सोमवार, 18 अगस्त 2014

कृष्ण चेतना से

कृष्ण चेतना से 

शरशय्या पर लेटे लेटे पितामह मुस्करा रहे थे। दर्द असह्य था। किन्तु अनायास मुस्कराहट का आ जाना अकारण नहीं हो सकता। कृष्ण ने इसे भाँप लिया। बोले पितामह इस कष्ट साध्य स्थिति में कोई विलक्षण व्यक्ति ही आनन्दित हो सकता है। क्या मै आपके आनन्द का कारण पूछ सकता हूँ। 

पितामह ने गम्भीर होने का प्रयास किया किन्तु बरबस हँसी छूट गयी। बोले कृष्ण तुमसे क्या छिपा है। तुम्हारी माया तुम ही जानो। पर एक बात बताओ पाण्डव जिन्होंने सम्पूर्ण जीवन धर्म और धर्म की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया, उनके जीवन में कभी कष्टों का अन्त नहीं हुआ। जबकि तुम सदैव उनके साथ रहे हो। और कौरव जो अन्याय और अधर्म में जीवनपर्यन्त लगे रहे, उनका अधिकांश जीवन सुख और वैभव में बीता। किसे लाभ हुआ और किसे हानि इसी का आँकलन कर के मै मुस्करा रहा था।

कृष्ण अपनी चिरपरिचित शैली में मुस्कराये। पितामह प्रभु ने मनुष्य को धर्म-अधर्म के आँकलन का अधिकार नहीं दिया है। ये अधिकार उसके पास सुरक्षित है। और मनुष्य है कि न्यायधीश बना फिरता है। हर काल में द्वैत रहा है। धर्म की स्थापना के लिये अधर्म आवश्यक है अन्यथा धर्म अपना अर्थ खो देता। दुःख के बिना सुख का अस्तित्व क्या रह जायेगा। और भगवान भी आदमी की तरह ही स्वार्थी होते हैं वो चाहते हैं कि मनुष्य उनकी बनायीं सृष्टि के लिए उन्हें स्मरण करता रहे किन्तु मनुष्य है कि सुख आते ही सबसे पहले प्रभु को भूल जाता है। सफलता का सारा श्रेय तो स्वयं लेने लगता है। और असफलता प्रभु के ऊपर थोप देता है। 

इस सृष्टि का प्रत्येक अवयव प्रभु की एक सर्वोत्कृष्ठ रचना है। यदि मनुष्य को कोई छोटा सा उपहार देता है तो वो धन्यवाद ज्ञापित करना नहीं भूलता। और प्रभु मानव को जितने अमूल्य उपहार सहज रूप से उपलब्ध करा दिए हैं उसके लिए धन्यवाद प्रेषित करने का उसके पास समय नहीं है। इसलिए प्रभु को सुख-दुःख का चक्र चलाना पड़ता है। वैसे भी ई सी जी यन्त्र में कौन सीधी लाइन देखना चाहता है। जब तक रेखा ऊपर-नीचे हो रही है जीवन चल रहा है। पितामह ने कन्फूज़ हो कर पूछा - ये ई सी जी यन्त्र क्या है। पितामह इसे जानने के लिए आपको कलियुग में पुनः धरती पर आना पड़ेगा। आप बस ये समझ लीजिये कि इसके द्वारा आपकी नाड़ी की गतिविधि को चित्रित किया जा सकेगा। इसलिये धर्म-अधर्म दोनों प्रभु की ही रचना है। इसका संतुलन बनाये रखना उनका काम है। जो हो रहा है सही हो रहा है और जो होगा सही ही होगा। इस पूर्णरूपेण आदर्श स्थिति में परिवर्तन की सम्भावना नहीं है।

