मंगलवार, 2 अगस्त 2016

धनात्मक प्रवृत्ति

धनात्मक प्रवृत्ति


शर्मा जी ने सूचना देने के साथ-साथ एक शर्त भी रख दी. वर्मा जी विभागीय पत्रिका के लिये लेख भेजने का परिपत्र निकल चुका है. मै जानता हूँ कि आप लिखने का शौक रखते हो. कोई फड़कता हुआ लेख लिख मारो. लेकिन यार तुम जरा नेगेटिव आदमी लगते हो. ऐसा लिखना कि तुम्हारी निगेटिविटी न झलके. दुनिया में जिधर देखो निगेटिविटी बढ़ती जा रही है. लोग हैं कि आजकल पॉजिटिव रहना चाहते हैं. इसीलिये सलमान खान की बेसिरपैर की पिक्चर्स सुपर-डुपर हिट हो जाती हैं और इरफ़ान खान को अवार्ड्स से संतोष करना पड़ता है. गुत्थी-दादी की भडैन्तियाँ और लाफ्टर चैलेन्ज की बेहूदगियाँ सिर्फ इसलिये पसन्द की जा रही हैं कि लोगों की बेजार ज़िन्दगी में हँसने के ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं. एक जमाना था जब कुंदन शाह और सई परांजपे टीवी पर एक स्वस्थ हास्य पेश करते थे. अब मामला तुरंती-तुरंता का है. पाँच-दस मिनट टीवी मिलता है, देखने को. एक-दो बार भी यदि हँसने का मौका मिल गया तो मँहगे एलइडी टीवी का पैसा वसूल हो गया समझो. लेकिन कुछ भी हो इस बार आप कुछ पोसिटिव ही लिखना.

सजेशन दे कर, मुझे पशोपेश में डाल कर और मेरे अब तक के सारे लिखे-लिखाये पर पानी फेर दिया भाई जिस गति से आये थे उसी गति से निकल लिए. सुझाव देना कब कठिन रहा है?. उन्होंने ये समझाने की गुंजाईश भी नहीं छोड़ी कि व्यंग एक अलग विधा है. अगर व्यंगकार पॉजिटिव एटीटयूड से ग्रसित हो जाये तो इस धरा से व्यंग की विधा का अंत हो जाये. हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्री लाल शुक्ल, आर के लक्ष्मण, सुधीर दर, आदि-इत्यादि की दुकानें तो खुलने से पहले ही बंद हो जाती. जॉनी वॉकर, महमूद, राजेंद्र नाथ आदि कलाकारों ने विशुद्ध हास्य पर अपना जीवन काट दिया. अब हास्य का स्तर इतना गिर गया है कि तथाकथित स्टैंड-अप कॉमेडियंस हर दो मिनट पर नॉन-वेज पर उतर आते हैं. लेकिन चूँकि शर्मा जी की हिदायत हैपॉजिटिव बने रहने की, सो मै इसकी बुराई नहीं कर रहा हूँ. इससे एक फायदा ज़रूर हुआ है कि अब बाप-बेटे एक साथ उन महान जोक्स पर नज़रें बचा कर हँस सकते हैं. वो दिन दूर नहीं जब वे एक-दूसरे के हाथ पर गिव मी फाइवकी तर्ज़ पर ताली बजा कर और भी आनंदित हो सकेंगे.

