शनिवार, 5 अप्रैल 2014

लोकतंत्र में विचारधारा का महत्त्व

लोकतंत्र में विचारधारा का महत्त्व


लेखक क्या है विचारों के बिना। अलबत्ता मुझे ये गलतफहमी कभी नहीं रही कि मै लेखक हूँ। पर गाहे-बगाहे कुछ इष्ट-मित्र मेरी पोस्टों पर अपनी टिप्पणियाँ दे कर मुझे अनुग्रहित करते रहते हैं। मै सदैव उनका ह्रदय से कृतज्ञ रहता हूँ और रहूँगा भी। ये बात अलग है कि मै बिना पढ़े उनके ब्लॉग पर 'वाह -वाह क्या बात है' टाइप की टिप्पणी नहीं करता। इसलिए चार सालों में मेरी टी आर पी (फॉलोवर लिस्ट) अभी तक बमुश्किल ५७ ही पहुंची है। अन्य दिग्गज ब्लॉगरों की तीन-चार सौ से ऊपर देख के रश्क होना स्वाभाविक है। कई गुरुघंटालों को साधने की कोशिश भी की कि गुरु ये बताओ टी आर पी  बढ़ाने  के लिए तुमने कौन सी जुगत लगाई। तो गुरु लोग संजीदा हो जाते हैं कहते हैं अपनी लेखनी में जादू लाओ लोग खुद-बखुद तुम्हारे फॉलोअर बन जायेंगे। हाल ही में टॉप ३०० पठनीय हिंदी ब्लॉगरों की लिस्ट का कहीं से आविर्भाव हुआ है। एक स्वनाम धन्य ब्लॉगर महोदय ने लड़-भिड़ के अपना नाम इस फेहरिस्त में घुसेड़वा भी लिया है। लिखा-पढ़ी करके कुछ ब्लॉग के महारथियों से सिफारिश से बंदा लिस्ट को शुभ अंक ३०१ करवा भी लेता। किन्तु ऐसा करने से मेरे महान गुरु बाणभट्ट, खुदा उन्हें जन्नत बख्शे, की आत्मा को असीम कष्ट होता। जिस गुरु ने अपने जीते जी राजा-महाराजाओं के ज़माने में चाटुकारिता का साथ देने से इंकार कर दिया हो, उसका ये कलयुगी चेला वाणभट्ट सिर्फ टी आर पी के लिए इतना गिर जाये, ये शर्म की बात है। आजकल तो बेशर्मी हद के पार हो गयी है और भाई लोगों ने तो मुहावरा ही गढ़ डाला कि जिसने की शरम उसके फूटे करम। तो भाइयों और बहनों अपनी फूटी किस्मत को लेकर अपने महान गुरु का नाम ख़राब करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। एकलव्य टाइप का चेला हूँ। गुरु की स्वतः प्रेरणा से आज मै कुछ ऐसा लिखने पर आमादा हूँ जिसे इस बार ५-१० से कुछ ज्यादा टिप्पणियां मिल जाएँ। २-४ लोग टी आर पी में जुड़ जायें। गुरु मुझ पर ऐसे ही कृपा बनाये रक्खें। इससे ज्यादा वाणभट्ट को और क्या आकांक्षा रखनी चाहिये। इस आशय से मैंने सामायिक विषय भारत के लोकतंत्र में चल रही महाभारत को मुद्दा बनाने का फैसला लिया है।