विपरीत परिस्थियों में भी जो धर्म का साथ न छोड़े, वो सदैव मुझे अपने साथ पायेगा। 

- वाणभट्ट 

रविवार, 10 अगस्त 2014

गंगा सेवा

गंगा सेवा


पण्डित दीना नाथ मिश्र गंगा मइया की ओर गहन चिन्तन में डूबे निहार रहे थे। पीछे से आती जलते माँस की तीक्ष्ण गन्ध उन्हें विचलित कर रही थी। ऐसा नहीं था कि उनका श्मशान आना पहली बार हुआ हो। कई बार वो पहले भी इस भूमि पर आ चुके थे। यहाँ आ कर ही आत्म-ज्ञान मिला जीवन की क्षण-भंगुरता का, संसार की निस्सारता का, शरीर की नश्वरता का। पर आज मन कुछ ज्यादा उद्विग्न था।

पहली बार उनका क्रिया में आना अपने बाबा की मृत्यु के कारण हुआ। अपने पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़े दीना नाथ जी जन्म वाराणसी के असी घाट के पण्डित रामाधार मिश्र के यहाँ हुआ। उनके पिता और बाबा कथा वाचन से जीविकोपार्जन करते। सबसे बड़ा होने के कारण पण्डित दीना नाथ की शिक्षा-दीक्षा बाबा और पिता जी के कठोर नियंत्रण में हुयी। सूर्योदय से पहले उठ कर गंगा स्नान से उनके जीवन की शुरुआत हुआ करती। कर्म-काण्ड और कथा वाचन  के सारे गुर उन्हें सहज उपलब्ध थे। जिसने अनियंत्रित जीवन का एक दिन भी न देखा हो उसे नियंत्रण की कठोरता तनिक भी आभास नहीं होगा। कम उम्र में ही उनकी पंडिताई के चर्चे होने लगे थे। उस समय उनकी स्थिति एक रट्टू तोते से ज्यादा नहीं थी। बाहर से थोपा ज्ञान आजतक कभी किसी के काम नहीं आया। ज्ञान का उद्भव तो अंतर में होता है। धीरे-धीरे उन्हें समझ आ गया ये सारा ताम-झाम जीविका अर्जित करने के साधनों से अधिक नहीं है। इस सारी तपस्या का सार था दो वक़्त की रोटी। उन्होंने जीवन में अपने पिता और बाबा की तरह जब और कुछ नहीं सीखा तो उन्हें भी जीवन-यापन के लिए इसी विधा का सहारा लेना पड़ा। कर्म-काण्ड, वेश-भूषा, आचार-व्यवहार सब नाटक करते-करते कब जीवन का हिस्सा बन गये  दीना नाथ जी को इसका पता ही नहीं चला। गंगा मइया और भगवान में आस्था इतनी गहरे पैठ गयी की पूरा जीवन प्रभु-चरणों में समर्पित हो गया। धैर्य का स्तर इतना बढ़ गया कि हर होनी-अनहोनी में प्रभु की इच्छा ही दिखाई देती।

बाबा का शव अंतिम यात्रा करते हुये मणिकर्णिका घाट पर चिता में लगाया जा चुका था। कल तक प्रभु प्रेम से उल्लसित रहने वाले बाबा का मुख अभी भी अनन्त शांति विस्तारित कर रहा था। पिता जी डोम से अग्नि लेने गए हुये थे। रिश्ते-नातेदार को, जो कल तक बाबा के प्रिय और करीबी थे, अंतिम क्रिया की बहुत जल्दी थी। एक ने कहा बेटा देखो पण्डित जी कहाँ रह गये। सीढियाँ चढ़ के जब ऊपर पहुंचे तो देखा पिता जी डोम के आगे गिड़गिड़ा से रहे थे। अग्नि का एक कोयला देने के लिये वो जो मूल्य मांग रहा था उसे देने में उनकी असमर्थता डोम की समझ नहीं आ रही थी। इस तिमाही उसे ठेका तीस हज़ार में मिला था। अगर वो इसी तरह सब पर दया करता रहा तो कमायेगा क्या। यहाँ वैसे भी कोई रोज-रोज तो आता नहीं कि फिर वसूल लें। डोम ने एक दृष्टि सद्यवयस्क दीना नाथ पर डाली और अँगीठी से जलता हुआ एक अंगार कुशा पर रख दिया।

