रविवार, 9 नवंबर 2025

वैदिक संस्कृति में मानवधर्म - एक समीक्षा

मुझे हमेशा से लगता था कि जीवन जीने की भी कोई कुन्जी (मेड ईज़ी या गाइड) पुस्तक होनी चाहिये थी. हर आदमी पैदा होता है, और अन्त तक बस दुविधा और संशय में जीता रहता है कि जो मै कर रहा हूँ वो सही है या गलत. जिन्हें इस बात का संशय होता है, वो निसन्देह, गलत तो नहीं ही कर पाते. लेकिन जिन्हें संशय नहीं होता, वो सदैव अपने को सही ही मानते हैं. इसलिये भले ही वे अपने हिसाब से गलत न हों, किन्तु कई बार देश और समाज के लिये ऐसे लोग बहुत घातक सिद्ध होते हैं. 

ऐसी ही उहापोह में जीवन के साठ वसन्त बीत गये, जब 'वैदिक संस्कृति में मानवधर्म' पुस्तक मेरे हाथ आयी. ये तो मुझे भी पता था कि जीवन सार की बहुत सी बातें हमारे वेद-उपनिषदों में लिखीं हैं, लेकिन मन में कहीं संस्कृत भाषा के अत्यन्त जटिल होने के डर से, कभी उन्हें पढ़ने का साहस नहीं जुटा सका. आधुनिक शिक्षा का एक ये भी दुष्प्रभाव है कि हम किसी भी उस कार्य से बचते हैं, जिससे किसी प्रकार की आर्थिक या वैयक्तिक लाभ मिलने की सम्भावना न हो. मनोरंजन के साधनों पर तो हम बिना झिझक व्यय कर देते हैं, लेकिन ज्ञान के सागर में गोते लगाने में सदैव संकोच करते हैं. वो भी अपने ही धर्म ग्रन्थों के पठन-पाठन से. बचपन से हमें शिक्षित हो कर एक श्रेष्ठ जीवन जीने का पाठ तो पढाया गया किन्तु वास्तविक जीवन में मानव का क्या धर्म होना चाहिये, ऐसा कोई विषय हमारे पाठ्यक्रम में नहीं रखा गया. जो कुछ, सही या गलत, हम सीख पाते हैं, वो अपने अभिभावकों, वरिष्ठों और गुरुजनों के आचरण से.    

ऐसी स्थिति में ऊपर वाले ने मुझे एक अवसर दिया, जब कुछ दिन पूर्व मित्र डॉ. अनिल कुमार सिन्हा जी, जो डीएवी कॉलेज में संस्कृत के सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष रहे हैं, ने मुझे अपनी लिखी एक पुस्तक "वैदिक संस्कृति में मानवधर्म" की समीक्षा लिखने के लिये दी. किताबें, विशेषकर कार्यक्षेत्र से इतर, यदि मेरे सामने आ जायें तो उन्हें पलट डालना मेरा पुराना शगल है. फिर विषय चाहे कुछ भी हो. आरम्भ में मुझे लगा सिन्हा साहब ने मुझे कहाँ फँसा दिया, इससे क्या मिलना. किस्सा-कहानी-कथायें पढना एक रुचिकर बात है, लेकिन वेदों का सार जैसी ज्ञानवान बातों को पढ़ने और समझने के ख्याल ने ही कुछ बोरियत का भाव उत्पन्न कर दिया. संस्कृत में लिखे श्लोकों की विशुद्ध हिन्दी में व्याख्या का अध्ययन एक बोरिंग काम हो सकता है, ये सोच कर काफ़ी दिनों तक ये पुस्तक मेरे सिरहाने ही रखी रही. उसे खोल के पढ़ने की हिम्मत मै नहीं कर पा रहा था. ब्लॉग-व्लॉग लिखना कोई बड़ी बात नहीं है. अपने विचार हैं, अपने तर्क, जैसे चाहो वैसे तोड़ो-मरोड़ो. लेकिन वैदिक संस्कृति पर लिखी पुस्तक की समीक्षा मेरे लिये आसन नहीं होने वाली थी. कारण ये है कि हमने ज्ञान को धर्म और कर्मकाण्ड से जोड़ कर रख दिया और उसे पण्डितों के भरोसे छोड़ दिया. हम बिना किसी कारण के ये अवधारणा बना बैठे कि संस्कृत तो पण्डितों-ज्ञानियों की भाषा है, इससे हम लोगों का, आम लोगों का भला क्या सरोकार. 

