गंगा सेवा
पण्डित दीना नाथ मिश्र गंगा मइया की ओर गहन चिन्तन में डूबे निहार रहे थे। पीछे से आती जलते माँस की तीक्ष्ण गन्ध उन्हें विचलित कर रही थी। ऐसा नहीं था कि उनका श्मशान आना पहली बार हुआ हो। कई बार वो पहले भी इस भूमि पर आ चुके थे। यहाँ आ कर ही आत्म-ज्ञान मिला जीवन की क्षण-भंगुरता का, संसार की निस्सारता का, शरीर की नश्वरता का। पर आज मन कुछ ज्यादा उद्विग्न था।
पहली बार उनका क्रिया में आना अपने बाबा की मृत्यु के कारण हुआ। अपने पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़े दीना नाथ जी जन्म वाराणसी के असी घाट के पण्डित रामाधार मिश्र के यहाँ हुआ। उनके पिता और बाबा कथा वाचन से जीविकोपार्जन करते। सबसे बड़ा होने के कारण पण्डित दीना नाथ की शिक्षा-दीक्षा बाबा और पिता जी के कठोर नियंत्रण में हुयी। सूर्योदय से पहले उठ कर गंगा स्नान से उनके जीवन की शुरुआत हुआ करती। कर्म-काण्ड और कथा वाचन के सारे गुर उन्हें सहज उपलब्ध थे। जिसने अनियंत्रित जीवन का एक दिन भी न देखा हो उसे नियंत्रण की कठोरता तनिक भी आभास नहीं होगा। कम उम्र में ही उनकी पंडिताई के चर्चे होने लगे थे। उस समय उनकी स्थिति एक रट्टू तोते से ज्यादा नहीं थी। बाहर से थोपा ज्ञान आजतक कभी किसी के काम नहीं आया। ज्ञान का उद्भव तो अंतर में होता है। धीरे-धीरे उन्हें समझ आ गया ये सारा ताम-झाम जीविका अर्जित करने के साधनों से अधिक नहीं है। इस सारी तपस्या का सार था दो वक़्त की रोटी। उन्होंने जीवन में अपने पिता और बाबा की तरह जब और कुछ नहीं सीखा तो उन्हें भी जीवन-यापन के लिए इसी विधा का सहारा लेना पड़ा। कर्म-काण्ड, वेश-भूषा, आचार-व्यवहार सब नाटक करते-करते कब जीवन का हिस्सा बन गये दीना नाथ जी को इसका पता ही नहीं चला। गंगा मइया और भगवान में आस्था इतनी गहरे पैठ गयी की पूरा जीवन प्रभु-चरणों में समर्पित हो गया। धैर्य का स्तर इतना बढ़ गया कि हर होनी-अनहोनी में प्रभु की इच्छा ही दिखाई देती।
बाबा का शव अंतिम यात्रा करते हुये मणिकर्णिका घाट पर चिता में लगाया जा चुका था। कल तक प्रभु प्रेम से उल्लसित रहने वाले बाबा का मुख अभी भी अनन्त शांति विस्तारित कर रहा था। पिता जी डोम से अग्नि लेने गए हुये थे। रिश्ते-नातेदार को, जो कल तक बाबा के प्रिय और करीबी थे, अंतिम क्रिया की बहुत जल्दी थी। एक ने कहा बेटा देखो पण्डित जी कहाँ रह गये। सीढियाँ चढ़ के जब ऊपर पहुंचे तो देखा पिता जी डोम के आगे गिड़गिड़ा से रहे थे। अग्नि का एक कोयला देने के लिये वो जो मूल्य मांग रहा था उसे देने में उनकी असमर्थता डोम की समझ नहीं आ रही थी। इस तिमाही उसे ठेका तीस हज़ार में मिला था। अगर वो इसी तरह सब पर दया करता रहा तो कमायेगा क्या। यहाँ वैसे भी कोई रोज-रोज तो आता नहीं कि फिर वसूल लें। डोम ने एक दृष्टि सद्यवयस्क दीना नाथ पर डाली और अँगीठी से जलता हुआ एक अंगार कुशा पर रख दिया।