ये पॉजिटिव एटीट्यूड भी गज़ब होता है. दुनिया में हर तरफ वैसे ही हरा-हरा नज़र आता है, जैसे सावन के अन्धे को. यहाँ हालात ऐसे हैं कि जिधर नज़र डालो, एक व्यंग रचना फड़फड़ा रही होती है. आँख वाला यदि वाकई आनंद खोजना चाहता है तो उसे भी आँख बंद करनी होगी. बुराई में अच्छाई खोजने वाला तीसरा नेत्र विकसित करना होगा. राजयोग का सारा फंडा ही यही है. आनंद के लिये वाह्य जगत से कट कर अपने अंतर में उतरो. जिनके पास छोड़ने के लिए बहुत कुछ है उनके लिये ये बात समझ आती है कि कम से कम भोग-विलास तो छोड़ा जा सकता है. लेकिन जिनके पास खोने के लिए न्यूनतम हो उसे त्याग और योग के महात्म्य से कैसे सुखी किया जा सकता है ये एक अबूझ प्रश्न है. लेकिन जैसे अच्छे स्वाद पर सबका हक़ है, वैसे ही प्रसन्नता पर सबका बराबर हक़ है. पता नहीं किसको किस रूप में मिल जाये.

किसी ने बताया कि नित्य-नवीन-आनंद चाहिए तो वो सिर्फ ईश संपर्क से ही मिल सकता है. दुनिया तो सिर्फ माया है, छलावा है. शादी और बच्चे हो चुके थे. अस्सी साल की औसत आयु मान कर सोचा 40 साल में वानप्रस्थ शुरू किया जा सकता है. पता नहीं कितने घाट का पानी पिया तब जा कर एक बाबा जी के सम्मोहन में ने पूरी तरह फँसा. बड़ी चिलम भरी तब बाबा जी ने ज्ञान दिया कि भक्त इसी क्षण तुम्हें ईश-दर्शन हो सकते हैं यदि तुम प्रतिबद्ध होकर प्रभु के पीछे पड़ जाओ. बस एक बात का ध्यान रखना जप करते समय झाड़ू के बारे में बिलकुल मत सोचना. लगा अब प्रभु के साक्षात् दर्शन हो के ही रहेगा. पांच-दस दिन अनवरत प्रयास किया. लेकिन प्रार्थना के समय भगवान तो नहीं लेकिन ना-ना प्रकार की झाड़ूवें, नारियल वाली, ताड़ वाली, फूल वाली, सड़क के जमादार वाली, जाला मारने वाली, वैक्यूम क्लीनर आदि-इत्यादि, आँख बंद करते ही आँखों के सामने नाचने लगतीं. दसवें दिन बाबा को चिलम सहित गंगा जी में धक्का देकर जो भागा तो मुड़ के नहीं देखा कि बाबा का क्या हुआ.

जीवन रूपी इस भव सागर को पार करने में पॉजिटिव एटीट्यूड बहुत सहायक होता है. देश कहीं जा रहा हो या दुनिया कहीं, आपको इससे कुछ लेना-देना नहीं है. आपको सिर्फ अपने और अपने स्वार्थ से मतलब होना चाहिये. चाहे चंगेज़ आये या अंग्रेज़. आपको ऐसे किसी चक्कर में नहीं फँसना चाहिए जिसमें दिन का चैन और रात की नींद हराम होती हो. सौ करोड़ के इस देश में यदि आपके पास एक नौकरी है तो खुद को किसी रईस से कम मत समझिये. सरकारी नौकरी है तो क्या कहने और मलाईदार पद है तो बल्ले-बल्ले. सूखा पड़े या आये बाढ़ आपको आपकी मेहनत का फल नियमित रूप से मिल ही जाता है. वो दिन अभी भूला नहीं हूँ जब मोहल्ले में एक लैंड लाइन हुआ करती थी और पूरा मोहल्ला पी.पी. (पडोसी फोन) नंबर बाँट देता था. इस रिक्वेस्ट के साथ कि भाई पडोसी का फोन है रात दस के बाद नहीं करना. लेकिन चाचा जी ने रात-बिरात आने वाले ट्रंककॉलों का कभी बुरा नहीं माना. पड़ोस के मामा जी ने जब शटर वाला डायनोरा टीवी ख़रीदा तो पूरे मोहल्ले को ‘चित्रहार’ देखने का निमंत्रण दिया. टीवी को घर के बाहर वरांडे में स्थापित कर सभी के घरों से आयी दरियों को ज़मीन पर बिछा दिया गया ताकि अधिक से अधिक उनकी ख़ुशी में शरीक हो सकें. हम लोग-बुनियाद-रामायण-महाभारतके लिये उनका दरबार सदैव खुला रहा जब तक हमारे घर ब्लैक एंड वाईट टीवी नहीं आ गया. किसी के व्यक्तिगत ख़ुशी और गम नहीं होते थे. सबकी साझेदारी थी. और ये बहुत पुरानी बात नहीं है जो दादी-नानी से सुनी हो. वो पैकेज-पेबैंड-ग्रेड्पे का ज़माना नहीं था. तनख्वाह कम थी, मोटा खाते थे, मोटा पहनते थे, तो क्या हुआ, दिल सोने के थे.