किन्तु जब पुस्तक को पढना आरम्भ किया तो 80 पृष्ठों में वेदों के सार वाली ये पुस्तक बिना किसी व्यवधान के एक बार में समाप्त कर के ही दम लिया. मुझे लगा अब तक सेल्फ हेल्प या इम्प्रूवमेंट के लिये पढ़ीं सारी बेस्ट सेलर किताबें बेकार हो जातीं, यदि हमारे वेदों में वर्णित जीवन जीने की कला को हमें प्री-प्राइमरी कक्षा से बच्चों को सिखाया गया होता. या बाद में भी वेदों में सन्चित ज्ञान को आज की जन सामान्य की भाषा - प्रचलित हिन्दी या स्कूली अंग्रेज़ी - में उपलब्ध कराया गया होता. आधुनिक शिक्षा पद्यति का कोई लाभ मिला हो या न मिला हो, इतना तो अवश्य हुआ है कि हम अपने धर्म और धर्म ग्रन्थों को चुनौती देने और देते रहने का कोई मौका नहीं चूकते. जबकि क्या विकसित और क्या अविकसित, सभी देश अपने-अपने देश के धर्म को जैसा है वैसा ही मानने का प्रयास करते हैं. उसके विरुद्ध न कुछ सुन सकते हैं, न उसमें किसी प्रकार के सुधार की गुंजाईश मानते हैं. तमाम जड़ताओं के बाद भी सुधार की बात वे भूल से भी नहीं करते. सहिष्णुता का पाठ केवल हिन्दू धर्म में ही मान्य है. इसीलिये उसे सुधारने के बयान कोई भी, कभी भी दे सकता है. बाकि सम्प्रदायों के लोगों की मज़बूरी भी है, जब बात जान-माल की हो तो उनका जीवन फ़िरकापरस्तों की रहनुमायी में ही कटना तय है. भलाई इसी में है कि जो जहाँ जैसा लिखा है वैसा ही मान लो.

वेदों और संस्कृत के नाम से अपने देश में ही एक ऐसा तबका तैयार कर दिया गया है, जो बिना पढ़े-समझे ही उन्हें ख़ारिज कर देता है. हिन्दी या अंग्रेज़ी माध्यम में पढाई करने के कारण वेदों को लेकर मेरे मन में भी वर्जनायें थीं. हजारों साल पुराने ग्रन्थ आज के सन्दर्भ में किस प्रकार उपयोगी हो सकते हैं. सिन्हा जी को भला इस किताब को लिखने की क्या आवश्यकता थी. अंग्रेज़ी के युग में हिन्दी की किताब कोई क्यूँ पढ़ेगा. मुझे नहीं मालूम था कि इस पुस्तक को पढ़ने के बाद वेदों को लेकर मेरे कई विश्वास और मिथक टूटने वाले हैं. पढ़ कर मुझे लगा कि जीवन के सार के लिये हम लोग खामख्वाह इधर-उधर भटकते रहते हैं. आज जब शिक्षा का उद्देश्य महज एक रोजगार और जीविकोपार्जन तक सीमित हो कर रह गया है, वेद हमें जीवन जीने का दर्शन और दिशा दिखाते हैं. इसका किसी धर्म-सम्प्रदाय से लेना-देना नहीं है किन्तु इसका सीधा और गहरा सम्बन्ध मानव धर्म से है. जिसे मानव धर्म का ज्ञान हो गया, वो चाहे किसी भी सम्प्रदाय का अनुयायी बन जाये, निश्चित रूप से धर्म का साथ कभी नहीं छोड़ पायेगा. 

