किम्वदन्ती
कानपुर से लखनऊ बीच एमएसटी करते-करते तक़रीबन साल भर हो गए हैं। कार्यक्षेत्र के इतर रोज़ नए लोगों के जीवन में झाँकना एक सुखद एहसास है। एमएसटी करने वालों की एक अलग दुनिया है। सारी यारी ट्रेन तक सीमित। ट्रेन से उतरने के बाद सभी को अपने-अपने गन्तव्य की ओर बेतहाशा भागते देखा जा सकता है। सुबह ऑफिस को देर हो रही होती है तो शाम को टेम्पो फुल हो जाने का खतरा रहता है। इस ग्रुप ने मेरे ईको पार्क के मॉर्निंग वॉकर्स ग्रुप की कमी को कुछ हद तक पूरा कर दिया है। अब सारा टहलना सुबह-शाम ट्रेन पकड़ने तक ही सीमित है। हर वैरायटी के लोगों का अलग और चुनिन्दा ग्रुप है। ताश वालों का अलग, खैनी वालों का अलग और शौक़ीन लोगों का अलग। इसमें कुछ ऐसे लोग भी हैं जो सबसे अलग हैं। अकेले चलते हैं। यही विशिष्टता उनकी पहचान बन जाती है।
ऐसे ही एक शख़्स हैं शर्मा जी। चलती-फिरती किम्वदन्ति। जाड़ा-गर्मी-बरसात क्रीम कलर की हाफ़ शर्ट और डार्क ब्राउन कलर की पैंट। शायद उनकी कम्पनी का ड्रेस कोड हो। सर पर बाल कुछ कम हैं, जिनकी कमी पूरा करती गुलज़ार स्टाइल की दाढ़ी। चेहरे को देख के ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण संरक्षण का ध्यान अनायास आ जाता है। हाथ में मुस्तैदी से टंगा ब्रीफकेस। चाल-ढाल में गज़ब का फुर्तीलापन। एमएसटी का लम्बा अनुभव जो एक दशक से ऊपर ही रहा होगा। लेकिन इतनी भीड़ में भी एकदम अकेला नज़र आने वाला व्यक्ति। न कोई संगी न कोई साथी। चेहरे पर संजीदगी। सबसे अलग,सबसे जुदा है उनकी शैली।
पहली बार उनके दर्शन कड़कड़ाती ठण्ड में हुये। पिछले पैराग्राफ में आपने सही पढ़ा था "जाड़ा-गर्मी-बरसात क्रीम कलर की हाफ़ शर्ट और डार्क ब्राउन कलर की पैंट"। अधिकांश लोग सर्द हवाओं से सिसिया रहे थे। हम सभी टोप-कनटोप लगाये, दस्तानों और मफलर के सहारे जैकेट में घुसती सर्द हवा को रोकने का प्रयत्न कर रहे थे। जब मेरी उन पर नज़र पड़ी। हाथ में ब्रीफकेस लिये एकदम सीधे खड़े व्यक्ति को नज़रअंदाज़ कर पाना असंभव था। मैंने अपने मित्र लोहानी जी, जो हमारे ग्रूप में एमएसटी करने वाले सबसे वरिष्ठ सदस्य हैं, से पूछा भाई ये आइटम क्या है। उन्होंने शर्मा जी के बारे में उतना ही बताया जितना मै पहले बता चुका हूँ। पता नहीं क्यों मुझे कॉमिक्स में पढ़े फैन्टम का ख्याल आ गया। वो भी तो सिर्फ स्किन टाइट कपड़े पहनता था। सम्भव है ये व्यक्ति भी फैन्टम की तरह ही एक किंवदंती न हो।
स्टेशन पर लगभग हर ग्रूप के इकठ्ठा होने का एक अड्डा होता है। अकेले आदमी को ट्रेस कर पाना संभव भी नहीं है इतनी भीड़ में। मेरे लेखक की जिज्ञासा शर्मा जी में जग चुकी थी। लेकिन कभी मुलाकात का मौका नहीं मिल पा रहा था। एक दिन मौका मिल गया। गर्मी बहुत थी उस दिन। जब लखनऊ से लौटते समय मैंने देखा शर्मा जी के बगल की सीट खाली है। मै कई अन्य खाली सीटों को छोड़ता हुआ उनके बगल वाली सीट पर लपक के काबिज हो गया। बात छेड़ने की ग़रज़ से मैंने कुछ बातें शुरू कीं। तब पता चला वो अत्यंत अल्पभाषी भी हैं। हूँ-हाँ से बखूबी काम चला गये। उनके बारे में जानने की मेरी जिज्ञासा और तमन्ना धरी की धरी रह गयी। अमूमन हम हिन्दुस्तानियों को अपने बारे में दिल खोल के बातें करना पसन्द है। बात करने के मुद्दे हों या न हों, किन्तु रास्ते भर पडोसी के इंटरटेनमेंट का पूरा ख्याल रखा जाता है। अगर ट्रेन ज़्यादा लेट हो गयी तो आप सुबह के नाश्ते में क्या खाया था और रात डिनर में क्या खाने वाले हैं जैसी महत्वपूर्ण जानकारियाँ भी हासिल कर सकते हैं। लेकिन यहाँ दाल गलती नहीं दिख रही थी।
चलने से पहले धीरे-धीरे कोच भर गया। दो की सीट पर तीन और तीन पर चार लोगों का बैठना तो मानक है। चार से ऊपर यदि किसी ने अटकने की कोशिश की नॉन एमएसटी वाले आपत्ति करने लगते हैं। हवाबाज टाइप के नौजवान गेट पर ही खड़े रहना पसंद करते। खड़े रहने के अपने फायदे हैं पूरे कोच में आप आगे से पीछे तक सब पर नज़र रख सकते हैं। ये बात अलग है कि कुछ लोग उन्हें शोहदे या लफंगे या लुच्चे समझने की गुस्ताखी कर सकते हैं। लेकिन यहाँ मेरे विचार 'जाकी रही भावना जैसी' टाइप की है। तो जनाब खुशकिस्मती से उस दिन हमारी सीट पर किसी चौथे आदमी का पदार्पण नहीं हुआ। ऐसा कम होता है जिस दिन ठीक से बैठने को मिले।
अब तीन लोगों की सीट पर खिड़की की तरफ एक अनजान आदमी था, उसके बगल में शर्मा जी और उनके बगल में मै यानि वर्मा जी और मेरे बगल में गलियारा। बात बनती न देख कर मै अपने स्मार्ट फ़ोन में घुस गया। उन्नाव आने पर सवारियों का एक रेला अंदर आ गया। एक महिला जिन्हें किस भी लिहाज़ से वृद्ध नहीं कहा जा सकता था, मेरे बगल में आ कर खड़ी हो गयीं। उन्हें अनदेखा कर के मै अपने फ़ोन में और अंदर उत्तर गया। एकाएक शर्मा जी उठ के खड़े हो गये अपनी सीट उन महिला को ऑफर कर दी। शर्माने की बारी अब मेरी थी। झेंप मिटाते हुये मैंने कहा शर्मा जी आप बैठिये मै खड़ा हो जाता हूँ। वो बस मुस्करा के रह गये। मुझे लगा किम्वदन्तियाँ ऐसे ही नहीं बन जातीं।
- वाणभट्ट