मुझे पता है कि मेरी इन बातों पर शर्मा जी कहेंगे भाई लानत है आप पर, आप नहीं सुधर सकते. पता नहीं किस दुनिया में रहते हैं और रहना चाहते हैं. यहाँ लोग छठवें और सातवें वेतन आयोग की संस्तुतियों से इसलिए खुश नहीं हैं कि कार के जिस मॉडल की उन्होंने कल्पना की थी उसके लिए आठवें आयोग का इंतज़ार करना पड़ेगा. लोग हर कमरे में एलइडी टीवी लगा रहे हैं यहाँ आप मोहल्ले के साथ टीवी देखने की वकालत कर रहे हैं. ये चाचा-मामा सब माया के दूसरे रूप हैं. आप अकेले आये हैं और अकेले जायेंगे. सो ज़िन्दगी का जो भी मज़ा वो आपका अपना है. परेशानियाँ दूसरों से शेयर कर के आप नाहक हँसी का पात्र बनेंगे. यहाँ भी आपकी निगेटिविटी टपक रही है.

चलिए मै प्रयास करता हूँ कि कुछ सकारात्मक लिखूँ. इसलिये सभी देवी-देवताओं का आह्वाहन करता हूँ कि आज जो भी लिखूँ, जैसा भी लिखूँ, वो सकारात्मक हो और सबसे बड़ी बात कि वो शर्मा जी को भी सकारात्मक लगे.