वेद-पुराण-उपनिषद हिन्दू धर्म के मूल ग्रन्थ हैं. इनमें वर्णित प्रत्येक वाक्य मानव और मानवता को समर्पित है. इसमें द्वेष और दुर्भावना का कोई स्थान नहीं है. ये तो देश की राजनीति है, जिसने सदैव सत्ता के सोपान चढ़ने के लिये देश की भोली-भाली मासूम जनता को धर्म के आधार पर बर्गलाने का कुत्सित प्रयास किया है, जो आज भी जारी है. किसी ने अपने धर्म ग्रन्थों को पढने-पढ़ाने का काम तो नहीं किया, लेकिन धर्म ग्रन्थों को एक जाति विशेष की बपौती बता कर अधिसंख्य जनता को इस सहज उपलब्ध ज्ञान से वंचित रखा. आज आवश्यकता है कि प्रत्येक व्यक्ति जात-पात-धर्म के चश्मे को हटा कर इन पुस्तकों को पठन-पाठन करे. सामाजिक समरसता वाले समाज में मानव का क्या धर्म होना चाहिये, वेदों में वर्णित ये ज्ञान हमारे पुरखों की विरासत है, और हम हैं कि अपने ही इस ज्ञान का तिरस्कार करने में लिप्त हैं. ये पुस्तक ऐसे जिज्ञासु लोगों के लिये लाभकारी सिद्ध होगी. 

वाणभट्ट के इस लेख में जो भी विचार हैं, वो वेदों के श्लोकों पर सिन्हा जी की पुस्तक से प्रेरित हैं. सिन्हा जी ने भी वेदों के संचित ज्ञान को सारांश में और सहज शैली में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. 

वेद की शिक्षायें 'मनुर्भव' अर्थात् 'मनुष्य बनने' पर बल देती हैं. इनमें वर्णित ज्ञान का प्रयास है समाज को नैतिक और चारित्रिक पतन की दिशा में जाने से रोकना और समाज में एकता और अखंडता के भाव की स्थापना करना. चूँकि पृथ्वी पर मानव से अधिक श्रेष्ठ कोई अन्य प्राणी नहीं है, इसलिये मानव जो समाज का केन्द्र बिंदु है, उसे ही स्वयं को श्रेष्ठतर बनाने का प्रयास करना होगा. वेदों का सार है कि मानव ऐसे समाज का निर्माण करे कि सम्पूर्ण विश्व एक कुटुम्ब बन जाये, साथ-साथ चले और सभी का मंगल हो. दुनिया में सैकड़ों धर्म और हजारों सम्प्रदाय हो सकते हैं लेकिन सब एक-दूसरे पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने में ही लड़ते-मिटते रहे. एक हिन्दू धर्म ही ऐसा है, जिसने प्राणी मात्र के कल्याण की कामना की है, जिसमें चर-अचर-गोचर-अगोचर सब सम्मिलित हैं.    

चूँकि वेद किसी व्यक्ति विशेष की रचना नहीं है, किसी एक काल-खण्ड में इसकी रचना हुयी हो ऐसा भी कोई दृष्टान्त नहीं है. इसलिये ये माना जा सकता है कि समय के साथ-साथ ऋषियों- महर्षियों ने इस ग्रन्थ के अध्ययन और लेखन में अपना-अपना योगदान दिया होगा, वो भी बिना कोई श्रेय लिये. इसके रचना काल के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं, लेकिन सब ने एक बात मानी है कि ये ग्रन्थ ईसा के जन्म से 1000 से 5000 साल पहले लिखे गये होंगे. आलोचनात्मक दृष्टि से पाश्चात्य विद्वान इन्हें प्राचीनकाल का नहीं मानते. यहाँ पर यह आवश्यक है कि हम क्या मानते हैं ये अधिक आवश्यक है, न कि दूसरे, विशेषकर वो लोग जो विश्व विजय के उद्देश्य से दूसरों देशों पर अतिक्रमण और आक्रमण कर रहे थे. इतिहास शासकों द्वारा लिखा जाता है. तलवार की दम पर धर्म परिवर्तन करवाने वाले आततायी भी स्वयं को मानवतावादी बताने में कसर नहीं छोड़ते. धर्म अपरिवर्तनीय है. सम्प्रदाय आप कितने भी बदल लो सत्य, अहिंसा, करुणा और प्रेम धर्म थे, तो धर्म ही रहेंगे. और हिन्दू के अतिरिक्त हर सम्प्रदाय ने धर्म के नाम पर ही सबसे अधिक हिंसा की है. त्याग की आधारशिला पर स्थापित हिन्दू ही पूर्णरूप से धर्म की कसौटी पर खरा उतरता है. जो भी सम्प्रदाय, दूसरे सम्प्रदाय से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये छल-बल का सहारा ले, वो और कुछ भी हो सकता है परन्तु धर्म तो कतई नहीं. परमार्थ और परहित आधारित वेदों ने हिन्दू धर्म को एक स्थिर और स्थायी नींव प्रदान की. इसी कारण हमारा देश हजारों वर्षों के मुग़ल और अंग्रेज़ शासन के बाद भी हम अपनी मान्यताओं से पृथक नहीं हो पाये. 'यूनान-मिस्र-रोमा सब मिट गये जहाँ से, बाकी मगर है अब तक नामो निशाँ हमारा'. सबने आतताइयों की ताकत के विरुद्ध समर्पण कर दिया होगा. कोई बात तो होगी कि भारत में धर्म की जडें इतनी गहरी हैं कि अन्याय और अत्याचार की पराकाष्ठा भी उसे समाप्त नहीं कर पायी. और जब अन्य सम्प्रदाय हिन्दू और हिन्दुत्व की ओर उँगली उठाता है, तो लगता है उनका कट्टरपंथ, उन्हें हिन्दू धर्म की अच्छाइयाँ और उनकी गलतियाँ भी स्वीकार करने नहीं दे रहा है. 

