसाब ख़ुद ही बराबर करने का रिवाज़ था. भिड़ गया तो भिड़ गया. बाकी दोस्तों ने छुड़ाने की कोशिश न करके हमारी ज़ोर आजमाइश का आनन्द लेना पसन्द किया. थोड़ी देर लड़-भिड़ के हम नॉर्मल हो गये. आख़िर थे तो हम दोस्त ही. उस समय बच्चों का लड़ लेना, गुत्थम-गुत्था हो जाना, कोई अनहोनी बात नहीं थी. हफ़्ते-दस दिन में हम लोग लड़-भिड़ न लें तो खाना ठीक से नहीं पचता था. और कुछ ही देर में फिर दोस्त बन जाते. जब हम गले में हाथ डाले घर की ओर लौटने लगे तो मैंने पूछा ही लिया कि क्यों लड़ने का मन कर रहा था. उसने बताया कि उसे लगता है कि मैं उसकी अनिता के चक्कर में हूँ. मैंने उसे भरोसा दिया कि भाई ऐसी कोई बात नहीं है, माँ कसम. और उसने बिना किसी शक़-शुबहे के मान भी लिया.

वो सब तो बचपन की बातें थीं. अब स्कूल की पुरानी बातें बस जीवन का सुखद हिस्सा और किस्सा भर थीं. धीरे-धीरे हम सब बड़े होते चले गये. पता चला कस्मे और वादे तो बस फ़िल्मी बातें हैं. कस्में खाने के लिये बनीं हैं, तो वादे तोड़ने के लिये. शादी भी हुयी. पण्डित जी ने सात फेरों में पता नहीं कौन-कौन सी शर्तें रख दीं. लेकिन अगर बात शादी तक पहुँच ही गयी हो, तो शर्तों में ना करने की गुंजाइश कहाँ बचती है. सात जनम तक साथ निभाने की जो कसम उस दिन खायी थी, उनको युवावस्था की भूल समझ के भूल जाना ही बेहतर है. उन्हें कसम की कैटेगरी में रखना किसी तरह से उचित नहीं है.  

जब नये शहर में वो आ कर गिरे तो उस शहर में रहते मुझे 4-5 साल हो चुके थे. चूँकि हम भी उस स्टेट के नहीं थे, तो हर दूसरे स्टेट से आने वाले की मदद करना हमारा धर्म बन जाता है और कर्तव्य भी. वो हमारे सीनियर थे और फ़िलहाल अपने परिवार को बच्चों के बोर्ड एग्जाम तक डिस्टर्ब नहीं करना चाहते थे. उन चार-छः महीनों में वो पूरी तरह फोर्स्ड बैचलर थे. शादी के इतने दिनों बाद उन्हें जो आज़ादी मिली थी, वो उसका एक-एक लम्हा वसूलना चाहते थे. चूँकि हमारा ऑफ़िस यूनिवर्सिटी कैम्पस में ही था इसलिये सम्भव है कि उन्हें अपने कॉलेज के दिन याद आ गये हों. जीन्स-टी शर्ट की अपनी पसंदीदा फिटिंग वो शाहरुख़ ख़ान बने घूमते. लेकिन घूमने-घुमाने के लिये न उनके पास बाइक थी न कार. सो उन्हें मिली एक लीटर में 80 किलोमीटर चलने वाली मेरी हीरो-होंडा की पिछली सीट. हम लोग में भी यूपी का भैयापन इस कदर हावी रहता है कि मालूम रहता है कि अगला उसका बेजा फ़ायदा उठा रहा है लेकिन हम अपने 'अतिथि देवो/धूर्तो भव' के अंतर्द्वंद से बाहर नहीं निकल पाते. लगा नये शहर में नया दोस्त या बड़ा भाई मिल गया है. सो साहब जब भी भाई साहब कोई काम बताते छोटा भाई मोटरसाइकिल लिये तैयार रहता. 

