चन्दा ओ चन्दा
होली आपसी मेल-मिलाप का त्यौहार है। यह पर्व अच्छाई की बुराई पर विजय का द्योतक है। चूँकि ये सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत का पेटेंटेड त्यौहार है इसलिये इसमें गंगा-जमुनी तहज़ीब और साम्प्रदायिक सौहार्द का एंगल और घुस जाता है। प्रश्न ये भी उठता है गंगा और जमुना जब तीर्थराज प्रयाग में जब घुल मिल गयीं तो जमुना की अलग आइडेंटिटी को बरक़रार रखने का प्रयास क्यों किया जाता है। और सभी नदियाँ सहजता से गंगा में समा गयीं। वर्तमान परिदृश्य पर जब गौर से गौर किया जाये तो ये पता चलता है कि तटस्थ और समदर्शी रहे भारत वर्ष में विघटनकारी शक्तियाँ अनन्त काल से सक्रीय रही हैं। शायद इसीलिये यहाँ पर सुर और असुर के कॉन्सेप्ट ने जन्म लिया। एक तरफ़ ऐसे लोग थे जो लंगोट पहन कर सम्पूर्ण जगत के कल्याण हेतु हवन-पूजन में लगे रहते तो दूसरी तरफ़ वैसे लोग थे जिन्हें हवन में विघ्न डालने में ही आनन्द आता। मानव प्रवृत्तियों का अध्ययन कीजिये तो पता चलता है कि ज़िन्दगानी के सारे मज़े पाशविक और आसुरी प्रवृत्तियों में है। अगला जन्म सुधारने के चक्कर में इस जन्म को व्यर्थ कर देना कहाँ की समझदारी है। आज कल के दास मलूकाज़ फरमा रहे हैं ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा। भोग आज की प्राथमिकता बन गया है और योग बस उतना जितने में कोई एलोपैथिक डॉक्टर भोग छोड़ने के लिये न कह दे। दवाइयों के साथ भी यदि भोग हो सकता है तो भोग छोड़ने और योग करने की क्या आवश्यकता है। जब से सुर और असुर दोनों के बराबर ह्यूमन राइट्स की बात होने लगी है तब से सुरों को अपने ऊपर डाउट होने लगा है। मज़ा लेकर मरें या अगले जन्म का इंतज़ार करें। अगले जन्म में दिक्कत ये है कि फिर आर्किमिडीज़ से लेकर आइंस्टाइन तक मग्घा मारने के बाद भी एक अदद नौकरी के लिये पापड़ बेलने पड़ेंगे। चूँकि पुनर्जन्म की अवधारणा इसी देश के एक धर्म विशेष पर लागू होती है इसलिये आप ये तो भूल ही जाइये की भगवान किसी और देश या धर्म में आपको पैदा करेंगे। इसमें किसी को कोई दुविधा नहीं होनी चाहिये। लेकिन यदि आप निरन्तर आत्मउत्थान के लिये कार्य करते रहेंगे तो निश्चय ही किसी न किसी जन्म में निर्वाण को प्राप्त करेंगे।
शर्मा जी ने मुँह के आगे दो उँगलियों के बीच से जगह बनाते हुये पान की पीक की लम्बी धार वर्मा जी के गेट के बगल में दे मारी थी। पान की असली जुगाली करने वाला यदि थूक दे तो समझ लीजिये कहने वाली बात का मूल्य पान के मूल्य से कहीं ज़्यादा है। सारी होली की टोली वर्मा जी से होली का चन्दा निकलवाने का प्रयास कर-कर के थक गयी थी। इसलिये शर्मा जी को अपने महँगे ज़र्दे वाले पान की तिलांजलि देनी पड़ गयी। "देखिये भाई वर्मा जी साल में एक त्यौहार आता है जिसमें हम लोग आपके दरवाज़े कुछ माँगने आते हैं। चूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिये हम सबका दायित्व है कि समाज बना रहे और हम सब मिल-जुल कर त्यौहार मनाते रहें। पास-पड़ोस ही सबसे पहले वक्त-ज़रूरत काम आता है इसलिये इस चन्दे को एक तरह का इन्वेस्टमेंट ही समझिये। सब लोग थोड़ा बहुत सहयोग करेंगे तभी होलिका दहन और होली मिलन का कार्यक्रम हो पायेगा। होली तो हम सब मना सकते हैं अपने अपने घर में। लेकिन मिल-जुल के मनायें तो कुछ और बात है। ये तो बस सबको आपस में जोड़ने का एक प्रयास है। इस पुनीत कार्य में आपकी सहभागिता की हम सब अपेक्षा करते हैं।"