मानवता का सन्देश देते वेदों को शायद पढना और समझना मेरे बस की बात नहीं थी लेकिन सिन्हा जी के इस अनुग्रह ने मुझे अपने धर्म और पुरखों पर गर्व करने का एक मौका दे दिया. इसको केवल धर्म ग्रन्थ न समझ कर मानव-धर्म ग्रन्थ समझना अधिक उचित है. जात-पात में बंटे देश को एक बनाये रखने के लिये आवश्यक है कि धर्म के मर्म को समझा जाये. व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये हिन्दू धर्म की कोई कितनी भी आलोचना करे, लेकिन जिसे इसमें निहित दर्शन समझ आ जायेगा, उसे ये मानना पड़ेगा कि धर्म केवल धर्म होता है, वो भी मानव का मानव के प्रति. इस पुस्तक की कुछ छोटी-छोटी बातें मै साझा करने का प्रयास करता हूँ. 

वेदों का आविर्भाव इतना पहले हो गया था कि बहुधा लोग इसे सृष्टि के पूर्व परमेश्वर द्वारा लिखा मान लेते हैं. यहीं से आज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले लोग इनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाने लगते हैं. और इन्हें ब्राह्मणों द्वारा रचा मायाजाल बता कर इनकी अपकीर्ति फ़ैलाने का प्रयास करते हैं. इनमें से अधिकांश ने वेदों की विषयवस्तु को जानने-समझने का प्रयास ही नहीं किया था. मैंने भी कभी नहीं किया था. कभी वेदों को पढ़ने की न कभी इच्छा हुयी, न साहस. वेद का शाब्दिक अर्थ होता है ज्ञान का सन्ग्रह. वेदों का एक-एक वाक्य विश्वबन्धुत्व और लोकमंगल की कामना से ओत-प्रोत है.

वेदों की कुछ सार्वभौमिक और कालातीत शिक्षायें निम्नवत हैं:

1. मनुर्भव : मनुष्य बनो

2. संगच्छध्वं संवदध्वं : साथ चलें, मिलकर बोलें

3. स्वस्ति पन्था मनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव : सूर्य-चन्द्र के सदृश कल्याण मार्ग के पथिक बनें 

4. मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे : सबको परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें 

5. अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं, परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम् : अट्ठारहों पुराणों में बस दो ही बातें लिखी हैं, परोपकार ही पुण्य है और परपीड़ा ही पाप 

6. मा गृध: कस्य स्विद्धनम : पराये धन का लालच न करो 

7. मा हिंसी: पुरुषान्यशुन्च्श्र : मनुष्य और पशुओं को मन, कर्म और वाणी से किसी प्रकार का कष्ट न दो 