तेरहवीं के बाद पिता जी ने एक दिन समझाया। बेटा पैसा पश्चिम में है। पूरब में तो यजमान अपने ही दारिद्र्य से उबर नहीं पा रहा है। थोड़ा बहुत पुण्य कमाने के लिये हम जैसे पंडितों को दान-दक्षिणा दे देता है। इससे भरण-पोषण तो हो सकता है किन्तु समय-असमय के लिये धन संचय की सम्भावना नहीं के बराबर है। तू अपने काम में निपुण है। गुणग्राही लोग तेरी विद्या का आदर करेंगे। तेरे सामने पूरा जीवन पड़ा है। यहाँ से बाहर निकल। बिठूर में अपने बनारस के एक मित्र हैं तू उनके पास चला जा। गंगा मइया तुम्हारा कल्याण करेंगी।
पिता की आज्ञा को भगवान सन्देश मान दीना नाथ जी बिठूर आ गये। और यहीं के हो कर रह गये। कालांतर में उनका विवाह हुआ और दो पुत्र रत्नों की प्राप्ति भी। गंगा-स्नान, कर्म काण्ड और कथा वाचन उनके जीवन अभिन्न अंग बन चुके थे। किन्तु उन्होंने बच्चों को कर्म-काण्ड से विरत रख समीप के सरकारी विद्यालय में शिक्षा दिलाई। कथा वाचन की उनकी प्रतिभा के कारण उनका नाम कानपुर में काफी प्रसिद्ध हुआ। कुल मिला कर यहाँ उनकी स्थिति पिता जी की तुलना में कुछ बेहतर थी। एक एल आई जी मकान और बच्चों की बंगलौर और पूना में नौकरी इससे ज्यादा उन्होंने ईश्वर से माँगा होता तो शायद वो मना न करता। पर धैर्य के धनी दीना नाथ जी इतने से ही संतुष्ट थे। उनके लिये सब गंगा मइया का प्रसाद और बाबा-पिता जी के आशीर्वाद से ज्यादा कुछ नहीं था। बच्चों के नौकरी में आ जाने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो चली थी। किन्तु पैसे का आनन्द लेने वाली प्रवृत्ति के लिए उम्र निकल चुकी थी। बीवी और बच्चे कभी-कभी उनकी इस पंडिताई का उपहास भी उड़ाते। पंडित जी के कर्म-काण्ड में रत्ती भर बदलाव की कोई सम्भावना नहीं थी।
आज सुबह-सुबह खबर आई कि एक यजमान नहीं रहे। उम्र कोई चालीस की रही होगी। पण्डित जी अपनी मोपेड ले, लाश के अस्पताल से आने के पहले वहाँ पहुँच चुके थे। यजमान की पत्नी बेसुध पड़ीं थीं। बच्चे छोटे ही थे। नाते-रिश्तेदारों को खबर कर दी गयी थी। कुछ लोग पहुँच भी गए थे। पास-पड़ोस, मोहल्ले के कुछ लोग भी खड़े थे। एम्बुलेंस वाला पैसे माँग रहा था। जो रिश्तेदार आये थे वो दूर के थे और जेब में हाथ डालने को तैयार नहीं। ये थोड़ा कम सोशल व्यक्ति थे। कथा में इनके यहाँ आने वालों की संख्या कम ही रहती, इसलिए पण्डित जी को दक्षिणा भी कम मिलती। पड़ोसियों को भी घर की आर्थिक स्थिति का भान हो रहा था। पण्डित जी ने पड़ोसियों आह्वाहन किया कोई एम्बुलेंस का पैसा दे दे। एक ने कहा हम लोग ऑफिस निकल रहे हैं पण्डित जी आप भी निकल लो। खामख्वाह बड़ी अम्मा बनने की ज़रूरत नहीं है। घर वाले आ ही रहे होंगे। हम सीधे घाट पर पहुँच जायेंगे। रुकेंगे तो एक छुट्टी खराब होगी। ऐसी परिस्थिति में वहां से निकल जाने के विकल्प को उनकी अंतरात्मा ने मना कर दिया। प्रत्यक्ष रूप से उन्होंने कहा आप लोग चलिये। उनके जाने के बाद पण्डित जी ने अपने बटुए से आवश्यक राशि दे कर एम्बुलेन्स वाले को बिदा किया। और तेज कदमों से समीप के एटीएम की ओर बढ़ लिये।
