संवेदनशीलता और भावुकता पर पिछले कुछ दिनों में बहुत कुछ कहा जा चुका है। जो भी उच्च पदों को सुशोभित कर रहे हैं उन्हें संवेदनशील अवश्य होना चाहिये। भावुकता तो संवेदनशीलता का प्रकट रूप है। यदि राजा निस्वार्थ भाव से प्रजा की सेवा करना अपना धर्म समझता हो तो संभव है उससे ज़्यादा दीन-हीन सेवक की कल्पना कर पाना असम्भव हो। राजाओं के अत्याचार और कुशासन से प्रजा को मुक्त करने के लिये प्रजातन्त्र का मॉडल प्रचलित हुआ। प्रजातन्त्र की अवधारणा बहुत ही सीधी और सपाट थी। सरकार जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिये। लेकिन मूलतः बदला तो सिर्फ राजयोग का स्वरुप। पहले सिंहासन खानदानी विरासत थी, अब येन-केन-प्रकारेण सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की होड़। विनम्रता, समाज-सेवा, देशप्रेम, सदाचार, सुशासन, गरीबी-उन्मूलन, सर्वधर्म-समभाव आदि जन-भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला राजनेता जनता के द्वारा चुनने के बाद ख़ुद सरकार बन जाता है। मतगणना किसी व्यक्ति की सामाजिक स्वीकार्यता का प्रमाण तो हो सकती है, लेकिन उसके समाज के प्रति सेवा के सन्कल्प का द्योतक नहीं। कुर्सी मिलने के बाद अमूमन नेता उनसे ही दूर हो जाता है जिन्होंने उसे चुना है। चूँकि नेतागिरी अपने-आप में एक फुलटाइम जॉब है, और जिसने नेता बनने की ठान ही ली है तो उसके पास पढ़ने-पढ़ाने के लिए समय बच जाये ऐसा बिरले ही होता है। अब सरकार चलाने के लिये हर चीज़ के बारे में विस्तृत जानकारी होनी चाहिये। जिस देश में चाकरी करने को आमादा पढ़े-लिखे लोग बहुतायत से उपलब्ध हों वहाँ पढ़ाई करना समय की बरबादी है। इतनी देर में तो काफी लोगों से जनसम्पर्क हो जायेगा, कुछ वोट पक्के हो जायेंगे। सरकार चलाने के लिये तमाम पद बनाए गये और उन पर पढ़े-लिखे लोगों को कारिन्दा रख लिया। जो अच्छा हुआ वो सरकार का किया और जो बुरा वो कारिंदों का। पढ़े-लिखे बेरोज़गार, सरकारी रोज़गार पाने के बाद जल्दी ही ये गुमान पाल लेते हैं कि वो ही सरकार हैं और शीघ्र ही राजरोग से ग्रसित हो जाते हैं। पद पर विराजने के बाद भावुकता और सम्वेदनशीलता की तिलांजलि दिए बिना राजयोग के कुर्सी प्रदत्त अधिकारों का आनन्द ले पाना संभव नहीं है। अक्सर तथाकथित सक्षम-समर्थ लोग इन मानवीय गुणों को व्यक्ति की व्यक्तिगत दुर्बलता मान लेते हैं।
ये पीड़ा हर उस व्यक्ति की है, जो देश को बुलंदियों पर देखना चाहता हो लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में खुद को असहाय पाता हो। मुकदमों का निरन्तर बढते जाना न्यायपालिका को ही कटघरे में खड़ा कर रहा है। न्यायपालिका धन-बल के आगे बेबस नज़र आती है। बिना दांत और नाख़ून के शेर का शिकार कोई भी कर सकता है। कुछ-कुछ वैसा ही हाल है। अपराधी प्रवृत्ति के लोग अपनी जेब में कानून रखते हैं। उन्हें सजा दिलवा पाने की प्रक्रिया इतनी जटिल और लम्बी है कि अंतिम निर्णय से पहले ही पीड़ित व्यक्ति हताश और निराश हो जाता है। अक़्सर कानून की पेंचीदगी का लाभ उठा कर अपराधी मुक्त भी हो जाता है। न्याय कम या अधिक फ़ीस वाले वकीलों के अनुसार बदल जाए तो न्याय कहाँ रहा? और इस व्यवस्था पर विश्वास कर पाना कहाँ तक न्यायोचित है। दिनोदिन बढ़ते मुकदमों के कारण आज न्यायालयों और न्यायाधीशों की कमी महसूस