घर की खोज से लेकर, उनका किचन सेट कराने से लेकर, उनके परिवार के आने तक, के उनके हर सुख-दुःख का हम और हमारा परिवार साक्षी बना. पत्नी को तो पहले ही लगता था कि वो बहुत बड़ा चेपी है लेकिन मुझे लगता नयी जगह पर अगर हम उनका ख़्याल नहीं रखेंगे तो और कौन रखेगा. उनकी फैमिली आने के बाद वो कुछ आत्मनिर्भर हो गये. कार और स्कूटर भी आ गये थे. सो हमारा मिलना ऑफ़िस में ही हो पाता. सीनियर वो थे ही और कालचक्र ने उन्हें वहीं मेरा बॉस बना लिखा था. मुझे लगा बड़े भैया हैं, तो थोड़ा ख़्याल भी रखेंगे. लेकिन भगवान किसी दोस्त को पड़ोसी या बॉस न बनाये. तजुर्बे बताते हैं कि दोस्त के दुश्मन बनने में देर नहीं लगती. जल्द ही मुझे एहसास हो गया कि भाई दूसरों पर टाइट होने की प्रैक्टिस मुझसे ही शुरू करना चाहते थे. वो जानते थे कि यूपी का भैया जल्दी प्रतिक्रिया नहीं देगा. एग्ज़ाम्पल सेट करने के चक्कर में वो पजामे के बाहर ही रहने लगे. लेकिन वो ये नहीं जानते थे कि दिल से जुड़ने वाले आधे-अधूरे नहीं मिलते. ऑफ़िस की दोस्ती और फटे की यारी एक समान है. दैव योग से साथ फँस गये हैं, तो वर्किंग (काम चलाऊ) दोस्ती निभानी ही पड़ेगी. लेकिन उसे स्कूल या कॉलेज की दोस्ती समझना ग़लतफ़हमी होगी. तब ये निर्णय लिया - ऑफ़िस कलीग्स से दोस्ती कभी नहीं. ये मेरी तीसरी कसम थी. 

देखें अभी ज़िन्दगी और क्या-क्या सिखाना चाहती है.

-वाणभट्ट

गुरुवार, 18 जनवरी 2024

रेन डियर

वो सामने से चला आ रहा था. उसे पहचान पाना बहुत मुश्किल था. शरीर का एक-एक हिस्सा उसने पूरी तरह ढँक रखा था. मिस्टर इण्डिया जैसी फिल्मों को देख कर हर खुराफ़ाती बालक इस फंतासी से जरुर गुजरता है कि वो क्या-क्या कर सकता है, यदि वो किसी प्रकार अदृश्य हो जाये. टीचर की अलमारी से होने वाले मैथ्स एग्जाम का पेपर निकाल लाये और 100 प्रतिशत अंक लेकर अपनी क्लास में रौब जमाये. या क्लास के सबसे अच्छे बच्चे का असाइन्मेंट गायब कर दे ताकि उसे भी क्लास के बाहर मुर्गा बनाया जाये. बड़े होते-होते इस तरह की फैंटेसी की ऐसी की तैसी हो जाती है. 