चौसर बिछ चुकी है। हर दल अपने-अपने शकुनियों के भरोसे चालें चल रहा है। पूरी की पूरी महाभारत करा देने वाले मामाश्री रणभूमि से विरक्त ही रहे। बहन के पूरे कुनबे का नाश पीटने के बाद मामा का उह-लोक गमन किस प्रकार हुआ, इस बारे में मेरा ज्ञान सीमित है। ये तो निश्चित है कि मामा जी ने कुरुक्षेत्र में युद्ध करते हुए अपने प्राण नहीं गंवाएं होंगे। और कुरुक्षेत्र के मैदान में कोई शकुनि नाम का प्राणी यदि सहदेव के हाथों मारा भी गया होगा तो शकुनि का बॉडी डबल रहा होगा। इतना इंटेलिजेंट मामा युद्ध में जाने की बेवकूफी नहीं करेगा। महाभारत एक ऐसा ग्रन्थ है जो हर देश-काल में फिट बैठता है। और हमारे देश का चुनाव किसी महायुद्ध से कम है क्या? एक तरफ़ सत्ता पक्ष का गठबंधन है तो दूसरी तरफ विपक्ष गुटबाजी में लगा है। परन्तु आज के इस युद्ध में ये कहना मुश्किल है कि पांडव कौन है और कौरव कौन। दोनों पक्षों में दुर्योधन भी हैं और दुश्शासन भी। कुछ पितामह हैं। कुछ आचार्य हैं। हर दल में धृतराष्ट्र भी हैं और गांधारी भी। जितने पात्रों की महर्षि वेद व्यास ने उस समय मात्र कल्पना की होगी आज साक्षात् भारत की पावन धरा पर अवतरित हो चुके हैं। और २०१४ के इस महासंग्राम में अपनी-अपनी ताल ठोंक रहे हैं। दरअसल ताल होती ही ऐसी जगह है जहाँ कोई दूसरा ठोंक नहीं सकता। जिसे कोई दूसरा ठोंक सके वो शरीर में ताल के ठीक विपरीत स्थापित है। बस एक विचार आ गया तो सोचा इसे भी चटका दिया जाये।

बात विचार से शुरू हुयी थी। लोकतंत्र में विचारों का महत्त्व। जब किसी एक के विचार को नासमझ लोगों की पूरी की पूरी फ़ौज सिर्फ इसलिए मानने लग जाए कि नेता जी की जी-हजूरी में ही अपनी भलाई है तो यही विचार, विचार-धारा में तब्दील हो जाते हैं। विचार भी उन्हीं के मानने योग्य माने जाते हैं जिनके पास पद-धन-बल की ताकत है। ये बात कोई नहीं पूछता कि ये ताकत आपने किस प्रकार अर्जित की है। अगर आपको लगता है कि आपके विचारों और जेब में दम है, तो हमारा जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, आपको इजाज़त देता है कि आप अपनी एक पार्टी बना लें। खुद को उसका सीईओ नियुक्त कर लें। भूखे-बेरोजगार और दारुबाजों की निरंतर बढती जनसंख्या किसी भी उदीयमान नेता को निराश नहीं करती। और नेता का खून तो सिर्फ और सिर्फ अपने इर्द-गिर्द छाये चापलूसों के नारों से ही बढ़ता है। उसे छुहारा-बादाम-मिश्री खाने की ज़रूरत नहीं है। एक बार आप नेता बन गए तो विचार आपके पेटेंट हो जाते हैं। इस देश में हर वो शख्स महान हो सकता है जो भोले-भाले लोगों को सपने बेच सके। पूरा का पूरा फ़िल्म उद्योग इस बात का जीता-जागता सबूत है। जिन्हें एक वख्त की  रोटी नसीब नहीं होती वही लोग सल्लू मियां की  दबंग को हिट करा देते हैं। फ़िल्म या टी वी  देख के कोई कह सकता है कि भारत में हर जगह गरीब और गरीबी ही दिखायी देती है। सत्ता पक्ष के लोग इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते। वो हर साल लाखों लोगों को गरीबी रेखा के ऊपर कर देते हैं। ये रेखा कुछ वैसी ही रेखा लगती है जैसे हाई जम्प में रॉड लगायी जाती है। अगर नहीं डांक पाये तो उसे नीचे कर लो। जितने गरीब रेखा के ऊपर जा रहे हैं उससे दुगनी संख्या में नए गरीब पैदा हो रहे हैं। पहले हर घर में साईकिल बड़ी चीज़ हुआ करती थी। आज झोंपड़-पट्टे में भी मोटरसाइकिल और टीवी आम हो गए हैं। गांव-गांव, गली-गली में लोगों को हिंदी सिनेमा ने कपडे पहनने के तौर-तरीके सिखा दिए हैं। ब्यूटी पार्लर का चलन अब शहरों-कस्बों तक ही सीमित नहीं रह गया है। पहले के गरीब सिर्फ दो वक्त की रोटी की आस रखता था। अब की गरीबी मानसिक है। अगर आपके पास साईकिल है तो मोटरसाइकिल के ख्वाब आपको सोने नहीं देंगे, और मारुती है तो हौंडा सिटी के। तनख्वाहें बढ़ीं हैं पर लोगों के सपने भी बेलगाम हुए हैं। लोग खाने से ज्यादा दिखाने में लगे हुए हैं। जिस तरह लोगों का क्रेज़ मोबाइल जैसे गैजेट्स पर होना शुरू हुआ है, लगता है लोग बिना खाने के तो जी सकते हैं पर बिना बतियाये नहीं। और नेता लोगों का काम ही क्या है, बुझे-मुरझाये लोगों में आशा का संचार करना। जैसे अच्छे स्वाद पर सबका हक़ है वैसे ही देश की अमीरी पर भी सबका हक़ होना चाहिये। और वो भी बिना शर्त, बिना मेहनत मिलना चाहिये। गरीबों का मसीहा बनने के लिये अमीरों को गाली दीजिये और धीरे-धीरे अमीरों की  लिस्ट में शामिल हो जाइये। नेताओं की संख्या और उनकी चल-अचल संपत्ति में जितनी वृद्धि गत वर्षों में हुयी है वो कल्पनातीत है। ३००-४०० परसेंट का ग्रोथ उद्योग और उद्यम के किसी क्षेत्र में शायद ही मिला हो। पर नेतागिरी में ये आम है। गरीबी हटाते-हटाते ये कब अमीर हो गए इन्हें खुद पता नहीं चला। अगर नूरजहाँ आज होतीं तो कश्मीर के लिए कश्मीर जाने की  कोई ज़रूरत नहीं थी। कश्मीर खुद दिल्ली आ जाता। और मोहतरमा कहतीं कि धरती पर अगर नेताओं के लिये स्वर्ग है तो बस यहीं है, यहीं है, यहीं है।