की जाने लगी है। लेकिन समय से मुकदमों के निस्तारण के लिये न्यायधीशों की कमी ही एक मात्र कारण नहीं है। आवश्यकता इस बात पर ध्यान देने की है कि मुकदमों की संख्या में भारी इज़ाफ़े की वजह क्या है। न्याय की आवश्यकता वहीं पड़ती है जहाँ अन्याय हुआ हो। अन्याय बढ़ा है इसलिए मुक़दमों की संख्या बढ़ी है। अन्याय करने वाले अधिकांशतः सक्षम-समर्थ-शक्तिशाली लोग होते हैं। आम आदमी भी अन्याय को अपने सब्र भर सहने के बाद ही कोर्ट-कचहरी के विकल्प को आजमाता है। कोई भी व्यक्ति इन चक्करों से दूर ही रहना चाहता है। इसमें समय-धन-ऊर्जा सभी की हानि है। कुछ लोगों को इसकी ख़ानदानी लत हो सकती है। अमूमन पीड़ित व्यक्ति न्याय के लिये अपनी क्षमता और सामर्थ्य के सारे अवसरों के चुक जाने के बाद न्यायालय की शरण में आता है। इतिहास गवाह है कि सीधे-सच्चे-ईमानदार लोगों का जीवन भ्रष्टाचार-अन्याय-अराजकता से लड़ते बीता है। मुग़लों और अंग्रेज़ों के कार्यकाल में भी कारिंदों ने पूरे राजसी ठाठ का जीवन जिया है। अन्याय और अत्याचार समर्थ लोगों का शगल है।शिक्षण और शिक्षा के विकास के साथ ही लोगों में, देश के प्रति कर्तव्य बोध भले ही न विकसित हुआ हो, लेकिन अधिकार-बोध अवश्य बढ़ा है।
अन्याय और अत्याचार किसी भी देश या देशकाल में कोई नयी या अनोखी घटना नहीं है। इससे बचने के लिये लोगों ने धर्म का छद्म सहारा भी ले कर देखा। कभी लोगों ने भरोसा किया - 'निर्बल के बल राम'। कबीर साहब जी ने भी सशक्तों को समझाने की कोशिश की कि -
अन्याय और अत्याचार किसी भी देश या देशकाल में कोई नयी या अनोखी घटना नहीं है। इससे बचने के लिये लोगों ने धर्म का छद्म सहारा भी ले कर देखा। कभी लोगों ने भरोसा किया - 'निर्बल के बल राम'। कबीर साहब जी ने भी सशक्तों को समझाने की कोशिश की कि -
निर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मरी खाल की सांस से, लोह भसम हो जाय।
इन बातों से ये पता चलता है कि अन्याय-अत्याचार की बीमारी युगों पुरानी है और सदैव दीन-दुर्बल लोग ही इससे पीड़ित रहे। धर्म की शरण में भी उन्हें ही जाना पड़ता था। और वो सारा जीवन इसी उम्मीद में बिता देते थे कि भगवान के रजिस्टर में कर्मों का लेखा दर्ज़ हो रहा है। समय आने पर अन्यायी-आततायी का हिसाब होगा। और इस नहीं तो अगले जन्मों में सत्य और न्याय की स्थापना होगी। पोएटिक जस्टिस। इस विश्वास को ही जीवन का सम्बल बना के बहुत लोग इस भवसागर को तर गये। समय के साथ वैज्ञानिक सोच और समझ विकसित हुयी। लोगों को लगा ये शक्तिशाली लोग धर्म-धन-बल का दुरुपयोग करके बाकि लोगों को नारकीय जीवन जीने को विवश कर देते हैं। आज ज़िन्दगी भी फ़ास्ट फ़ूड की तरह हो गयी है। सब्र का फैक्टर गायब है। इसी जीवन में सबको सब कुछ चाहिये। अगले जन्म की कोई क्यों सोचे। सोते हुये लोगों को दिन-रात जगाने का प्रयत्न ही कुछ लोगों का पूर्णकालिक व्यवसाय बन गया है। इस प्रक्रिया में माल भी कमा लिया तो हर्ज़ क्या है। हम नहीं करेंगे तो दूसरे उनका शोषण कर डालेंगे तो फिर हम ही ये नेक काम क्यों न करें। शोषित-पीड़ित लोगों को न्याय दिलाने में कितनी सरकारें आईं और चली गईं। जिन्हें न्यायपालिका से उम्मीद थी वो तारीखों के चक्कर में पड़ गये, और जिन्हें नहीं थी वो बाबाओं के। हर किसी के जीवन का एक मक़सद तो होना ही चाहिये। इन