बड़े हो कर उसे लगता कि वो हर समय किसी न किसी के रडार पर है. चाहे घर में माँ-बाप-दादी-बाबा-भाई-बहन के, चाहे बाहर सशंकित पडोसीयों के. पहले के पडोसी वैसे पडोसी नहीं हुआ करते थे, जैसे आजकल के. तब सुविधाओं का दौर न था. सबको लगता था कि किसी की भी जरूरत पड़ सकती है. इसलिये पडोसी भी रिश्तेदार हुआ करते थे. कोई अंकल नहीं था. सब चाचा-मामा-भैया-भाभी-दीदी-जीजा-मौसी-मौसा टाइप के लोग होते थे. जिन्हें अपने बच्चों से ज्यादा पड़ोसियों के बच्चों में दिलचस्पी होती थी. हाईस्कूल का रिज़ल्ट आया तो सिर्फ़ डिविज़न पूछ लें और मिठाई खा कर निकल जायें, ऐसे पडोसी किस्मत वालों को नसीब होते थे. ये भाई लोग एक-एक सब्जेक्ट के मार्क्स पूछ कर, जोड़ कर और परसेंटेज निकाल कर ही डिविज़न मानते थे. कहीं वर्मा का लड़का झुट्ठै फ़र्स्ट डिविज़न तो नहीं पेल रिया है. उस सब्जेक्ट पर ज़रूर ज्ञान देते जिसमें नम्बर कम आया हो. मैथ्स कमज़ोर है, तो बेटा बॉयोलॉजी या एग्रीकल्चर ले लेना. मैथ्स तुम्हारे बस की बात नहीं है. और तो और, कुछ ऐसे भी लोग थे (हरामखोर कहना तो नहीं चाहता लेकिन कहना पड़ रहा है), जो कम्बख्त मिठाई खाने के बाद बताते कि शर्मा के लौंडे की तो फ़र्स्ट डिविज़न विथ डिस्टिंक्शन आयी है. कसम से मन करता कि हलक में हाथ डाल के अपनी मिठाई निकाल लूँ. लेकिन पडोसी धर्म सर्वोपरि होता था. पिता जी को भी अपने बच्चे के कैरियर से ज़्यादा पड़ोसियों के कमेंट्स की चिन्ता होती थी. बस यही कहते बेटा फ़र्स्ट डिविज़न ले आना नहीं तो समाज में नाक कट जायेगी. पहले तो मुझे लगता था कि पिता जी तो थ्रू आउट फ़र्स्ट क्लास रहे होंगे. लेकिन बाद में पता चला कि उनके ज़माने में पास हो जाना ही काफी हुआ करता था. 

यदि किसी की सेकेण्ड डिविज़न आ जाये तो घर और पड़ोस का जुल्म इतना था कि हाईस्कूल पास नन्हीं सी जान को लगता वो कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहा. कुछ दिन वो मोहल्ले वालों की नज़रों से दूर रह कर यही पता करता रहता कि मोहल्ले में किस-किस के बच्चे की सेकेण्ड डिविज़न आयी है. आजकल जब कोई पडोसी, पडोसी के बच्चे को क्या, पडोसी को नहीं पूछता, तो मुँह छुपा कर चलने का फैशन बढ़ गया है. लोग मुँह छिपाये घूमना ज्यादा पसंद करते हैं. पहले तो महिलायें ही घूँघट-बुर्के-हिज़ाब की आड़ लेती थीं. जबसे कोरोना आया पुरुषों को भी हिजाब पहनने का परमिट मिल गया है. मिस्टर इंडिया में अदृश्य होने का फ़ॉर्मूला विलेन को इसलिये चाहिये था कि वो उसका उपयोग गलत काम के लिये कर सके. जबकि हीरो उसे समाज सेवा के लिये उपयोग में लाना चाहता था.  बहरहाल जिस तरह समाज का चारित्रिक और नैतिक पतन हुआ है, वो प्रतिदिन के अखबार में परिलक्षित होता है. ऐसे में यदि कोई ऐसी जड़ी-बूटी बन गयी कि आदमी गायब हो सके, तो निश्चय ही अपराध दर में भयन्कर इज़ाफा होना तय है. बिना पात्रता के जब शक्ति मिलती है तो विनाश की शुरुआत हो जाती है.

लेकिन यहाँ ऐसी कोई बात नहीं थी. सर्दी का सितम अपने चरम पर था. तो जनाब ने अपने को सर से पैर तक पूरी तरह कवर कर रखा था. वो इस कदर पैक था कि पास आने के बाद भी मेरे लिए उसे पहचान पाना मुश्किल था. कद-काठी-चाल से अंदाज़ तो लग रहा था कि वो वही है जो मै समझ रहा हूँ. उसने अपना मुँह एन-90 मास्क से कवर कर रखा था. आँखों पर चढ़े चश्मे ने उसे पहचान सकने की बची-खुची सम्भावना को भी दर-किनार कर दिया. संयोग से मेरा चेहरा खुला हुआ था, इसलिये वो मुझे पहचान सकता था. लेकिन आजकल वैसे भी कौन किसे पहचानना चाहता है, यदि काम न हो तो. 

