शनिवार, 12 दिसंबर 2015

दृष्टिकोण

दृष्टिकोण

समय के साथ-साथ दृष्टिकोण भी बदलता जाता है। कृषि शोध में पिछले २० साल व्यतीत करने के बाद लगता है हमारी स्थिति अंधों के हाथी जैसी हो रखी है। जिसकी पकड़ में जो आया उसी के आधार पर निष्कर्ष निकालने लग गया। ज़िन्दगी जो भी है, जितनी भी है, वो सीधी और सरल है। विज्ञान का काम है इस सरलता में व्याप्त गहन जटिलता को समझना-समझाना। और ज्ञान जितना सहज होगा उतना ही व्यापक होगा। न सिर्फ देश काल में अपितु धरती पर उपस्थित विभिन्न प्राणियों के लिये भी। जीवन का मूल आधार है उत्पत्ति, संतति एवं समाप्ति। ये बात सभी जीवों पर सामान रूप से लागू होती है। भीतर-बाहर भले कितनी ही गूढ़ रसायनिक-भौतिक-जैविक क्रियायें-प्रक्रियायें चल रहीं हों, किन्तु प्रत्यक्ष रूप से सारी गतिविधियाँ सुव्यवस्थित तरीके से चलती रहती हैं। चाहे वो अंतरिक्ष में स्थित खरबों आकाशगंगाओं की गति हो या परमाणु में अवस्थित इलेक्ट्रोन-प्रोटोन की स्थिति। ब्रम्हांड की इसी सुचारू कार्यप्रणाली को समझने का नाम विज्ञान है। विज्ञान का शाब्दिक अर्थ है अवलोकन और प्रयोग के माध्यम से प्राकृतिक दुनिया के व्यवहार का व्यवस्थित अध्ययन। देश और विदेशों में अवस्थित हमारे पूर्ववर्ती ऋषियों-मनीषियों (वैज्ञानिकों) ने प्रकृति के विभिन्न पक्षों का गहन अध्ययन किया। उनके अनुभवों-अवलोकनों-गणनाओं  के आधार पर ही हम आज विज्ञान का उन्नत रूप देख पा रहे हैं। विज्ञान ने समस्त जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने में अमूल्य योगदान दिया है। विज्ञान से प्राप्त ज्ञान की सहायता से विकसित उपकरणों और तकनीकों ने मनुष्य का जीवन बेहद सहज और सरल बना दिया है। वर्तमान में विज्ञान प्रदत्त सुविधाओं के बिना जीवन की कल्पना कर पाना असंभव सा लगता है। समय के साथ-साथ विज्ञान की अनेक शाखायें, उपशाखायें और उपशाखाओं की भी उपशाखाओं का आविर्भाव होता गया। और बहुत संभव है, यहीं हमारी सोच संकीर्ण से संकीर्णतर होती चली गयी। समग्र रूप से जीवन को देख पाने की विलक्षण क्षमता का ह्रास सर्वत्र प्रत्यक्ष दिखाई देता है।

व्यवहारिक विज्ञान ने जीवन की दुरुहताओं को कम करने में एक अहम् भूमिका निभाई है। अकेले एडिसन साहब ने हज़ार से अधिक उत्पादों का पेटेंट करा रखा था। जिसमें टेलीग्राफ, टेलीफोन, ग्रामोफोन, इलेक्ट्रिक बल्ब, मोटर, डायनमो, इलेक्ट्रिक मीटर, पावर डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम जैसे अनेक अविष्कार सम्मिलित हैं, जो आज भी उपयोग में लाये जा रहे हैं। रूडोल्फ डीज़ल ने इंजिन की अवधारणा को मूर्त रूप दिया। कम्प्यूटर, मोबाइल, सूचना प्रौद्योगिकी वर्तमान जगत के कुछ ऐसे अविष्कार हैं जिन्होंने जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में क्रांति का सूत्र-पात किया। वास्तव में आम मानव के लिए विज्ञान का उपयोगकारी और व्यावहारिक रूप ही महत्वपूर्ण है। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने सदैव मौलिक शोध को ही श्रेष्ठतर माना। जीवन में मौलिक विज्ञान का महत्त्व कमतर नहीं आँका जा सकता, लेकिन जब तक उस ज्ञान का व्यवहारिक पक्ष मजबूत न हो, वह ज्ञान वैज्ञानिक शोध पत्रों, विवेचनाओं और समीक्षाओं तक ही सीमित रह जाता है। यहाँ अभिप्राय मौलिक या व्यवहारिक शोध की श्रेष्ठता सिद्ध करना नहीं है। लेकिन समय के साथ मौलिक विज्ञान स्वान्तः सुखाय का पर्याय भी बनता गया। यदि शोध का कोई प्रायोगिक उपयोग नहीं हो पा रहा है तो ये एक विचारणीय प्रश्न है। अधिकांशतः मौलिक और व्यावहारिक शोधकर्ताओं के बीच आपसी सामंजस्य का सर्वथा अभाव पाया जाता है। मौलिक शोध आध्यात्मिक खोज की तरह रहस्यमय बनी रहती है और कदाचित इसी कारण अधिक सराहना पाती है। गुणवत्तायुक्त शोध पत्रों का प्रकाशन मौलिक शोध का एक दूसरा उजला पक्ष है। लेकिन आज जिस तरह परिणाम आधारित शोध की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है, समय की माँग का आंकलन करते हुये, आवश्यक है कि व्यवहारिक और मौलिक शोधकर्ता वैसे ही काम करें जैसे दस्ताने में हाथ या शरीर में आत्मा। 