8. ऋतस्य पथा प्रेत : सत्य के मार्ग पर चलो 

9. सर्वे भवन्तु सुखिन: : सभी लोग सुखी हों 

10. तेन त्यक्तेन भुंजीथा : त्याग की भावना का उपयोग करो 

11. पश्येम शरद:, जीवेम शरद: शतं : (यम, नियम, प्राणायाम, आसन का) पालन कर सौ वर्ष तक जीवित रहने का संकल्प 

12. यतोऽन्यदस्तिभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म: : जो सबको सामान रूप से अभ्युदय की ओर ले जाये, सबको कल्याण मार्ग पर ले जाये, वही धर्म है  

13. अहमनृतात्सत्यमुपैमि : मै असत्य (अनाचार) से पृथक रह कर सत्य (सदाचार) की ओर प्रवृत होऊँ

14. तत्कृणमो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्य: : ऐसी प्रार्थना करें जिससे मनुष्यों में परस्पर सुमति और सद्भाव का विस्तार हो  

15.  वसुधैव कुटुम्बकम् : समस्त पृथ्वी ही परिवार है 

वेदों में कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था और आयु के आधार पर आश्रम व्यवस्था का निर्धारण किया गया है. हर देश काल में और आज भी हर काम हर कोई कर सकता है, उसके लिये उतना ही पुरुषार्थ करना होगा. वर्ण व्यवस्था को उत्पति से जोड़ने के कारण देश अनायास निरन्तर बनी रहने वाली जातिगत व्यवस्था से जुड़ गया. समाज में व्याप्त विरोधाभास इसी बात को लेकर है. जन्म नहीं अपितु कर्म द्वारा वर्ण का निर्धारण ही देश और समाज के विकास की दिशा तय करेगा. धर्म ग्रंथों का बिना पढ़े उनका मूल्याङ्कन करना, हमें भारत के उद्दात ज्ञान से वंचित रखे हुये है. डॉ. सिन्हा का हिन्दी भाषा में संस्कृत के क्लिष्ट श्लोकों का भावार्थ निश्चय ही पाठकों को भारतीय वैदिक ज्ञान और संस्कृति के विषय में और अधिक जानने को प्रेरित करेगा.    

-वाणभट्ट 

शनिवार, 1 नवंबर 2025

समृद्धि

बंगले पर गहरा सन्नाटा व्याप्त था. पुरानी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों के बंगले इतने बड़े होते थे, जितने में आज लोग यूनिवर्सिटी खोल के बैठ जाते हैं. बंगले के सामने लॉन और पीछे किचन गार्डेन. एक छोटा-मोटा साम्राज्य समझ लीजिये. जब असिस्टेंट प्रोफेसर पर जॉइनिंग होती है, तब परिवार बड़ा होता है. माता-पिता-बीवी-बच्चे. घर मिलता है टाइप-थ्री. प्रोफ़ेसरी आते-आते घर में दो प्राणी बचते हैं और कमरे पाँच. चूँकि सरकार बंगले को आवश्यकता से अधिक ओहदे से जोड़ के देखती है, इसलिये बड़ा बंगला तब मिलता है जब आवश्यक्तायें सीमित हो जाती हैं. अब जब एक कमरे में दो लोग रहते हों, तो बाकी कमरों में झाड़ू लगवाना भी काम हो जाता है. किचन गार्डेन का भी कोई मतलब नहीं रह जाता. उसे मेन्टेन करने के लिये माली लगाओ, और जब सारी गोभी और मूली एक साथ तैयार होती हैं, तो समस्या ये हो जाती है कि कितनी खाओ, कितनी बाँटो. चूँकि पड़ोसी भी उसी तरह के बंगलों के मालिक होते हैं, तो सबके यहाँ स्थिति एक सी होती है. कौन किसको बाँटे. सारे काम वाले, माली, चौका-बर्तन करने वाली, कुक और ड्राइवर, भी सब्जी खा-खा कर अघा चुके होते हैं. अब प्रोफेसर हो कर यूनिवर्सिटी गेट पर सब्जी का ठेला लगाना शोभा तो देता नहीं, इसलिये जतन से उगायी गयी सब्जियों को तो ख़राब होना ही है. हॉर्टिकल्चर उत्पादन में जो 30 से 40 प्रतिशत नुकसान दर्ज़ किया जाता है, वो 45 से 50 प्रतिशत पहुँच जाये, यदि देश भर के बंगलों में हो रहे हॉर्टिकल्चरल लॉस को भी जोड़ लिया जाये. 