हाड़-कपाऊ ठण्ड की ठण्डी हवा से मेरी चन्द्र नाड़ी यानि बायीं नाक चोक लेने लगी थी. जैसी उम्मीद थी मेरे जैकेट की जेब से एक पुराना सर्जिकल मास्क निकल आया. लगा ऊपर वाला इस उम्र में मुझे -जैसे को तैसा- जैसा ब्रह्मज्ञान सिखाना चाह रहा है. जब वो नहीं पहचान रहा तो मैंने भी उसे हेलो कहने के बजाय मास्क लगाना श्रेयस्कर समझा. अपनी वाकिंग स्पीड को बढ़ा कर मैंने उसे क्रॉस कर लिया. मास्क की वजह से मेरी साँसों की गर्म हवा अब मेरे ही नथुनों को गर्म कर रही थी. थोड़ी दूर चलने के बाद महसूस हुआ कि मेरी बायीं नाक जो लगभग बंद हो गयी थी, खुल गयी है. मेरे मस्तिष्क से सामने अनायास ही बर्फ़ीले आर्कटिक क्षेत्र में पाये जाने वाले रेनडियर की शक्ल कौंध गयी. जिसकी नाक बर्फ़ीली ठंडी सर्द हवा को अन्दर लेने से पहले गर्म कर देती है. अब मुझे इस एक्सट्रीम ठण्ड से लड़ने के लिये जैकेट, मफ़लर, टोपी, दस्ताने के अलावा एक और हथियार मिल गया था.