व्यवहारिक और मौलिक विज्ञान की तुलनात्मक श्रेष्ठता से कृषि शोध भी अछूता नहीं रह गया है। मौलिक शोध के प्रभाव और प्रभुत्व निकट भूत में अतुलनीय रूप से बढ़ा है। इस प्रक्रिया में कृषि शोध दशा और दिशा दोनों ही बदल सी गयी है। बायोटेक्नोलॉजी, मॉलिक्यूलर बायोलॉजी, जेनेटिक्स तथा साइटोजेनेटिक्स आदि क्षेत्रों के आ जाने से कृषि शोध के पारम्परिक क्षेत्रों की ओर रुझान कम हुआ है। इन मौलिक क्षेत्रों का अब पारम्परिक कृषि शोधों के पुष्टिकरण के लिए भी बहुतायत से प्रयोग हो रहा है। यह एक स्वागत योग्य चलन है। किन्तु मौलिक अध्ययन का यथोचित उपयोग अभी भी व्यवहारिकता की तार्किक कसौटी पर परखा जाना बाकी है। किसी भी एक क्षेत्र को अत्यधिक महत्त्व देने से विकास की संतुलित प्रगति पर प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। विज्ञान का एक वर्ग मात्र समस्याओं को चिन्हित करने और विशिष्ट रूप से दर्शाने में व्यस्त है। समाधान के लिये वर्षों से जाँचे-परखे नियमों को किनारे कर के नवीन प्रविधियों के ऊपर अतिविश्वास ने एक संशय की स्थिति उत्पन्न कर दी है। जलवायु परिवर्तन, रोगाणु-कीटाणु, सूखा-बाढ़, कीट-पतंगे इत्यादि समस्याओं से निपटने के लिये निरन्तर शोध चल रहे हैं। नयी प्रविधियों के आविर्भाव से पारम्परिक तरीकों को वैज्ञानिक पुष्टि के रूप में नयी तकनीकों का उपयोग वर्तमान कृषि विज्ञान की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। लेकिन विगत वर्षों में नवीन पद्यतिओं का वर्चस्व असामान्य रूप से बढ़ा है। इस प्रक्रिया में पारम्परिक शोध की प्रणालियाँ शीघ्रता से अप्रचलित होती जा रहीं हैं। पारम्परिक फसल सुधार, सुरक्षा और उत्पादन शोध पद्यतियाँ आज पार्श्व में चली गयीं हैं। कभी-कभी लगता है कि शोध के प्रति अतिउत्साह ने उपलब्धियों की विविधता तो उत्पन्न कर दीं किन्तु उन्हें समेकित करने में पूर्णतः विफल रहा। परिणामस्वरुप गर्मी-ठण्ड-सूखा-बाढ़-कीट-जीवाणु प्रतिरोधी प्रजातियों का विकास तो बहुतायत से हो गया किन्तु एक ही प्रजाति में सभी गुणों का समावेश होना अभी भी दूर की कौड़ी लगता है। प्रयास निश्चय ही सराहनीय हैं परन्तु उनका वांछित परिणाम मिलना अभी बाकि है।