तेरहवीं के बाद पिता जी ने एक दिन समझाया। बेटा पैसा पश्चिम में है। पूरब में तो यजमान अपने ही दारिद्र्य से उबर नहीं पा रहा है। थोड़ा बहुत पुण्य कमाने के लिये हम जैसे पंडितों को दान-दक्षिणा दे देता है। इससे भरण-पोषण तो हो सकता है किन्तु समय-असमय के लिये धन संचय की सम्भावना नहीं के बराबर है। तू अपने काम में निपुण है। गुणग्राही लोग तेरी विद्या का आदर करेंगे। तेरे सामने पूरा जीवन पड़ा है। यहाँ से बाहर निकल। बिठूर में अपने बनारस के एक मित्र हैं तू उनके पास चला जा। गंगा मइया तुम्हारा कल्याण करेंगी।

पिता की आज्ञा को भगवान सन्देश मान दीना नाथ जी बिठूर आ गये। और यहीं के हो कर रह गये। कालांतर में उनका विवाह हुआ और दो पुत्र रत्नों की प्राप्ति भी। गंगा-स्नान, कर्म काण्ड और कथा वाचन उनके जीवन अभिन्न अंग बन चुके थे। किन्तु उन्होंने बच्चों को कर्म-काण्ड से विरत रख समीप के सरकारी विद्यालय में शिक्षा दिलाई। कथा वाचन की उनकी प्रतिभा के कारण उनका नाम कानपुर में काफी प्रसिद्ध हुआ। कुल मिला कर यहाँ उनकी स्थिति पिता जी की तुलना में कुछ बेहतर थी। एक एल आई जी मकान और बच्चों की बंगलौर और पूना में नौकरी इससे ज्यादा उन्होंने ईश्वर से माँगा होता तो शायद वो मना न करता। पर धैर्य के धनी दीना नाथ जी  इतने से ही संतुष्ट थे। उनके लिये सब गंगा मइया का प्रसाद और बाबा-पिता जी के आशीर्वाद से ज्यादा कुछ नहीं था। बच्चों के नौकरी में आ जाने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो चली थी। किन्तु पैसे का आनन्द लेने वाली प्रवृत्ति के लिए उम्र निकल चुकी थी। बीवी और बच्चे कभी-कभी उनकी इस पंडिताई का उपहास भी उड़ाते। पंडित जी के कर्म-काण्ड में रत्ती भर बदलाव की कोई सम्भावना नहीं थी।

आज सुबह-सुबह खबर आई कि एक यजमान नहीं रहे। उम्र कोई चालीस की रही होगी। पण्डित जी अपनी मोपेड ले, लाश के अस्पताल से आने के पहले वहाँ पहुँच चुके थे। यजमान की पत्नी बेसुध पड़ीं थीं। बच्चे छोटे ही थे। नाते-रिश्तेदारों को खबर कर दी गयी थी। कुछ लोग पहुँच भी गए थे। पास-पड़ोस, मोहल्ले के कुछ लोग भी खड़े थे। एम्बुलेंस वाला पैसे माँग रहा था। जो रिश्तेदार आये थे वो दूर के थे और जेब में हाथ डालने को तैयार नहीं। ये थोड़ा कम सोशल व्यक्ति थे। कथा में इनके यहाँ आने वालों की संख्या कम ही रहती, इसलिए पण्डित जी को दक्षिणा भी कम मिलती। पड़ोसियों को भी घर की आर्थिक स्थिति का भान हो रहा था। पण्डित जी ने पड़ोसियों आह्वाहन किया कोई एम्बुलेंस का पैसा दे दे। एक ने कहा हम लोग ऑफिस निकल रहे हैं पण्डित जी आप भी निकल लो। खामख्वाह बड़ी अम्मा बनने की ज़रूरत नहीं है। घर वाले आ ही रहे होंगे। हम सीधे घाट पर पहुँच जायेंगे। रुकेंगे तो एक छुट्टी खराब होगी। ऐसी परिस्थिति में वहां से निकल जाने के विकल्प को उनकी अंतरात्मा ने मना कर दिया। प्रत्यक्ष रूप से उन्होंने कहा आप लोग चलिये। उनके जाने के बाद पण्डित जी ने अपने बटुए से आवश्यक राशि दे कर एम्बुलेन्स वाले को बिदा किया। और तेज कदमों से समीप के एटीएम की ओर बढ़ लिये।