कश्मीर में अमन-चैन कायम हो गया है. अलगाववादी सेना को फूल मार रहे हैं. देने की आदत छूट गयी है और फेंकने की आदत जाते-जाते जाएगी. चीन-पाकिस्तान-बांग्लादेश-भारत मिलजुल कर तरक्की कर रहे हैं. पूरा विश्व सही मायने में एक ग्लोबल विलेज बन है और भारत पुनः विश्व गुरु के पद पर प्रतिष्ठित हो गया है. पूरी धरती मिल कर ब्रम्हांड के दूसरे ग्रहों पर जीवन की सम्भावना तलाश रही है. विश्व स्तर की देसी सडकों पर विश्व स्तर के नियम-कानून का पालन हो रहा है. सेना और पुलिस के पास दिनभर मूँगफली टून्गने के अलावा कोई काम नहीं बचा है. इस कारण देश-विदेश में मूँगफली की माँग में बेतहाशा वृद्धि हो गयी है. दरअसल सभी देशों में पुलिस और सेना की आवश्यकता ही नहीं रही. मूँगफली का उत्पादन बढ़ाने में सभी राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने दिन-रात एक कर रखा है. एक हज़ार वैज्ञानिक मिल कर जब चन्द्र और मंगल यान अभियान को सफल बना सकते हैं तो सौ-पचास एक साथ मिल कर देश-दुनिया को मूंगफली तो मुहय्या करा ही सकते हैं. पर्यावरण अब पूरी तरह साफ़-सुथरा है. भूकम्प भी अब नहीं आते. ग्लोबल वार्मिंग बीते ज़माने की बात बन के रह गयी है. ठन्डे इलाके में ठंडी और गर्म इलाके में गर्म फसलों को उगाया जा रहा है. जिस क्षेत्र में जो चीज़ पैदा होती है, उसे वहीँ उगा कर दूसरे इलाके में भेज दिया जाता है. ग्लोबल वार्मिंग के समाप्त हो जाने से तमाम खामख्वाह के शोधों की आवश्यकता भी नहीं रह गयी है. हजारों हेक्टेयर में एक ही प्रजाति की फसलें उत्पन्न की जा रही हैं. प्लान्टर और कम्बाइन की सेटिंग को बार-बार एडजस्ट नहीं करना पड़ता. एक ही तरह का कच्चा माल होने के कारण भण्डारण और प्रसंस्करण में हानियाँ नगण्य रह गयी है. देश के अन्न भण्डार और लोगों के पेट इस कदर भर गए हैं कि आवारा गाय-सांड-कुत्ते भी भोजन के लिये छु-छुआते नहीं घूमते. देश में सरकारों का काम सिर्फ सड़क-अस्पताल-खाद्य आपूर्ति-मकान-कपडे तक ही सीमित रह गया है. सबको सब चीज़ समय पर मिल जाती है. अफसरान अपनी-अपनी तनख्वाह में खुश हैं और अफसरशाही-लालफीताशाही का तो नामो-निशान भी मिट गया है. छठवाँ वेतन आयोग  से जो अधिकारी-कर्मचारी एक-दूसरे की शक्ल देखना पसंद नहीं करते थे, कंधे से कन्धा मिला कर देश के विकास में जुटे पड़े हैं. भ्रष्टाचार अब रग-रग इस तरह घुल-मिल गया है कि भूले से कोई इसका ज़िक्र नहीं करता. लोगों का ऐसा मानना है कि विकास और भ्रष्टाचार ‘गो हैण्ड इन हैण्ड’. रोजगार उन्ही को दिया जाता है जिन्हें कुछ न कुछ करते रहने की बिमारी है. बाकी लोग अपने हिसाब से और अपनी पसंद के अनुसार काम करते हैं. इस कारण गवैयों और कलाकारों और लेखकों की संख्या श्रोताओं और दर्शकों और पाठकों के ऊपर निकल गयी है. सर्वत्र आनंद ही आनंद छाया हुआ है. 

इस व्यवस्था में सिर्फ एक ही प्रकार का प्राणी है जो इस अनिर्वचनीय आनन्द से वंचित हैं. वो हैं, व्यंगकार. उनके पास व्यंग लिखने के लिए कुछ बचा ही नहीं है. यही एक कौम है जो विश्व के हर्षोल्लास से दूर डिप्रेशन की हद तक दुखी है. पता नहीं इनमें निगेटिविटी की जड़ें कितनी गहरी हैं. जब तक ये दो-चार कार्टून न बना लें, एक-दो पन्ना काला न कर लें, इन्हें चैन नहीं आता. इनको कहीं भी, किसी भी तरह चैन नहीं है. दुनिया में सकारात्मकता इतनी फ़ैल गयी है कि नकारात्मकता की ओर देखने का समय किसी के पास नहीं है. जब कुछ फैलता है तो कुछ सिकुड़ता भी है. बस कुछ दिनों की बात है ये नकारात्मक टाइप के अल्पसंख्यक लोग या तो सकारात्मक बन कर इस जीवन के मज़े लूटने में लग जायेंगे या फिर चुल्लू भर पानी में छलाँग लगा देंगे. लेख का अंत निगेटिव न लगे इसलिये परम पिता परमात्मा से प्रार्थना है कि आशीर्वाद दें अखिल ब्रम्हांड में सब खुश रहे, मस्त रहें और जीवन के समस्त मज़े लूटें. एक छोटी सी इल्तिज़ा ये भी है कि प्रभु हम जैसे नाचीज़ से उदीयमान व्यंगकारों का भी थोडा ख्याल रखें, थोड़ी निगेटिविटी बनाये रखें ताकि लिखने को कुछ-कुछ मसाला मिलता रहे.

- वाणभट्ट 


आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...