-वाणभट्ट    

मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

वो जो तुम हो


एक प्रेम वो है जो घटता है

किसी घटना की तरह

सम्भवतः विकसित होती

आयु और सौंदर्यबोध की

परिणति


एक प्रेम होता है अन्जाना सा

बन्धन ही है जिसके प्रारब्ध का अवलम्ब

जो घटित होता है धीरे-धीरे

और परिपक्व होता है

समय की कसौटी और

आँच पर


एक हर पल माँगता है 

सर्वस्व आपका

एकाधिकार के साथ

बताने और जताने पर निर्भर

प्रेम-निर्वहन 

शब्दों और उपहारों पर


दूसरा बस देना जानता है

न बोलता है

न जताता है

बस एक कर्तव्य बोध सा

जुड़ा रहता है 

घर-परिवार के साथ

सबके लिये उसकी झोली में है

थोड़ा-थोड़ा प्रेम 

एकाधिकार नहीं सर्वाधिकार के साथ

अम्मा-बाबू-भगिनी-भाई-बच्चों में

बराबर बँटा हुआ

इन सबसे जो बच गया वो ही

हिस्सा है उसका अपना


वो बस देना जानता है 

बस थोड़े आदर

थोड़े स्नेह की

आशा किन्तु

बिना किसी अनिवार्यता के साथ

इस अनअभिव्यक्त प्रेम की 

न कोई संज्ञा है न विशेषण


एक प्रेम शब्दों तक सीमित 

दूसरा शब्दों की आवश्यकता से परे

एक अधिकार

एक समर्पण

जिस प्रेम को हमने कभी न शब्द दिया

न परिभाषित करने का प्रयास किया

उस अव्यक्त 

प्रेम के आगे पाता हूँ 

स्वयं को नतमस्तक


-वाणभट्ट

तुम-मै-हम: अब तक उन्तीस...🧡💛💚💜❤️

शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

जागे हुये लोग

सुबह सवेरे हमारे घर की शुरुआत विविध भारती के सिग्नेचर ट्यून से होती थी. वंदेमातरम जो आज तक कंठस्थ है, उसके बाद शुरू होता था. फिर शुरू होती थी हम लोगों की भागम-भाग. सात बजे तक स्कूल पहुँचना होता था. प्रार्थना सभा में ही अटेंडेंस हुआ करती थी. पिता जी की दिनचर्या बहुत ही नियमित थी. जाड़ा-गर्मी-बरसात पाँच बजे टहलने निकल जाते थे. बस बरसात में छड़ी, छाते से बदल जाती थी. संडे हो या छुट्टी हो या समर-विन्टर वेकेशन्स. न उनका नियम टूटता था, न हम लोगों का सुबह-सुबह उठना. ये बात अलग है कि छुट्टियों में हम लोगों का उठने का कोई इरादा नहीं होता था, लेकिन उठना पड़ता था क्योंकि पापा टहल के लौटने के बाद किसी को बिस्तर पर देखना पसन्द नहीं करते थे.

गर्मी की छुट्टी से पहले अगले क्लास की किताबें आ जाती थीं और विन्टर वेकेशन्स में तो होम वर्क मिला ही करता था. एक गीत वो अक्सर कोट किया करते थे - भिंसहरे होगी अच्छी पढ़ाई, मुझको जगाना मेरे मुर्गे भाई. उनका मानना था कि प्रातः काल जो पढ़ाई होती है, वो लम्बे समय तक टिकती है.  लेकिन वो ज़माना अलग था. तब बच्चे बड़ों की बातें सिर्फ़ इसलिये मानते थे क्योंकि वो बड़े थे. आजकल के अन्तरजाल युग के बच्चों के पास हर चीज़ के तर्क हैं. उन्हें कुतर्क कहना ज़्यादा उचित होगा. रात के समय ज़्यादा शान्ति होती है, तब पढ़ाई में मन लगता है. और हम लोगों का बॉडी सायकिल भी समय के हिसाब से बदल गयी है. लेकिन इस पीढ़ी की एक बात तो माननी पड़ेगी, इन्हें जब उठना होता है, तो उठ ही जाते हैं, वो भी बिना अलार्म के. सुबह-सुबह मेरा भी मन करता है कि पूरे घर को उठा दूँ, लेकिन ख़ुदा के खौफ़ से ज़्यादा बेग़म का ख़ौफ़ होता है, जो हमेशा बच्चों के खेमे में खड़ी रहती हैं. रात भर पढ़ते हैं बच्चे, कब सोये तुम्हें क्या पता. तुम तो शुरू हो जाते हो सुबह-सुबह. तड़के सुबह उठने की बात हमारे समय के हिसाब से सही भी थी. कोई टीवी-मोबाइल-इंटरनेट तो था नहीं. सब टाइम से सोते थे और टाइम से उठते थे. अब जब उम्र का तकाज़ा है कि अपनी नींद पौ फटने से पहले ही खुल जाती है, तो पापा का दर्द समझ आता है. जब आप जग गये हों तो दूसरे लोगों को सोते हुये देखना बड़ा कष्टकारी होता है, आपके लिये.

रात में बिस्तर पर लेटने के बाद नींद न आये तो डॉक्टर इसे भयंकर बीमारी इन्सोम्निया बताते हैं. इसके लिये उनके तरकश में बहुत सी दवाइयाँ हैं. रात में सोने से पहले लीजिये और चैन से सोइये. लेकिन सुबह-सुबह बिना कारण सूर्योदय से पहले उठ जाना भी बीमारी से कम नहीं है. ये ऐसी बीमारी है कि जिसका इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है. इसे बीमारी कहना सही है या गलत, ये निर्णय मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ. लेकिन ये कहाँ तक सही है कि आप सबको इसलिये जगाने में लग जायें क्योंकि आप की आँख खुल चुकी है. दूसरों के सुख से सुखी न होना बीमारी नहीं तो और क्या है. वो भी सुबह-सुबह की अधजगी नींद जिसमें आपके मन के सपने साकार होते दिखते हैं. सुबह के सपनों के सच होने की सम्भावना भी अधिक रहती है क्योंकि वो ही तो कुछ-कुछ याद रह जाते हैं. ख़ुद जग जाना शायद बीमारी नहीं है लेकिन दूसरों को जगाने की इच्छा रखना मेरी समझ में बीमारी से कम नहीं है.