और कोई हर-हर, घर-घर पहुंचा हो या न पहुंचा हो पर इसमें शक़ नहीं कि टीवी की आज वही स्थिति है जिसकी इस देश का हर नेता कामना करता था। क्या गांव क्या कस्बे। क्या गली क्या कूचे। टीवी के साइज़ और दाम में अंतर हो सकता है पर अब इस माया का वास घर-घर पहुँच गया है। रही-सही कसर चैनेलों ने कर दी है। देश-दुनिया में क्या हो रहा है और हमारे यहाँ क्या हो सकता है, इस पर देश का बच्चा-बच्चा बोल सकता है। इस तकनीक ने देश में सूचना क्रांति ला दी। अब बच्चा पड़ोस के चचा यानि अंकल, जो एक सर्वमान्य-सर्वव्याप्त शब्द हो गया है, की शक्ल भले न पहचान पाये न पहचान पाये पर मलिंगा और क्रिस गेल को ज़रूर पहचानता होगा। इस क्रांति का श्रेय सत्ता पक्ष लेने में जुटा रहता है पर मुझे ये तरक्की उपभोक्ता वाद की प्रतीक लगती है। आपने सिर्फ दरवाज़ा खोला और बाहर का बाज़ार आपके घर में घुस गया। आज अगर कोई देसी तकनीक गलती से मिल भी जाये तो लोगों को उस पर भरोसा नहीं होता। लेकिन अगर कटरीना या करीना किसी विदेशी उत्पाद को एंडोर्स कर दें तो गांव में भी उस वस्तु का मार्केट तैयार हो जाता है। भारतेन्दु जी होते तो ज़रूर कहते कि घर की तो बस मूंछें ही मूछें हैं। इस तकनीक के सहारे हमारे और आपके घरों में पैठ गया एक ऐसा कल्चर जिससे अभी तक हम वंचित थे। अब हमें ये मालूम है कि हमारे पास क्या-क्या नहीं है और उसके लिए कितने पैसे चाहिए। मौजूदा आमदनी के स्रोतों से तो उतना धन अर्जित करने में कई जनम लगेंगे पर हमारी लालसा सब इसी जनम में पाने की है। भले ही झूठ बोलना पड़े या किसी का गला काटना पड़े। चाहतों का अम्बार है और उसे पूरा करने के लिये क़र्ज़ की व्यवस्था भी सहज उपलब्ध है। और जो ये तुरत-फुरत चाहता है उसके लिए नेतागिरी या किसी स्थापित नेता की चमचागिरी ही एक मात्र विधान है। 