शांति इतनी अधिक थी कि घण्टी बजाने का दिल नहीं कर रहा था. लेकिन गेट खोलने बन्द करने की आवाज़ के बाद भी घर के भीतर कोई हलचल नहीं दिखी. लुधियाना से चंडीगढ़ सिर्फ़ प्रोफेसर साहब से मिलने ही तो आये थे हम. हम यानि डॉक्टर पड्डा और मै. ये प्रोफेसर डॉक्टर पड्डा के मित्र थे. उनसे मिलने के बाद पता चला कि वो उन्हीं की तरह सरदार भी थे. मजबूरी थी. कॉल बेल बजानी ही पड़ गयी. दरवाज़े पर लगी घण्टी (कॉल बेल) दबायी, तो सरकारी आवास पर अमूमन लगने वाली बजर की कर्कश आवाज ने मानो वातावरण में ध्वनि प्रदूषण फैला दिया हो. फ्रैक्शन ऑफ़ सेकेंड में हाथ घण्टी से हट गया. घण्टी बजाने के पाँच मिनट तक भी कोई हलचल नहीं हुयी. ताला दिख नहीं रहा था. हमें शक़ हुआ कि पीछे किचन गार्डेन वाले दरवाज़े पर ताला लगा के तो वो लोग कहीं निकल न गये हों. सन् चौरानबे में मोबाइल गिने-चुने लोगों के पास ही होता था. वैसे उनके कहीं निकलने की गुंजाइश इसलिये नहीं थी कि कुछ दिन पहले ही वो अस्पताल से लौटे थे, हार्ट अटैक से रिकवर हो कर. जिसकी सूचना मिलने के बाद ही पड्डा साहब ने प्रोग्राम बनाया, उनको देखने चलने का. कार जा रही थी, पड्डा साहब को साथ चाहिये था, मेरा परिवार इलाहाबाद गया हुआ था, इसलिये हम भी साथ में चिपक लिये. हमारे पूर्वांचल में हम का मतलब मै ही होता है. 

ट्रेनिंग के बाद मेरी पहली पोस्टिंग लुधियाना में हुयी थी. वहाँ जा कर मुझे एहसास हुआ कि समृद्धि क्या होती है. दुनिया भर में उस समय जितनी कारें होती थीं, सबके शो रूम वहाँ उपलब्ध थे. उनके सारे मॉडल घुमारमंडी की सड़कों पर घूमते देखे जा सकते थे. क्या ली, क्या लिवाइस, क्या लीकूपर, क्या लकोस्ट, सबके एक्सक्लूसिव शो रूम्स मैने पहली बार देखे थे. इलाहाबाद में तो सिविल लाइन्स की बड़ी से बड़ी दुकान पर मेरे साइज़ की तीन जींस निकल आयें तो बड़ी बात थी. वहाँ मिठाइयों की दुकानें भी कार के शो रूम जैसी बड़ी होती थीं. हमने अपने शहर में शराब की दुकानें और पान के खोखे देखे थे. लुधियाना में इसके उलट, दारू के खोखे थे, और ग्रेनाइट टॉप पर चाँदी के वर्क से सजी गिलौरियों और शटर वाली परमानेंट पान की दुकानें थीं. शाम के सात बजे फ़िरोजपुर रोड क्रॉस करने में डर इसलिये लगता था कि लम्बी-लम्बी कारों का काफ़िला थमने का नाम नहीं लेता था और उसे चला रहा चालक किस आसमान पर है, इसका अंदाज़ लगाना कठिन था. वहाँ के गाँवों में भी मकान पक्के हुआ करते थे. खपरैल शब्द उनकी शब्दावली में नहीं था. कुल्हड़ में चाय यूपी के भैये ही पसन्द करते थे, तब भी वहाँ काँच के गिलास प्रचलन में थे. आदमी को उपर से नीचे तक देखिये, तो चश्मे से लेकर जूते तक हर चीज़ ब्रैंडेड. पैसा सिर्फ़ होना ही काफ़ी नहीं था, वो दिखना भी चाहिये. पंजाबी आम तब तक खाता था, जब तक आम सौ रुपये किलो हो, जब बीस रुपया दाम हो जाता था, तो इसलिये आम खाना छोड़ देता कि अब तो भैया भी आम खा रहा होगा. वहाँ आपको इसलिये भी ख़र्च करना पड़ता था कि आपके अगल-बग़ल सब ख़र्च कर रहे हैं. खरबूजे को देख के खरबूजा रंग बदलता है, और मै तो खरबूजों के बीच रह रहा था. पूरी तरह ब्रैंडेड तो नहीं हो पाया लेकिन फिर भी खाने से कम दिखाने पर ख़र्च बढ़ गया.

