गुरुवार, 24 मार्च 2016

पूर्णाहुति

पूर्णाहुति 


पंडित जी तैयारी में लगे ही थे जब लोगों ने आना शुरू कर  दिया। अमूमन हम लोग समय के पाबंद कम होते हैं। और यही उम्मीद पण्डित जी से भी थी। लेकिन आर्य समाजी पंडित नियत समय से ठीक पांच मिनट पहले पहुँच गए। समय बदल भी गया है। पहले परिवार के लोग किसी के अंतिम कार्य में आते थे तो दसवाँ-तेरही निपटा के ही जाते थे। आशय सम्भवतः शोक-संतप्त परिवार को हुयी क्षति के दुःख को कम करना रहा होगा। लेकिन आज न तो घर वालों के पास समय है न बाहर वालों के पास। सनातनी कर्म-काण्ड की जटिलता के कारण भी आर्य-समाजी या गायत्री पद्यति का प्रचलन बढ़ा है। शादी-विवाह में मामला लेन-देन, शुभ-अशुभ का होता है इसलिए कितने ही असहज सनातनी रीति-रिवाज़ों का पालन लोग ख़ुशी-ख़ुशी करने को तैयार हो जाते हैं। शायद इसी सुविधा का नाम हमारा उदार धर्म है। जिसकी मर्ज़ी, जैसी इच्छा तोड़ लो, मरोड़ लो, लेकिन धर्म शाश्वत सत्य की तरह न बदलता है न बिगड़ता है। आजकल की आम बोलचाल की भाषा में इसे सहिष्णुता भी कह सकते हैं। सब लोग अपने-अपने काम-धंधे पर शीघ्र पहुँच सकें इसलिए तीन दिन बाद शांति-पाठ कर लेना आज सुविधा से ज़्यादा आवश्यकता बन गया है। ऐसा नहीं है कि दिवंगत आत्मा के प्रति कोई असम्मान या अनादर की बात है। बस सबका रोना है समय का न होना। 

"जो लोग बाहर बैठे पॉलिटिक्स बतिया रहे हैं उन्हें भीतर बुला लीजिए। ताकि उन्हें मालूम हो कि शांति पाठ में आये हैं, सतनारायण बाबा की कथा में नहीं।" पंडित जी की आवाज़ में न तो व्यंग का भाव था, न ही कोई तल्खी। बस बात कह दी। अंदर जगह कम थी लेकिन किसी तरह फंस-फंसा के लोग बैठ गये। पंडित जी ने शांति-पाठ आरम्भ कर दिया। मृत आत्मा की शांति के श्लोकों के साथ ही साथ मर्त्यलोक में इस पाठ को सुनने वाले हम लोगों के लिए भी सन्देश देते रहे। 

इस धरती पर सबसे बड़ा भाग्य है मनुष्य के रूप में हमारा जन्म। हमें जन्म देने वाला ईश्वर सब जगह विद्यमान है। सब जानता है। सब देख रहा है। हमारे सभी कर्मों का लेखा-जोखा रखना उसका ही काम है। कर्म का नियम भी न्यारा है। कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता है हम को। हम ज्ञान और विवेक से संपन्न हैं। क्या करणीय है और क्या अकरणीय ये भगवान की आवाज़, हमारी अंतरात्मा, हमें बताती रहती है, हमें सचेत करती रहती है। किन्तु माया का प्रभाव ऐसा है कि मनुष्य का भ्रमित हो जाना हर पल संभव है। यहीं पर विवेक काम आता है। हम एक मुक्त आत्मा हैं। पूर्णतः स्वतन्त्र। लेकिन केवल कर्म करने तक। कर्म का फल भोगने के लिए स्वतन्त्र नहीं हैं। कर्मफल सदैव कर्म के पीछे-पीछे चलता है और अवश्य फलीभूत होता है। हम उसे चाहें या न चाहें। जीवन की परिस्थितियां एक प्रश्नपत्र की तरह हैं। भगवान एक निरीक्षक के रूप में हमारे आस-पास उपस्थित है। वो हमारी कॉपी (मस्तिष्क के विचारों) में झाँक के देख भी सकता है। लेकिन हम सही लिख रहे हैं या गलत बोलता नहीं है। लेकिन जब वो उत्तर पुस्तिका जांचने बैठता है तो सही उत्तर को सही और गलत उत्तर को गलत मानता है। ईश्वर के न्याय में अंक नहीं मिलते कि दस प्रश्नों में छः सही और चार गलत तो ६०% अंक आ गये। यहाँ सब के सब सिर्फ पास होते हैं सारा सही करने वाला भी और सारा गलत करने वाला भी। सही काम का सही फल और गलत का गलत फल मिलता है। धर्मराज युधिष्ठिर ने सदैव धर्म और मर्यादा का पालन किया जिस कारण वो सशरीर स्वर्ग पहुँचने के अधिकारी भी बने। किन्तु एक झूठ के कारण वो नर्क से हो कर ही स्वर्ग पहुँच सके। समापन हवन से होना था।  

धीरे-धीरे धुआँ कमरे में बढ़ रहा था। धुआँ आँखों के रास्ते मस्तिष्क पर छाता जा रहा था। जब तक पूर्णाहुति होती दिल और दिमाग में हर तरफ धुंध थी। कुछ भी सुनाई और दिखाई नहीं दे रहा था। नहीं, सुनाई और दिखाई दे रहा था, पर समझ नहीं आ रहा था। यही माया है। सब भुला देती है। अच्छा भी और बुरा भी। 

प्रसाद वितरण के साथ लोगों को राजनीति पर विचार-विमर्श का मौका मिल गया था। अब सब स्वतन्त्र थे। पूर्णाहुति जो हो चुकी थी।

- वाणभट्ट     

5 टिप्‍पणियां:

  1. वाह क्या बात है ... वाई पुराना अंदाज़ है आपका ...

    जवाब देंहटाएं
  2. अन्तरात्मा के वश में रहकर कर्म करने से ही स्वर्ग का मार्ग दिखता है.ये सच है की सत्यनारायण की कथा में पंचायत ही चलती है.

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी अवलोकन क्षमता और लेखनी सशक्त है।पूर्णाहुति के अंतर्गत सभी भावों और दृश्यों को सटीक उकेरा।पंडितजी का कथन करारा प्रहार है।किसी भी धार्मिक आयोजन में अथवा शांतिपाठ में लोगो का व्यवहार ऐसा ही रहता है।एक संवेदनशील व्यक्तित्व ही ऐसा लेख प्रस्तुत कर सकता है।🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  4. बद्री दत्त मिश्र, रायबरेली23 मार्च 2024 को 9:23 pm बजे

    बेहतरीन ऑब्जरवेशन। असल में संवेदनहीन होते हुए समाज का इससे बेहतर अंकन नहीं किया जा सकता। प्रसून भाई ,असल में सारी समस्या हमारे तत्कालिकता में छुपी हुई है । हम तात्कालिक रूप से उपस्थित होना चाहते हैं, तात्कालिक रूप से कुछ काम करना चाहते हैं, यहां तक की दुख भी तात्कालिक रूप से व्यक्त करते हैं । और फिर सब कुछ भूल जाते हैं। इस तत्कालिकता में जो हमारे बीच के सहज और सामान्य रिश्ते कभी हुआ करते थे, वह अब खत्म से हो गए हैं । शायद मूल समस्या यही पर है। आंखों में अगर धुआं उतरता है तो यह उसी का सबब है।

    जवाब देंहटाएं

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म य...