टीवी के जरिये हर बार चुनावी दंगल और भी दिलचस्प हो जाता है। पहले जिन नेताओं को देखने-सुनने को लोग घंटों ग्राउंड पर इंतज़ार करते थे वो आज आपके साथ डिनर कर रहे हैं। टटपुंजिया से टटपुंजिया नेता कुछ ऐसा बोल देगा कि न्यूज़ चैनेलों को मसाला मिल जायेगा। फिर आप भला कैसे उन्हें पहचानने से इंकार कर सकते हैं। नेता तो नेता, उनके परिवार के मेम्बरान और यहाँ तक कि उनकी गाय, भैंस और कुत्तों का भी साक्षात्कार ले लिया जाता है। उनकी लाइक्स और डिस्लाइक्स का भी ख्याल रखा जाता है। नेता जी को जब गाय का दूध निकालते दिखाया जाता है तो आम आदमी को लगता है कि ये नेता हमारे बीच का है। ये बात तो बाद में पता चलती है कि नेता जी पहले ही अमरुद हो गए थे और सेटिंग के चलते ही मिडिया में छाये रहते हैं। वर्ना हर ऐरा-गैरा नेता मीडिया में आने के लिए इरादतन और गैरइरादतन उट-पटांग बकने से बाज नहीं आता। चुनावी समर में हर नेता से रु-ब-रु होने का मौका मिल रहा है। पार्टी लाइन से हट कर सबके विचार और विचार-धाराओं से अवगत होने का ये सुनहरा मौका है। हर पार्टी अपने को दूसरे से बेहतर बताने में जुटी हुयी है। हर प्रत्याशी जिताऊ या नॉन-जिताऊ कैटेगरी में रक्खा जा रहा है।  हर आदमी एक वोट में बदल गया है। चैनेलों के ओपिनियन पॉल मुकाबले को और भी दिलचस्प बना रहे हैं। महान नेता जो पार्टी के मुखिया के विरुद्ध मूक बने रहते थे, विरोधी पार्टी का पश्रय पा कर मुखर हो रहे हैं। जिसे टिकट नहीं मिला उसने बगावत कर दी। जो पहले एक पार्टी की विचारधाराओं का पोषण करता था, अब दूसरी पार्टी की नीतियों का गुणगान कर रहा है। चुनाव से ठीक पहले टिकट न मिलने से उपजे असंतोष और इस असंतोष से उपजी पार्टी छोड़ के दूसरे दलों की ओर पलायन की प्रवृत्ति, ये सिद्ध करती है कि नेताओं में किसी पार्टी या पार्टी के विचारों के प्रति प्रतिबद्धता का सर्वथा आभाव है।

फिर मेरा ध्यान गया सभी पार्टियों की मूल विचारधारा पर। सभी पार्टियाँ देश में सुशासन की बात कर रहीं हैं। सभी सांप्रदायिक एकता के लिए कृतसंकल्प हैं। सभी भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं। सभी सर्वशिक्षा और सर्व सशक्तिकरण की बात कर रहे हैं। सड़क और बिजली और पानी और स्वास्थ्य सब देना चाहते हैं सबको। सबके रोजगार और आमदनी की गारेंटी सब नेता ले रहे हैं। सब विदेशी धन भारत वापस लाना चाहते हैं। सबका ध्यान गरीब, कामगार और किसानों पर है। ये तबका ही सबसे बड़ा वोटर है। इसलिए हर किसी के पास इनके लिए योजनाओं का भण्डार है। अफ़सोस होता है जब एक जमीन के मालिक किसान को भी गरीब की श्रेणी में रख दिया जाता है। ये बात अलग है कि उसी के खून-पसीने से पूरे देश का पेट भर रहा रहा है। और अगर वो कार कंपनियों की तरह फिक्सड और वर्किंग कैपिटल का आंकलन कर अपना मुनाफा भी जोड़ दे तो महँगी विदेशी कारों में घूमने वाले बड़े-बड़े धन्ना सेठों को रोटी के लाले पड़ जायें। किसी कवि ने कहा था कि सिर्फ दिमाग से खाने-कमाने वाले मेहनतकश से चढ़ कर बोलें, ऐसी व्यवस्था बदल जानी चाहिये। परन्तु सत्ता में आने के बाद सब औद्यौगीकरण और व्यापार के द्वारा पूंजीवाद का राग अलापते नज़र आते हैं। रोटी-कपडा-मकान जैसी मूलभूत समस्यायें हर चुनाव का मुद्दा बन जातीं  हैं और चुनाव के बाद यही समस्याएं गौण हो जातीं  हैं। जो नेता चुनावी मौसम में गरीबों के हमदर्द बने फिरते थे सत्ता में आ कर उनके लिए योजनाएं बनाते हैं और फिर कहते हैं कि जनता तक १० फीसदी रकम ही पहुँच पाती है क्योंकि भ्रष्टाचार है। अगर हमें वोट दोगे तो देश से भ्रष्टाचार अलविदा कह देगा। सभी पिछड़ों को आगे लाना चाहते हैं और अगड़ों को पीछे ले जाना चाहते हैं। ताकि सामाजिक न्याय हो सके। भगवान ने जब सृष्टि बनाई तो हर प्राणी को कुछ गुण दिये ताकि वो जीवन-यापन कर सकें। किसी को ताकत दी तो किसी को भागने की क्षमता। पर भाई लोग ये सिद्ध करने में लगे हैं स्त्री-पुरुष, ज्ञानी-अज्ञानी, निर्धन-धनी सब बराबर हैं। अगर बराबर नहीं हैं तो हम एक ऐसी व्यवस्था प्रतिपादित करेंगे जो सबको बराबर कर देगी। इनका बस चले तो इस व्यवस्था को वैश्विक स्तर पर लागू कर दें। अमेरिका से कहें कि ७०% हमारे आदमियों को ढोना आपकी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है। आपको अमीर होने का अधिकार तब तक नहीं मिल जाता जब तक धरती पर गरीबी और लाचारी है। सभी अपनी-अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए राज्यों के विभाजन के पक्ष में हैं। सम्भवतः मूल भावना ये हो कि बड़े राज्य में नेता ज्यादा हो जाते हैं और कम्पटीशन बढ़ जाता है। राज्य छोटे होंगे तो हमारे लग्गू-भग्गू भी कमेटियों के चेयरमैन बन जायेंगे। बड़ी सेवा की है उन्होंने पार्टी और नेता की। पूरी बात का लब्बोलाबाब ये है कि हर कोई देश की प्रगति चाहता है और भारत के हर आदमी को खुशहाल देखना चाहता है। तो फिर प्रश्न ये उठता है कि हमारी विचारधारा आपकी विचारधारा से अलग कैसे।