पाँच मिनट के बाद प्रोफेसर साहब ने दरवाज़ा खोला. साथ में उनकी धर्मपत्नी भी थीं. पाँचवें कमरे से आने में इतना समय तो लग ही सकता था. दोनों ने सहज भाव से मुस्कुराते हुये हम लोगों का स्वागत किया. दोनों दोस्तों ने गर्म जोशी से उर लगाई भुज भेंट किया. माहौल एकदम जीवंत हो गया. हा-हा, हो-हो के कहकहे गूँजने लगे. पड्डा साहब ने याद दिलाया - यार थोड़ा धीरे बोल डॉक्टर ने मना किया होगा. तू चुपचाप बैठ. हम परजाई जी से बात कर लेंगे. अभी-अभी तो तू झटके से निकला है. तू बीमार है और हम तुझे देखने आये हैं, और तू है कि बीमारी को हल्के में ले रहा है. उसी खुशनुमा माहौल में भाभी जी चाय-वाय ले आयीं. प्रोफेसर साहब पूरे मस्ती के मूड में थे. शायद दोनों दोस्त लम्बे अंतराल के बाद मिले हों. यार पड्डे हारी-बीमारी तो आती-जाती रहती है. पर मै ज़्यादा लोड नहीं लेता. डॉक्टर ने तो बहुत कुछ बताया है, ये कर वो ना कर, ये खा वो ना खा. उसने तो देसी घी तक मना कर दिया है. बोल रहा था कि आपने परहेज नहीं किया तो दोबारा अटैक पड़ सकता है. मैंने भी बोल दिया कि भाई, मैंने पूरी ज़िन्दगी घी लगा के रोटी खायी है. चाहे कुछ भी हो जाये, मै बिना देसी घी के रोटी नहीं खा सकता. तेरे को जो भी दवायी देनी हो दे दे, लेकिन मै घी छोड़ने वाला नहीं.

बालकनी में पड़ी रोटी सूख कर पापड़ बन गयी थी. कई दिन बाद मेरा ध्यान उधर गया. पत्नी जी का लुधियाना आगमन कुछ दिन पहले ही हो चुका था. मैंने श्रीमती जी को आवाज़ लगायी - ये क्या रोटी बालकनी में डाल रखी है. उन्होंने बताया कि बची हुयी बासी रोटी कौवों के लिये बालकनी में डाल दी थी. लेकिन लगता है, अभी तक किसी की नज़र नहीं पड़ी. घी-नमक लगा कर तवे पर सिकी बासी रोटी मेरा सुबह का पसंदीदा नाश्ता है. मैंने उन्हें बताया - ये पंजाब के कौवे हैं. ये बिना घी की रोटी नहीं खाने वाले. इस पर घी लगा कर रखा करो. 

पाँच मिनट बाद बालकनी से रोटी नदारद थी. 

समृद्धि कुछ ऐसी ही होनी चाहिये. हमारे आस पास, हमारे अगल-बग़ल, हर तरफ़, और सबकी.

-वाणभट्ट

वैदिक संस्कृति में मानवधर्म - एक समीक्षा

मुझे हमेशा से लगता था कि जीवन जीने की भी कोई कुन्जी (मेड ईज़ी या गाइड) पुस्तक होनी चाहिये थी. हर आदमी पैदा होता है, और अन्त तक बस दुविधा और स...