इस बीमारी से बड़े-बड़े लोग भी नहीं बच पाये. इस संसार में जो भी जग गया, वो दूसरों को जगाने में लग जाता है. फिर वो चाहे बुद्ध हों या महावीर हों. इन लोगों ने तो इतने लोगों के जीवन दर्शन को प्रभावित किया कि भगवान बन गये. हर युग में जब आदमी को हर तरफ़ अन्धकार ही दिख रहा हो, महापुरुषों ने इस धरा पर जन्म लिया है. उन्होंने पाया कि अज्ञानता का अन्धकार प्रकाश की अनुपस्थिति से ज़्यादा गहन होता है. उन्होंने दुःख पर विजय के मार्ग खोजे. और लोगों में अपने ज्ञान का प्रसार करने में लग गये ताकि अन्य लोगों के जीवन को अपने ज्ञान से प्रकाशित कर सकें. लेकिन बुद्ध के बता देने मात्र से कोई बुद्ध नहीं बन जाता. उनका ज्ञान सबके लिये सहज उपलब्ध था लेकिन सब उसका लाभ नहीं उठा पाये. ज्ञान की प्राप्ति के लिये सबसे पहले पात्रता विकसित करनी होती है. 

ये तो भला हो वे लोग हज़ारों वर्ष पहले धरा पर अवतरित हुये थे वरना आज के युग में जब ज्ञान इंटरनेट पर एक क्लिक में उपलब्ध है तो कौन भला किसे भगवान माने. पियर रिव्यूड जर्नल में जब तक न छप जाये, उस ज्ञान का कोई अर्थ ही नहीं है. भले लोग इम्युनिटी बढ़ाने के लिये आँवले का मुरब्बा खायें या तुलसी जी का काढ़ा पियें लेकिन डॉक्टर जब तक इलाज न करे, उसका ज्ञान व्यर्थ है. एक तरफ़ जहाँ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान है तो दूसरी तरफ सदियों के टाइम टेस्टेड देसी घरेलू नुस्ख़े हैं. अब चूँकि हमारी शिक्षा ही अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजी पद्यति से हुयी है तो हमारा ज्ञान भी पश्चिमी दृष्टिकोण से प्रभावित हो गया है. आज हम अपने परम्परागत ज्ञान पर विश्वास कर पाने में असमर्थ इसलिये हैं क्योंकि सम्पूर्ण भारतीय शिक्षा ने अपना मूलभूत आधार ही खो दिया है. प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद और होम्योपैथी के प्रति एक नकारात्मकता इसलिये देखने को मिलती है क्योंकि इसको पश्चिमी ज्ञान की स्वीकार्यता नहीं मिली है. दवाई की दुकानों पर ऐसी भीड़ देखने को मिलती है, जितनी किराना की दुकान पर नहीं. इसका मुख्य कारण लाइफ़ स्टाइल में बदलाव के बजाय दवाइयों का सेवन कहीं आसान है. आजकल एक बाबा और जग गये हैं, जो लोगों को स्वस्थ जीवन शैली अपनाने के लिये दिन-रात एक किये पड़े हैं. और लोग हैं कि एलोपैथी के पीछे लट्ठ लिये भाग रहे हैं. चूँकि बाबा की भाषा देसी है, अंग्रेजी पढ़े लोगों को उस पर विश्वास कम होता है. लेकिन दिनोंदिन बाबा के फॉलोवर्स बढ़ते जा रहे हैं. बाबा भी उत्साहित हो कर डटे हुये हैं. कुछ लोग ऐसे ही प्राकृतिक और जैविक खेती के प्रति लोगों को जागरूक करने में लगे हैं. यहाँ भी देसी और विदेशी शिक्षा का अन्तर्द्वन्द देखने को मिल सकता है. लेकिन जो लोग जग गये हैं, उन्हें चैन कहाँ जब तक सबको जगा न लें. 