इतिहास गवाह है कि पक्ष और विपक्ष संसंद में इन्हीं सब मुद्दों पर एक नहीं हो पाते। भाई जब सब एक ही चीज़ चाहते हो तो कैसी दिक्कत है। ये महाभारत समझ के परे है कि दोनों एक ही बात कर रहे हैं पर विचार अलग हैं। पुरानी महाभारत में एक लेना चाहता था तो दूसरा देने से इंकार करता था। विचारों का भेद रणक्षेत्र में बदल गया। महाभारत हो गयी। पर वो उन्नीस दिन में समाप्त भी हो गयी। बुराई पर अच्छाई की विजय हर कहानी का सुखद अंत है। पर ये कैसी लड़ाई है जो ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही है। एक पक्ष जब सत्ता में आये तो वो १०० डैम बनवा दे। हर रोज़ १० किमी सड़क बनवा दे। साल में ५० भ्रष्टाचारियों को ही नाप दे। विपक्ष कहे कि जब हम सत्ता में आएंगे तो इसका दूना करके दिखायेंगे। साझा सहयोग से देश प्रगति के पथ पर बढ़ जायेगा। पर यहाँ तो होड़ लगी है एक-दूसरे को नीचा दिखने की। सब दूसरे को चोर और नाकारा साबित करने में लगे हैं। सांप्रदायिक ताकतें देश के लिए खतरा बन जाएंगी, ये अभी-अभी पता चला है। सांप्रदायिक लोग गंगाजल ले कर असाम्प्रदायिक होने की बात कर रहे हैं तो तथाकथित गैरसंप्रदायिक ये सिद्ध करने में लगे हैं कि ये दिखावा है। नेता ये पब्लिक है सब जानती है जैसे नारे दे कर जनता को बेवकूफ बनाते रहे हैं। और जनता की बेवकूफियों का हर इलेक्शन में इम्तहान होता है। कम से कम एक चीज़ तो सभी चुनावों ने सिद्ध की है कि हम इस इम्तहान में अव्वल नम्बर से पास होते आये हैं। वर्ना ईमानदार और कर्मठ नेता चुनाव हार जाये और नाकारा गुंडा-डकैत जाति-संप्रदाय के नाम पर विजयी हो जाये, ऐसा हो सकता है क्या। साड़ी-पैसा-दारु बांटने वाले वोट खरीदते आये हैं। घुटे नेताओं के चिकने-चुपड़े चेहरे के पीछे का सत्य टीवी चैनेलों के आने से जनता के सामने है। पर क्या वोट देते समय हम उम्मीदवार की योग्यता को पैमाना मान पाते हैं या उसकी खोखली बातों में उलझ के रह जाते हैं। सदन में बैठ कर क्या विपक्ष सिर्फ विरोध करेगा। रचनात्मक विपक्ष का स्वप्न फिलहाल तो पूरा होता दिख नहीं रहा है। जो पार्टियां एक-दूसरे के खिलाफ घिनौनेपन की हद तक इलज़ाम लगा रही हैं क्या वो किसी भी मुद्दे पर सियासत से बाज आयेंगी इसमें मुझे शक़ है। इलेक्शन कमीशन एक विश्वास ज़रूर दिलाता है कि चुनाव दिन प्रति दिन निष्पक्ष होते जा रहे हैं। अब जनता की बारी है कि वो देश के प्रति अपनी वफ़ादारी सिद्ध करे। कम से कम इतना तो कर ही सकती है कि भ्रष्टाचारी और अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को ही रोक दे। एक बार जो संसद चुन दी जाये वो कम से कम पाँच साल देश चलाये। मुद्दे वही पुराने हैं रोटी-कपडा-मकान, बिजली-पानी-सड़क। हर साल देश के कुछ हिस्से ही सही प्रगति कर जायें। बड़ी-बड़ी योजनाओं ने छोटे-छोटे सरकारी मुलाजिमों को इतनी ताक़त दे दी कि वो जनता की नौकरी करने के बजाय उनके रजा बन बैठे। सेवा के बदले मेवे लेने के आदी हो गये।पूंजीवाद-साम्यवाद-समाजवाद की तरह ये भी एक विचारधारा है, भारतवाद। हमें सिर्फ खुद को और अपने देश को देखना है। जहाँ तक मेरा ज्ञान है लोक माने स्थान होता है तो लोकतंत्र का मतलब हुआ सिस्टम ऑफ़ लैंड, जो अब तक भ्रष्टाचार जैसी असाध्य बीमारी से ग्रसित रहा है। इसे लोगतंत्र या जनतंत्र में परिवर्तित करने की आवश्यकता है। इंटरनेट और टी वी के युग में जनता के पास सूचना की कमी नहीं है बस ज़रूरत है तो दृढ इच्छाशक्ति की। ये तो मै बस एक विचार दे रहा हूँ, इसे धारा बनाना जनता का काम है।