वर्मा अपने गेट के सामने हाथ बाँधे उसी तरह अटल खड़ा था जैसे कभी-कभी सत्य खड़ा हो जाता है। "एक बार कह दिया नहीं देना तो नहीं देना। हर साल चले आते हैं। और कोई काम धंधा नहीं है क्या। मुझे होली नहीं खेलनी न ही मिलनी। वैसे भी इस बार हम लोग होली नहीं मना रहे हैं। एक रिश्तेदार नहीं रहे। कोई जोर-जबरदस्ती है क्या।" वर्मा जी का पारा चढ़ता ही जा रहा था। शायद वो उस दिन अपनी ब्लड प्रेशर की दवा खाना भूल गया था। ऐसा नहीं था कि चन्दे के 200 रुपये उनकी आय के बजट से बाहर हो। लेकिन जब से पे-कमीशन लगा तब से भले लोगों की आय बढ़ गयी हो लेकिन पास-पड़ोस से संपर्क घटता गया। बड़े बड़े टीवी हैं बड़ी बड़ी कारें हैं लेकिन बड़े दिल की आशा की तो आपका दिल टूट सकता है, जिसे जोड़ने की गारेन्टी क्विकफिक्स भी नहीं लेता। बैंक बैलेंस और हेल्थ इंश्योरेंस पर इतना भरोसा है कि यदि आवश्यकता पड़ जाये तो मल्टी स्पेशियैलिटी हॉस्पिटल्स में पैकेज़ पर इलाज़ करा कर बिना रिश्तेदारों और पड़ोसियों को इन्फॉर्म किये ठीक हुआ जा सकता है। एक मित्र (तथाकथित ही सही) ने फेसबुक पर अपने हर्निया के ऑपरेशन का चित्र साझा किया तो मैंने भी अपनी शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की संवेदना व्यक्त कर दी। बाद में भाई ने बताया कि ये दस दिन पहले की बात है अब तो मैंने ऑफिस ज्वाइन कर लिया है। बीस हज़ार का पॅकेज था जो हेल्थ इंश्योरेंस से कवर था। बस एक सिग्नेचर करना पड़ा। उसे नहीं पता कभी-कभी डॉक्टर से भी गल्ती हो जाती है।
सारी दोस्ती और दुश्मनी फेसबुक पर ही निकाली जा रही है। दोस्ती का आलम तो ये है कि कुछ लोग आमने-सामने भले न पहचानें, बस फेसबुक और व्हाट्सएप पर ही दोस्ती निभा रहे हैं। दोस्ती लाइक और कमेंट करके और दुश्मनी बिना कोई लाइक या कमेंट दिये। एक पोस्ट के बाद यदि लाइक या कमेंट न आयें तो लगाने लगता है - ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं। लेकिन ज़िन्दगी तो चलते रहने का नाम है। हारे हुये जुआड़ी की तरह अगले दिन फिर वो इक नयी पोस्ट फेंकता है। दूसरों की दो-चार पोस्ट्स पर लाइक और कमेंट चेपता है ताकि कोई उसकी पोस्ट पर भी ध्यान दे। कई बार तो अपनी ही पुरानी पोस्ट को हाइलाइट करने के लिये लाइक कर देता है। यदि रेस्पॉन्स न मिला तो कल से फेसबुक को तिलांजलि देने के संकल्प के साथ सो जाता है। ये जानते हुये भी कि कल कभी नहीं आता। सोशल मीडिया के अपने विराट अनुभव के आधार पर मै ये विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि वर्मा सोशल साइट्स के इसी काम्प्लेक्स से ग्रसित लग रहा है। उसे शायद ये नहीं पता कि समाज की तरह सोशल मीडिया के भी अपने नियम होते हैं। एक हाथ दे तभी दूसरे हाथ ले। आप मेरे पोस्ट को चुपचाप देख कर निकल जाओगे और मुझसे कमेंट पाने की उम्मीद रखोगे तो ऐसा नहीं चलेगा। लेकिन इस समय वर्मा आसुरी प्रवृत्तियों के प्रभाव में था। शर्मा जी की सभी दलीलों को ख़ारिज करते हुये बन्दा डटा रहा। कमेटी के अध्यक्ष, सचिव और खजान्ची ने देख लिया कि आज तिल का मूड सही नहीं है इसलिये तेल निकालने का प्रयास व्यर्थ है। सो उन्होंने अपना निमन्त्रण पत्र वर्मा जी को प्रेषित कर दिया। कोई बात नहीं वर्मा जी आप हमारी सोसायटी के माननीय सदस्य हैं। होलिका दहन का मुहूर्त कल सायं 8 बजे का है, परसों सुबह चौराहे पर रंगों के ड्रम भरे मिलेंगे और शाम को उसी स्थान पर होली मिलन का कार्यक्रम है। इष्ट-मित्रों के साथ आप की उपस्थिति प्रार्थित है।
चूँकि कार्यक्रम करना था और एक-एक व्यक्ति पर इतनी मगज़मारी लिये समय कम था, लिहाजा कमेटी आगे बढ़ चली।
अगले दिन कमेटी के पदाधिकारियों ने कुछ रिटायर्ड सदस्यों की सहायता से होलिका दहन की तैयारिओं को अंजाम दिया। नियत समय पर पण्डित जी भी आ गये। कोरोना से देश की मुक्ति हेतु पण्डित जी ने दो-चार श्लोक एक्स्ट्रा पढ़े। और होलिका की अग्नि प्रज्वलित हो कर धधक उठी। हवन सामग्री, देशी घी, लोबान और कपूर की सुगन्ध वातावरण में फैल गयी। जितने लोगों ने चन्दा दिया था उससे कहीं अधिक लोग गन्ने पर चने का झाड़ बाँधे पता नहीं कहाँ से अवतरित हो गये। होलिका में होरहे की भुनाई और परिक्रमा के बीच एक आकृति वर्मा जी की भी नज़र आयी। शर्मा जी का पीकने का मन किया लेकिन आज पान का मूल्य कही जाने वाली बात से ज़्यादा था।
-वाणभट्ट