भैरव घाट का दृश्य विकट था। जनसँख्या विस्फोट के कारण जहाँ जाओ वहीँ भीड़। पाँच -छः चिताएं जल रहीं थीं। उतनी ही की तैयारियाँ चल रहीं थीं। लकड़ी वाले, महाब्राम्हण, जलाने वाले सभी ने पूरे शहर का बटवारा कर रक्खा था। इलाके के अनुसार ही मृतक का क्रिया-कर्म कौन करेगा ये निश्चित होता। किसी को किसी के दुःख से कुछ लेना-देना नहीं। हर तरफ गन्दगी का साम्राज्य। और इसी गन्दगी के बीच महाबाह्मण आत्मा की शांति के लिये विविध विधान रच रहे थे। पार्थिव शरीर के ऊपर से माला-फूल उठा कर किसी वहीँ फेंक दी तो किसी ने गंगा में। कोई मृतक शरीर को गंगा के पावन जल में डुबकी लगवा रहा है। किसी ने चिता की राख नदी की ओर धकेल दी। कुछ श्मशान में रहने वाले बच्चे मखाने और पैसों के चक्कर में लाश के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे थे। कुछ रात में रोटियां सेंकने के लिए अधजली चिताओं से लकड़ियाँ निकाल कर उसे गंगा में बुझा रहे थे। महाबाह्मण और चिता जलाने वाले अपनी धुन में थे। ऐसा मौका बार-बार तो आता नहीं। थर्ड जेंडर यदि पृथ्वी रूपी नरक में पैदा होने पर वसूली कर सकता है तो उनका हक़ तो और भी ज्यादा है। वो तो सारे कार्य-कलाप आत्मा को आवा-गमन से मुक्त करने के लिए कर रहे हैं। एक मंतर गलत पढ़ दिया तो आत्मा कहाँ जायेगी इसकी गारेंटी कौन लेगा। पैसों के लिए चिक-चिक जारी थी। 

पूरब में लोग दहन के पश्चात अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित करके ही घर जाते थे। पर पश्चिम में चिता जलते ही सब सरकना शुरू कर देते। अस्थि एकत्रित करके उसके विसर्जन का कार्य अगले दिन किया जाता। चिता जल चुकी थी। पण्डित जी गंगा के किनारे सीढ़ियों की ओर निकल आये। उनके मन में उथल-पुथल मची थी। क्या हो रहा है हमारे देश को। पड़ोसियों और इष्ट-मित्रों द्वारा कन्धा देने में भी कोताही। मृत्यु के द्वार पर भी कारोबार। श्मशान के लोगों का अमानवीय व्यवहार। कई बार यहाँ आना हुआ पर आजतक वो कभी इतने व्यथित नहीं हुए थे। आज न जाने क्यूँ उन्हें ये लग रहा था कि ये सब उनकी लाश के साथ हो रहा है। 

किसी ने पीछे से आ कर पण्डित जी के कन्धे पर हाथ रखा। आइये पंडित जी आचमन कर लेते हैं, नहाने के लिए कपडे तो लाये न होंगे। उनके साथ पंडित जी कुछ और सीढियाँ उतर के गंगा तट तक पहुंच गये। गंगाजल में अजीब पीलापन था। बिठूर में शहर में घुसने से पहले की गंगा और भैरव घाट की गंगा के रंग में अंतर उनकी आँखों में खटक गया। बायीं ओर शहर का मुख्य नाला धारा-प्रवाह गंगा में गन्दगी विसर्जित कर रहा था। पण्डित जी बिना आचमन किये ही लौट लिये।  