पर मुझे अफ़सोस है कि ये महान ब्लॉग सिर्फ मेरे चाहने वाले चंद पाठकों तक ही पहुँच पायेगा। मेरा इतना लम्बा सारगर्भित प्रलाप सुधि जनता तक पहुँचाना अब उन लोगों का पुनीत कर्तव्य है को ब्लॉग्गिंग की विधा में तन-मन से समर्पित हैं, धन तो अभी तक यहाँ दिखा नहीं है। गुरु जी लोगों से विनम्र निवेदन है कि ३०० लोगों की लिस्ट में से मेरे लिए किसी को हटाइये नहीं बस एक नाम और जोड़ लीजिये और इस लिस्ट को तब तक बढ़ाते जाइये जब तक इस प्रकार के बेगैरत लोग डिमांड करते रहें। अपने चारित्रिक पतन के लिये मै गुरु बाणभट्ट जी से क्षमा चाहता हूँ। पर गुरु जी ये बताइये कि इतना दिल और दिमाग झोंक देने के बाद सिर्फ ४-५ पांच टिप्पणियां मिलें और फॉलोअर लिस्ट में इज़ाफ़ा न हो तो आपका ये कलयुगी चेला क्या करे। इसलिये मेरी बात को दिल पर कतई न लीजियेगा। हिंदुस्तान का चुनाव तो चलता रहेगा। हर पाँच साल के बाद फिर आएगा। पर गुरु जी आपसे निवेदन है कि अपने इस तुच्छ चेले की लेखनी को जाग्रत बनाये रखिये। टी आर पी बढे या न बढ़े। टिप्पणियां मिलें या न मिलें। बंदा अपना ज्ञान ब्लॉग्गिंग की इस फ्री सेवा से झाड़ता रहे और सिद्ध पुरुषों से इसी प्रकार ज्ञान अर्जित करता रहे।  

- वाणभट्ट    

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...