शनिवार, 28 दिसंबर 2013

बिदाई

बिदाई

हमारे देश में बिदाई अपने आप में एक अत्यंत भावुक प्रसंग है। विवाह के उपरान्त वधु की बिदाई बहुत ही मार्मिक हो जाती है अगर कोई बिस्मिल्ला खां साहब की शहनाई बजा दे। रफ़ी साहब का बाबुल की दुआएं लेती जा… अगर बज गया तो तय है कि स्वयं वर, वधु से ज्यादा भावुक हो जाये। कई बार तो वधु को अपना रुमाल देने के बजाय वो खुद उसके आँचल से अपने आंसू पोंछने लग जाता है। अपने विवाह के समय मैंने जब दो शर्तें रख दीं कि बारात का स्वागत भले शहनाई से कर लीजिये पर विदाई कतई नहीं। और ये रफ़ी साहब वाला गाना कहीं से भी कान में नहीं पड़ना चाहिये। धर्मपत्नी के घर वाले चौंक गये। कैसा बंदा है दहेज़ के युग में उट-पटांग सी डिमांड कर रहा है। मेरी मज़बूरी थी कि मै पहले ही दिन अपनी भावुकता का प्रदर्शन करने से बचना चाहता था। पर बिदाई के वक्त इंसेंसटिविटी की इन्तहा हो गयी। अगर टीवी-फ्रिज की डिमांड होती तो लोग याद रखते, मेरी छोटी से ख्वाहिश को सब भूल गये। शहनाई वाले ने बिदाई को यादगार बनाने के लिये बाबुल की दुआएं…धुन छेड़ दी। फिर मेरा क्या जुलुस निकला होगा इसका अन्दाज़ आप सब लगा सकते हैं। बीवी और सास मुझे चुप कराने में लगीं थीं और ससुर बेचारे कन्धा छुड़ाते भाग रहे थे।  

पर यहाँ बिदाई का जिक्र नौकरी से रिटायरमेंट के सन्दर्भ में है। बिदाई विवाह के अवसर पर हो या रिटायरमेंट के, दुखद न भी कहें, तो कुछ अजीब सा अनुभव तो है ही। वहाँ बाप खुश है कि बेटी से फुर्सत मिली अब वो गंगा नहायेगा। यहाँ साथी खुश हैं कि एक निपटा। लेकिन मज़ा ये है दोनों असीम दुःख प्रदर्शित करना चाहते हैं। आम आदमी का रिटायरमेंट भी आम होता है और बिदाई भी। भले सब लोग चंदा दे दें पर विदाई समारोह तक जाने का समय निकाल पाएं ये ज़रूरी नहीं। पर ख़ास आदमी, जो अमूमन बॉस हुआ करता है, के रिटायरमेंट और बिदाई को ख़ास बनाने के लिए उसके चेले कोई कोर-कसर  नहीं छोड़ते। हॉल खचाखच भर जाता है सिर्फ ये देखने के लिए कि चेले जो अब तक बॉस के साथ मौज की रोटियाँ तोड़ रहे थे, कैसे विलाप करते हैं। बॉस जिसके शरीर में पद के कारण जो कलफ़ सी अकड़न आ गयी थी, वो कैसे जाती है।

जिस बॉस ने खौफ़ कायम करके काम लिया हो वो ये भी जानता है कि लोग डर से नतमस्तक थे और मौका पड़ते ही बगावत कर सकते हैं। ये बगावत कोई क्रांतिकारी बगावत नहीं होती। बस लोग निर्णय ले लेते हैं कि गुंडई करने वाले बॉस को फेयरवेल नहीं देनी। रिटायरमेंट तो होना ही है पर फेयरवेल मिलेगी कि नहीं ये निर्णय जनता लेती है। एक तरह से ये आपकी इंटिग्रिटी रिपोर्ट होती है। बॉस बनने के बाद आप पद में निहित अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करते हुये सबकी सत्यनिष्ठा परिभाषित करते हो। हमारे देश ने बॉसों को सत्यनिष्ठा से इम्युनिटी दे रक्खी है। चाहे कितना भी भ्रष्ट अफसर हो उसकी सत्यनिष्ठा नीचे वाले लोग तो भर नहीं सकते।इसलिये फेयरवेल ही मानक है कि आप कितने लोकप्रिय हैं। चूँकि हमारा बॉस मैनेजर से ज्यादा प्रशासक बनने  में लगा रहता है इसलिए वो ये भी सुनिश्चित करना चाहता है कि ऐसी बगावत न हो और अगर होने वाली हो तो पहले से पता चल जाए। इस विषम परिस्थिति से निपटने के लिये वो भी आखिरी दिन तक सी आर का खौफ लटका के रखता है। या ये बता के रखता है कि किसी भी पल अगले छः महीनों के लिए एक्सटेंशन लैटर आता ही होगा। डरे सहमे लोग जिन्होंने आपको कई साल झेला है कुछ और दिन झेलने को विवश हो जाते हैं। बिदाई मिलने के बाद आप धीरे से पतली गली से निकल लेते हो। 