आज सुबह भी हर रोज की तरह पौ फटने से पहले नींद खुल गयी तो इसी प्रकार के ना ना विचार मन-मस्तिष्क में घूमने लगे. ये भी महसूस हुआ कि जब बुद्ध को ज्ञान मिल गया तो उन्हें दूसरों को बताने की क्या आवश्यकता थी कि ज्ञान प्राप्ति का ये ही रास्ता है. यही बात महावीर, ओशो, कबीर और तमाम उन ज्ञानियों पर लागू होती है, जिन्होंने सनातन धर्म से निकल कर अपने-अपने सम्प्रदाय खड़े कर दिये. उन्होंने जिस ज्ञान का अनुभव किया उसके लिये उन्होंने अपने-अपने पथ चुने. यानि जितना ज्ञान उतने ही पंथ. हर एक का रास्ता अलग लेकिन लक्ष्य वही, परमात्मा या परमानन्द. सारी नदियों का उद्गम भले अलग हो लेकिन अंततः सब पहुँचती हैं उसी समुद्र में. आँखें मूँदे मैं सुषुम्ना का आरोहण अनुभव कर रहा हूँ. सारे चक्र खुलते जा रहे हैं. एक दिव्य प्रकाश कूटस्थ पर दीप्तमान हो रहा है. उस ब्रह्म-चेतना में ये अनुभव हो रहा है कि बुद्ध ने क्यों कहा था - अप्प दीपो भव. अंतःकरण में एक ध्वनि प्रतिध्वनित हो रही थी. बुद्ध-बुद्ध-बुद्ध. हर तरफ़ बस परमानन्द.

परमानन्द की अवस्था बनी रहती यदि उसी ध्यान में एक आवाज़ न आती - ऑफ़िस के लिये देर हो रही है. और एकाएक आँखें खुल गयी. जैसे किसी स्वप्न से जग गया हूँ. घड़ी अभी भी छः बजा रही थी. ऑफ़िस जाने के लिये पर्याप्त समय था. मैं पूरी तरह जग चुका था. अन्तर्ज्ञान के लिये बाहर की नहीं अन्दर की यात्रा करनी होगी. इसका कोई सेट फॉर्मूला नहीं है. हर एक की यात्रा अलग है, जो उसे स्वयं तय करनी है. अपनी गति से और अपनी विधि से. बुद्ध होना एक घटना है. कभी भी घट सकती है, किसी के साथ. 

मैं जग गया तो सोचा औरों को जगाने के उद्देश्य से एक लेख ही लिख डालूँ. इंटरनेट पर जब कुण्डली जागरण जैसे विषय पर वीडिओज़ उपलब्ध हैं तो कोई मुझ जैसे अज्ञानी की बात तो मानने से रहा. लोगों को ये बताना जरूरी है कि तुम्हारा जागरण भी भीतर ही घटित होगा. जगा हुआ आदमी भला दूसरों को सोता कैसे देख सकता है. न मैं बुद्ध हूँ न महावीर. न किसी पियर रिव्यूड पेपर का लेखक. लोग हँसेंगे कि क्या बक़वास है, सोच के मैं लोगों को जगाने का प्रयास तो नहीं बन्द कर दूँगा. घर में तो किसी ने न बुद्ध की सुनी न महावीर की. इसलिये मुझे भी शुरुआत बाहरी लोगों से ही करनी पड़ेगी. भाइयों और बहनों ये फ्री का ज्ञान है. इसे तुरन्त ले लीजिये. एक बार पॉपुलर हो गया तो बाद में कोचिंग लगा के बेचूँगा. फ़िलहाल अभी ये फ्री है ताकि अधिक से अधिक लोग इसका लाभ ले सकें. 

सोते हुये शहर को जगाने की चाह है

सोते शहर में जागना भी इक गुनाह है

ऐसा भला कौन सोच सकता है, सिवाय एक और अकेले वाणभट्ट के.


-वाणभट्ट

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