इन परिस्थितियों में व्यवहारिक शोध के माध्यम से ही देश-समाज की आवश्यकता-समस्या का निराकरण संभव है। कितना भी उन्नत शोध हो किन्तु यदि वह देश की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं की परीक्षा में यदि सफल नहीं होता है, तो सारा प्रयास व्यर्थ प्रतीत होता है। भूत और वर्तमान में अधिकतम प्रयास प्रजातियों के विकास पर ही रहा है। समस्त कृषि शोध वर्षों से वातावरण की विषमताओं के प्रति सहिष्णु और कीट-रोग रोधी प्रजातियों का विकास ही केन्द्रित रहा है। परिणाम के रूप में प्रत्येक फसल में विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के लिये अनेकानेक प्रजातियों और तकनीकों का विकास। व्यवहारिक शोध की आवश्यकता इसलिए और बढ़ जाती है कि प्रकृति, वातावरण, जैविक और अजैविक स्थितियाँ मानव के नियन्त्रण में कभी नहीं रहीं। परिस्थितियों को बदलने की अपेक्षा उपलब्ध परिस्थितियों और समस्याओं के साथ अधिकतम सम्भव उपज लेने में फसल प्रबन्धन मुख्य भूमिका निभा सकता है। सबसे पहले तो मृदा में पोषक तत्व और महत्वपूर्ण फसल चरणों पर पानी की सुनिश्चित उपलब्धता अति आवश्यक है। किसी भी उद्योग में उचित कच्चे माल की समयोचित उपलब्धता ही उद्योग की सफलता सुनिश्चित करती है किन्तु कृषि एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें बीज-खाद-पानी कुछ भी समय पर नहीं मिल पाता। इस स्थिति में व्यावसायिक या लाभदायक खेती के सभी सम्भावनायें बेमानी सी लगती हैं। सिर्फ उन्नत प्रजातियों के आधार पर ये लड़ाई कहाँ तक सफल होगी ये कल्पना से परे है। उन्नत से उन्नत प्रजाति को उचित समय पर खाद-पानी की आवश्यकता होगी, जब ये मान लिया जाये की बीज की उपलब्धता में कोई संशय नहीं है। लेकिन स्थितियाँ एकदम विपरीत हैं। प्रत्येक कृषि-जलवायु के लिये विकसित प्रजातियों की संख्या इतनी अधिक है कि उनका बीज उत्पादन और उपलब्धता अपने आप में एक बड़ी चुनौती हैं। बीजों की समुचित उपलब्धता न होने के कारण कृषक के पास प्रजाति चयन के विकल्प भी सीमित रह जाते हैं। 

व्यवहारिक कृषि में मृदा और जल संरक्षण और उपलब्धता की अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। किसी भी प्रकार से लाभदायक कृषि का पहला लक्ष्य भूमि को बारम्बार, प्रत्येक फसल के बाद कृषि योग्य बनाये रहने का होना चाहिये। 'सुबीजम् सुक्षेत्रे जायते'। बहुधा इसका अर्थ 'अच्छा बीज अच्छे क्षेत्र में ही जन्म लेता है' माना गया है। किन्तु संस्कृत में शब्दों के स्थान परिवर्तन से अधिक अन्तर नहीं पड़ता। इसलिए इसे 'सुक्षेत्रे सुबीजम् जायते' भी लिखा जा सकता है। अर्थात 'अच्छी भूमि में ही अच्छे बीज का जन्म होता है'। यानि हमारे विद्वतजनों ने भूमि और बीज की बराबर महत्ता आँकी थी। किन्तु कालान्तर में कृषि विज्ञान ने बीज की श्रेष्ठता को स्वीकार कर लिया। सम्भवतः भूमि और वातावरण को नियन्त्रित करने की अपेक्षा विभिन्न परिस्थितियों में नयी प्रजातियों का विकास और चयन की सहजता के कारण विद्वानों ने बीज की प्रधानता पर बल दिया हो। व्यवहारिक कृषि में सम्मिलित सभी अवयवों का बराबर योगदान है। लेकिन सर्वप्रथम है भूमि की गुणवत्ता और विशेष चरणों में जल की उपलब्धता। 

वर्तमान परिदृश्य में कृषि का विचलित कर देने वाला स्वरुप सामने आया है। उत्पादन-उत्पादकता बढ़ने के बाद भी कृषकों की दशा शोचनीय बनी हुई है। कृषि में लागत के अनुपात में लाभ निरन्तर घटता जा रहा है इस कारण किसान और विशेषरूप से नयी पीढ़ी का खेती से मोहभंग होता जा रहा है। चूँकि वर्तमान कृषि शोध विभिन्न शाखाओं और उपशाखाओं में इस कदर बँट गया है कि उसे समेटना दुरूह होता जा रहा है। विज्ञान चाहे कितना भी जटिल हो, जीवन सदैव सरल और सहज ही होता है। उचित आहार से पोषित स्वस्थ बच्चे में बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है, यही बात वनस्पतियों के लिए भी लागू होनी चाहिये। स्वस्थ बच्चा भी बीमारियों से बच नहीं सकता यदि उचित पोषण समय पर न मिले। यहाँ गौर करने वाली बात ये है कि जिन वनस्पतियों और जीवों के सुधार पर कोई शोध नहीं हो रहा है, वो दिन पर दिन और सशक्त होते जा रहे हैं। चाहे वो खर-पतवार हों या कीट-पतंगे। सम्भवतः त्वरित विकास की अपेक्षा क्रमिक विकास अधिक स्थाई और ग्रहणीय है। 

निरंतर बढ़ती जनसंख्या की लिए भोजन की उपलब्धता बढ़ाने के लिये सम्भवतः मौलिक शोध त्वरित योगदान देने में सक्षम न हो, किन्तु शोध की व्यापक स्वीकार्यता, लाभप्रदता और कृषि के विकास के लिये मौलिक और व्यवहारिक शोध का समन्वयन वर्तमान भारतीय कृषि की महती आवश्यकता है।  


- वाणभट्ट  

आईने में वो

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