मेरी बिदाई का समय नज़दीक आ रहा था। राज योग की शुरुआत मानो कल की ही बात हो। चार साल कैसे निकल गये पता ही नहीं चला। राज्याभिषेक एक स्वप्न की तरह लगता है। विभाग के उच्चतम पद पर मेरी नियुक्ति एक संयोग से कम नहीं थी। तब मैंने ईश्वर का शुक्रिया भी अता किया था। उस समय मै वाकई सेवा करना चाहता था। पर सिस्टम में पहले से जुटे लग्गू-भग्गू को अपनी मलाई की चिंता हो जाती है। बॉस अगर सबके साथ रहेगा तो आम और ख़ास लोगों में फर्क नहीं रह जायेगा। उन्होंने बताया कि जिनसे काम लेना है उनसे दूरी  बना के रखना ज़रूरी है। उन्होंने मुझे मेरी और मेरे पद में अवस्थित शक्तियों का भान कराया। ये चेंज  कैसे हुआ मुझे खुद पता नहीं चला। मुझमें इन लोगों ने इतनी इनसेक्यूरिटी भर दी कि मैंने लोगों पर विश्वास करना बंद कर दिया। लगता था सब नकारे और निकम्मे हैं और मुझे इनसे काम कराने के लिए भेजा गया है। सख्ती करो तो लगता लोग मुझे और मेरे पद को उचित आदर नहीं दे रहे हैं। जो एक प्रशासक का जन्मसिद्ध अधिकार है। पर एक बार इनसेक्युरिटी की फीलिंग अगर किसी में आ गयी, तो उसके आचार-विचार में कैसे परिवर्तन आ जाता है ये मै अब महसूस कर सकता हूँ। 

अपने को सिक्योर करने के लिए लग्गू ने सुझाया कि सबोर्डिनेट्स में असुरक्षा की भावना जब तक नहीं होगी तब तक आप असुरक्षित ही रहेंगे। तो मीटिंग्स में जो भी बोलने का प्रयास करे उसी पर दाना-पानी ले कर चढ़ जाओ। जब बोलने वाले चुप हो जायेंगे तो न बोलने वाले अपने आप तुम्हारे साथ हो जायेंगे। भग्गू ने बताया कि जो लिखने वाले हैं उन्हें उल्टा मेमो थमा दो। आफ्टर ऑल यू हैव टेन पेंस। लिखने वाले शरणागत हो जायेंगे। जो थोड़ी बहुत चूँ -चाँ करे उसे कमरे में बुला के हड़का दो। लग्गू ने समझाया सिर्फ और सिर्फ हम आपके प्रति वफादार हैं।  भग्गू ने बताया आप सिर्फ हमारा ख्याल रखिये और सारी व्यवस्था हमारे ऊपर छोड़ दीजिये। पूरे चार साल लग्गू-भग्गू ने मुझे कन्फ्यूज़ करके रख दिया। मै सिर्फ ये ही इंश्योर करता रहा कि कौन मेरे साथ हैं और कौन नहीं। चूँकि इस सिस्टम में टारगेट और जवाबदेही सिर्फ नीचे वालों की होती है इसलिए मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं हुयी। पर अब रिटायरमेंट आ ही गया समझो, तो एक चिंता सता रही है कि फेयरवेल मिलेगा या नहीं। इतने दिन मैंने जबरन आदर तो बटोर लिया। पर अब यदि फेयरवेल न हुआ तो ये बात जग जाहिर हो जायेगी कि चार सालों में मेरी जनमानस में कोई पैठ न बन पायी। आजकल ये डर भी लगता है कि जिन्हें सार्वजानिक और व्यक्तिगत रूप से इन वर्षों में अपमानित करता रहा कहीं वो अपने उदगार न व्यक्त कर दें। आजकल तो लग्गू-भग्गू पर भी शक़ होता है। कमरे में कम आ रहे हैं। पर उन्हें ही बुलाना पड़ेगा और कोई तो शायद मेरे बुलाने पर भी न आये।  

लग्गू-भग्गू से अपनी चिंता जब साझा की तो उन्होंने इसका समाधान भी निकाल दिया। लग्गू ने कहा कल से ही हम आपके फेयरवेल के लिए पैसा इकठ्ठा करना शुरू कर देंगे। जो-जो बागी है उनकी लिस्ट दो दिन में आपके हाथ होगी। उनकी सी आर और इंटीग्रिटी के साथ कैसा सुलूक करना है ये निर्णय आपका। भग्गू ने कहा पहले अलग-अलग ग्रुप्स से आपकी बिदाई करवा देतें हैं। शुरुआत मेरे यहाँ से। देखिये कैसी होड़ लगती है आपको बिदाई देने की। मैंने कहा धन्यवाद, यू पीपुल आर रियली जीनियस। दोनों ने एक सुर में जवाब दिया वी आर विथ दी चेयर, सर। 

अब मै निश्चिन्त हूँ एक भाव-भीनी बिदाई पाने के लिए। 

- वाणभट्ट 

पुनश्च : हरिवंश राय 'बच्चन' जी की कालजयी रचना मधुशाला की पंक्तियाँ समर्पित कर रहा हूँ -
      