भैरव घाट का दृश्य विकट था। जनसँख्या विस्फोट के कारण जहाँ जाओ वहीँ भीड़। पाँच -छः चिताएं जल रहीं थीं। उतनी ही की तैयारियाँ चल रहीं थीं। लकड़ी वाले, महाब्राम्हण, जलाने वाले सभी ने पूरे शहर का बटवारा कर रक्खा था। इलाके के अनुसार ही मृतक का क्रिया-कर्म कौन करेगा ये निश्चित होता। किसी को किसी के दुःख से कुछ लेना-देना नहीं। हर तरफ गन्दगी का साम्राज्य। और इसी गन्दगी के बीच महाबाह्मण आत्मा की शांति के लिये विविध विधान रच रहे थे। पार्थिव शरीर के ऊपर से माला-फूल उठा कर किसी वहीँ फेंक दी तो किसी ने गंगा में। कोई मृतक शरीर को गंगा के पावन जल में डुबकी लगवा रहा है। किसी ने चिता की राख नदी की ओर धकेल दी। कुछ श्मशान में रहने वाले बच्चे मखाने और पैसों के चक्कर में लाश के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे थे। कुछ रात में रोटियां सेंकने के लिए अधजली चिताओं से लकड़ियाँ निकाल कर उसे गंगा में बुझा रहे थे। महाबाह्मण और चिता जलाने वाले अपनी धुन में थे। ऐसा मौका बार-बार तो आता नहीं। थर्ड जेंडर यदि पृथ्वी रूपी नरक में पैदा होने पर वसूली कर सकता है तो उनका हक़ तो और भी ज्यादा है। वो तो सारे कार्य-कलाप आत्मा को आवा-गमन से मुक्त करने के लिए कर रहे हैं। एक मंतर गलत पढ़ दिया तो आत्मा कहाँ जायेगी इसकी गारेंटी कौन लेगा। पैसों के लिए चिक-चिक जारी थी।
पूरब में लोग दहन के पश्चात अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित करके ही घर जाते थे। पर पश्चिम में चिता जलते ही सब सरकना शुरू कर देते। अस्थि एकत्रित करके उसके विसर्जन का कार्य अगले दिन किया जाता। चिता जल चुकी थी। पण्डित जी गंगा के किनारे सीढ़ियों की ओर निकल आये। उनके मन में उथल-पुथल मची थी। क्या हो रहा है हमारे देश को। पड़ोसियों और इष्ट-मित्रों द्वारा कन्धा देने में भी कोताही। मृत्यु के द्वार पर भी कारोबार। श्मशान के लोगों का अमानवीय व्यवहार। कई बार यहाँ आना हुआ पर आजतक वो कभी इतने व्यथित नहीं हुए थे। आज न जाने क्यूँ उन्हें ये लग रहा था कि ये सब उनकी लाश के साथ हो रहा है।
किसी ने पीछे से आ कर पण्डित जी के कन्धे पर हाथ रखा। आइये पंडित जी आचमन कर लेते हैं, नहाने के लिए कपडे तो लाये न होंगे। उनके साथ पंडित जी कुछ और सीढियाँ उतर के गंगा तट तक पहुंच गये। गंगाजल में अजीब पीलापन था। बिठूर में शहर में घुसने से पहले की गंगा और भैरव घाट की गंगा के रंग में अंतर उनकी आँखों में खटक गया। बायीं ओर शहर का मुख्य नाला धारा-प्रवाह गंगा में गन्दगी विसर्जित कर रहा था। पण्डित जी बिना आचमन किये ही लौट लिये।
जिस गंगा ने जीवन भर उन्हें इतना कुछ दिया मर के उसे मै गन्दा करूँ ये सवाल उनके जेहन में कौंध रहा था। उन्होंने डायरेक्टरी में देख कर मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य को फोन लगा दिया। सर मै देहदान करना चाहता हूँ...उसके लिये क्या करना होगा...क्या ये सम्भव है कि मेरे मृत शरीर का एक भी हिस्सा गंगा में ना जाये...इसे आप मेरी अंतिम इच्छा समझ लीजिये...कल मिलता हूँ।
- वाणभट्ट