जिस गंगा ने जीवन भर उन्हें इतना कुछ दिया मर के उसे मै गन्दा करूँ ये सवाल उनके जेहन में कौंध रहा था। उन्होंने डायरेक्टरी में देख कर मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य को फोन लगा दिया। सर मै देहदान करना चाहता हूँ...उसके लिये क्या करना होगा...क्या ये सम्भव है कि मेरे मृत शरीर का एक भी हिस्सा गंगा में ना जाये...इसे आप मेरी अंतिम इच्छा समझ लीजिये...कल मिलता हूँ।     

- वाणभट्ट 

रविवार, 3 अगस्त 2014

फटा पोस्टर

फटा पोस्टर

एक अगस्त का अख़बार हमेशा की तरह बोर ख़बरों से भरा पड़ा था। कानपुर में बिजली कटौती। पेट्रोल-डीज़ल के दामों में बढ़ोत्तरी। सभी चैनलों के बाबा ये कहते रहते हैं कि सुबह-सुबह भगवान को याद करो तो दिन पॉजिटिविटी से भर जाये। पर अख़बार पलट लेने की बीमारी का क्या किया जाये। आम आदमी को तो इसी धरती पर जीना है। इस ग़रज़ से अख़बार पलट लेने में कोई बुराई नहीं है। सो मैंने भी अख़बार पलट लिया। और न पलटता तो अफ़सोस रहता। कोई अगर गलती से पूछ लेता कि आज कोई ख़ास खबर तो मै क्या जवाब देता। आज अख़बार में फिल्म 'पी के' का पहला प्रोमोशनल पोस्टर रिलीज़ हुआ। फिल्म गज़नी से ही आमिर के लक्षण समझ नहीं आ रहे थे। इस बार तो भाई पूरे साफ़ थे, कपड़ों से।

मै अपने एमएसटी ग्रुप के साथ कानपुर-लखनऊ मेमू में ट्रेन में जगह घेरने की जद्दोज़हद में लगा था। सारा ग्रुप एक-दूसरे के लिये जगह का जुगाड़ कर ही लेता। सब साथ-साथ बैठते। ग्रुप के खबरची त्रिवेदी ने अख़बार निकाल लिया। और पूरी तन्मयता से पढने लगा। उसके अगल-बगल बैठे बाजपेयी और लोहानी ने भी अपनी नज़रें अखबार में गड़ा दीं। पन्ने पलटते रहे और मैं 'पी के' के पोस्टर पर इनकी भाव-भंगिमा का इंतज़ार करता रहा। मुझे पूरी उम्मीद थी कि ज़ोर का झटका धीरे से लगने वाला है।

उस पृष्ठ पर पहुंचते ही तीनों की आँखें अप्रत्याशित दृश्य देख चमक उठीं। भरपूर निगाह मार के त्रिवेदी ने अखबार का वो पन्ना मेरी ओर कर दिया। देख भई ये लोग अपनी फिल्म को हिट कराने के लिये कुछ भी कर सकते हैं। अब मैंने उस पृष्ठ पर गहन दृष्टि डाली। विधु विनोद और हिरानी की फिल्म है 'पी के'। विधु विनोद चोपड़ा की फिल्में मैं 'सजा-ए-मौत' और 'खामोश' के ज़माने से देख रहा हूँ। वो भी हॉल में। तभी से मै इनका मुरीद बन चुका था। 'परिंदा' और '1942 - अ लव स्टोरी' के बाद वे किसी परिचय के मोहताज नहीं रह गये। 'एकलव्य' के अलावा उनकी किसी फिल्म ने मुझे निराश नहीं किया।  यही बात कुछ हद तक आमिर के साथ भी लागू है। उसकी फिल्में हर वर्ग के दर्शक का ध्यान रखतीं हैं। तो जो सबसे ज़्यादा आश्चर्यजनक बात थी कि ये टीम अपनी फिल्मों के प्रमोशन के लिए नहीं जानी जाती। इनका नाम सुन कर लोग ख़ुद-ब-ख़ुद हॉल तक पहुँच जाते हैं। ये शायद पहली बार है जब चोपड़ा को पूरे एक पेज का विज्ञापन देना पड़ा है। आजकल फिल्मों पर दाँव इतने बढ़ते जा रहे हैं कि इस विज्ञापन से मुझे कोई आपत्ति होने से रही। पहले ही दिन में सौ करोड़ का टारगेट रख कर शाहरुख़, सलमान और आमिर को साइन किया जाता है। इसलिये ये अपने कपडे तो उतारेंगे ही और दूसरों के भी।