दोनों ही चक्करों में घर-जमीन-जायदाद का बिक जाना कोई अजूबा नहीं है। न्याय सिद्धांततः जितना सरल है उसका व्याकरण उतना ही कठिन। विधि की मोटी-मोटी किताबों में न्याय का कहीं ग़ुम हो जाना बड़ी बात नहीं लगती। ये बात समझ से परे है कि बड़े और छोटे वकील के होने से न्याय बदल कैसे सकता है। पैसे वाले और ग़रीब के न्याय में अंतर क्यों। आम आदमी सही होकर भी पैसे के अभाव में जेल में जीवन काट दे और अमरुद आदमी गुनाह करके भी बेल पर बाहर खुली हवा का मज़ा लूटे।
वकील और जजों की संख्या बढ़ाना शायद समस्या का समाधान नहीं है। समाधान है सक्षम और सशक्त लोगों को अन्याय करने से रोकना। कार्यपालिका को अधिक संवेदनशील और ज़िम्मेदार बनाने से आम इन्सान के असंतोष में भी कमी अवश्य आयेगी। लचर कानून-व्यवस्था बढ़ते हुये मुकदमों के लिए कुछ हद तक ज़िम्मेदार है। एक व्यक्ति पडोसी की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेता है। न्यायपालिका की भूमिका तो बहुत बाद में आती है। उससे जुड़े सारे विभागों और अफसरों से निराश होने के बाद ही कोई न्यायालय का द्वार खटखटाता है। सरकारी नौकरी में तो और फजीहत है। एक भ्रष्ट अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारी का प्रमोशन रोक देता है और तुर्रा ये कि हम सरकार हैं। जाओ कोर्ट, मेरी लड़ाई का खर्च तो विभाग वहन करेगा। चार पेशी में पतलून सरक जायेगी। पुलिस एफआईआर लिखने में कोताही करती है, तफ्तीश में ढिलाई बरतती है, और बलात्कारी चौड़ा हो के घूमता है। या तो पीड़ित आत्महत्या कर ले या न्यायालय की शरण में जाये। क़ानून अपने हाथ में लेने का माद्दा उसमें होता तो शायद अन्यायी-आततायी लोगों में कुछ खौफ होता। गुंडे-मवालियों की संख्या में निश्चय कमी आती। दुबई में एक मित्र ज्वैलरी खरीद रहे थे। नमाज़ का समय हो गया था। दुकानदार ने कहा - आप लोग रुकिये मैं नमाज़ पढ़ के आता हूँ। मित्र ने कौतुहल से पूछा - यदि मैं कुछ सामान पार कर दूँ तो। दूकानदार मुस्कराया, बोला - कर के देख लीजिये। और वो नमाज़ पढ़ने चला गया। उसे मालूम है कि चोर को २४ घण्टे में सज़ा मिल जायेगी। धर्म-भीरु समाज में कभी लोगों को डर था कि भगवान देख रहा है। आज सीसीटीवी फुटेज को बड़े आराम से डॉक्टर्ड बता कर दसियों साल मुकदमें में निकले जा सकते हैं। न्याय प्रणाली सम्भवतः भ्रष्टाचारियों-अन्यायियों में वो ख़ौफ़ पैदा करने में अक्षम रही है कि सक्षम-शक्तिशाली अन्याय करने से पहले दस बार सोचे की इसका अंजाम क्या होगा। ये समय किसी दूसरे में दोष खोजने का नहीं है। ये समय है आत्मनिरीक्षण का। कम से कम हम स्वयं किसी पर अन्याय ना करें। व्यक्तिगत आकांक्षाओं के कारण यदि न्याय का साथ न दे सकें तो कम से कम अन्यायी का तिरस्कार तो करें। समय है कार्यपालिका को और जवाबदेह बनने की ताकि अन्याय न हो और यदाकदा अन्जाने में अन्याय हो भी जाए तो निष्पक्ष न्याय एक मिसाल बने, नज़ीर बने। इसके बिना अगर मुकदमें बढ़ते जाएँ तो यक़ीन मानिये दुनिया के सारे जज और सारी अदालतें मिल कर भी निरन्तर बढ़ते लम्बित मुकदमों को निपटा पायेंगी संभव नहीं है।
ये सब लिखना शायद बहुत आसान है और कर पाना मुश्किल। किन्तु किसी उच्चपदस्थ व्यक्ति के आंसुओं ने देश को झकझोरा तो। ऐसे संवेदनशील और भावुक हृदय को हृदय से प्रणाम।
- वाणभट्ट