आमिर-सलमान-शाहरुख़ और मुझमें एक बात कॉमन है। हमारा इयर ऑफ़ बर्थ सेम है। ये बात अलग है कि मैंने बम्बई का रुख नहीं किया नहीं तो शायद खानों के बीच एक भट्ट भी शामिल होता। ये सभी अपनी फिल्मों के बारे में सस्पेंस बना के चलते हैं। चोपड़ा-हिरानी-आमिर की जो टीम आखिर तक अपनी फिल्मों के बारे में कुछ नहीं बताती थी। उसका इस तरह का विज्ञापन थोड़ा अप्रत्याशित है। लोग उनकी फिल्मों का इंतज़ार करते। जो एक सरप्राइज़ ट्रीट की तरह होतीं। हर बार नए कलेवर। हर बार नयी कहानी। हर बार किस्सागोई की नयी मिसाल। पर इस बार दिसम्बर की फिल्म के लिए अगस्त में प्रमोशन चौंकाने वाला काम था। 

मैंने पोस्टर को और गौर से देखा। तो देखा रेलवे ट्रैक के स्लीपर लकड़ी के थे। आमिर ने टू-इन-वन के पीछे अपने शरीर का बाकि हिस्सा छिपा रखा है। मोनो स्पीकर वाला साउंड सिस्टम देखे भी अरसा हो गया। ये दोनों ही बीते ज़माने की चीज़ हैं। सीन देख के कुछ ऐसा लग रहा था जैसे कोई विक्षिप्त व्यक्ति अपने कपडे फाड़ के खड़ा हो गया हो। पर सेंसर बोर्ड के डर से उसे टू-इन-वन पकड़ा दिया गया हो। इस दृश्य में अश्लीलता देख पाना मेरे बस की बात नहीं थी। ऐसा आये दिन दिखता ही रहता है। लोहानी जी बोल उठे देखो ये लोग किस हद तक गिर गए हैं। फिल्म हिट कराने के लिए नंगे होने से भी इन्हें कोई ऐतराज़ नहीं। त्रिवेदी जो पिछले सात सालों से एमएसटी कर रहा था। बोला गुरु ये मामला कुछ अपनी तरह का है। लगता है आमिर कोई एमएसटी वाला बना है। साला रोज ट्रेन लेट। ७२ किलोमीटर के सफ़र में तीन घंटे। अड़ोसी-पडोसी, यहाँ तक कि बच्चे भी पहचानना भूल गए हैं। बीवी को बस तनख्वाह से मतलब है। दस साल होते-होते शायद मेरा हाल भी ऐसा ना हो जाये। लेकिन यार अब टू-इन-वन तो मिलता नहीं आइपॉड से कैसे काम चलेगा।   

अगले दिन नैतिकता के ठेकेदारों ने इस विज्ञापन को कोर्ट में घसीट लिया। उनकी वैचारिक नग्नता  का क्या किया जाये। फिल्म तो हिट होगी ही। और मेरे साथ-साथ वो लोग तो ज़रूर देखेंगे जिन्हें इस दृश्य पर ऐतराज़ होगा। टीम को बधाई एडवान्स में। ये तो बानगी है अभी और हथकण्डे आजमाने बाकी हैं।  



- वाणभट्ट 

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...