     छोटे से जीवन में कितना प्यार करूँ, पी लूँ हाला,
     आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जाने वाला',
     स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
     बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन मधुशाला।

अपने विदा की तैयारी स्वागत के साथ ही शुरू कर देनी चाहिए।

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

राज योग

राज योग

ज्योतिषी महोदय कुंडली में घुसे पड़े थे। पोस्ट ग्रेडुएशन के बाद नौकरी के आसार दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहे थे। एक मित्र ने सलाह दी कि पोथी-पत्री भी बिचरवा लो। गृह-नक्षत्रों की चाल ज्ञानी पंडितों से छिपी नहीं रहती। जब आदमी कमज़ोर पड़ता है तो यही सब टोटके उसके लिए जीने का सम्बल हो जाते हैं। सब कुछ सही-सलामत चलता रहे तो कौन पूछता है इन ज्ञानी-ध्यानियों को। 



युवा ज्योतिषी के चेहरे पर एक अद्भुत तेज़ था, या बेरोज़गारी से मेरा तेज़ फीका पड़ गया था, कहना मुश्किल है। कुछ मिनटों की सघन गणना करने के बाद जब उसने कुंडली से ऊपर सर उठाया तो मुझे और मेरे मित्र दोनों को उसने अपनी भविष्यवाणी सुनने हेतु लालायित पाया। गुरु-गम्भीर आवाज़ में उसने फ़रमाया जातक की कुंडली में राज योग है। ये बहुत आगे जायेगा और राज सुख का भागी बनेगा। मैंने मन ही मन कहा बेटा ज़माने के साथ तू भी उड़ा ले मज़ाक मेरी मुफलिसी का। पर मेरा दोस्त खुश हो गया और उसके हाथ पर दस रूपया रख दिया। बाद में मैंने कहा यार ये दस रुपये तेरे उधार रहे। दोस्त बोला जब डी-एम, वी-एम बन जाओगे तो सब सूद-ब्याज़ सहित वसूल लूंगा। उसी के कहने पर जी एस की किताबें भी खरीद लीं आईएएस / पीसीएस के फॉर्म भर दिये। तथाकथित तौर पर भरसक तैयारी में जुट गया। विशिष्ट क्षेत्र में अध्ययन के बाद विकल्प सीमित हो जाते हैं। दूसरे विषयों के साथ प्रतियोगिताएं निकालना किसी चुनौती से कम नहीं है।



बहरहाल खुशकिस्मत रहा कि जिस विश्वविद्यालय से पढाई की थी वहीँ अध्यापन हेतु कुछ रिक्तियां आ गयीं। गुरु जी लोग मुझे अपनी विद्वता की वजह से तो नहीं पर चरणवंदन प्रवृत्ति के कारण जानते थे। सो उन्होंने घर से बुलवा कर अप्प्लाई करवा दिया। मेरा सेलेक्शन अवश्यम्भावी था और ऐसा हुआ भी। अध्ययन-अध्यापन ऐसा क्षेत्र है जिसमें गुरू शिष्यों को सिखाने की प्रक्रिया में विषय ज्ञान प्राप्त करता है। जो विषय पढते समय दुरूह लगते थे पढ़ाते-पढ़ाते कंठस्थ हो गए। विद्वत समाज में उठते-बैठते मुझे अपने ज्ञानी हो जाने के बारे में कोई संशय नहीं रह गया था। छात्र तो गुरु को खुश रखने में वैसे भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखते। मैंने भी कई घंटाल टाइप के गुरुओं की सेवा की थी जिसका मेवा अब मिल रहा था। तभी मैंने निर्णय लिया था कि अगर गुरु बनना है तो गुरु-घंटाल ही बनना है। इस विधा के सारे गुर मालूम ही थे। छात्रों में अपना भय क्रिएट करो। पढ़ाओ कम, डराओ ज्यादा। तभी सब चेले बन के रहते हैं। वर्ना सिर चढ़ जाते हैं। भगवान् राम ने भी भय बिन प्रीत की सम्भावना से इंकार कर दिया था। 



राज योग के अपने लक्षण होते हैं। तामसी प्रवृत्तियां न हों तो कैसा राज योग। इस नाते मैंने मांस-मदिरा जैसे आसुरी गुणों को अपनी जीवनशैली बना लिया। जब ताक़त होगी तभी तो इंसान शरीर का सम्पूर्ण आनंद उठा पायेगा। जिस समाज में अधिकाँश व्यक्तिगत उन्नयन का मूल में ही भ्रष्टाचार व्याप्त हो वहाँ कदाचार कब सदाचार बन जाता है किसी को पता ही नहीं चलता। दबंग और घूसखोर आदरणीय बन जाते हैं। ईमानदारी और देशभक्ति गुनाह में तब्दील हो जाते हैं। यहाँ दवाई की तस्करी करने वाला स्वास्थ्य मंत्री बन सकता है और राशन की  ब्लैक मार्केटिंग करने वाला रसद मंत्री। ऐसे देश में सफल से सफल व्यक्ति भी यदि केजरीवाल सरकार के बनने से पहले उसके के फेल हो जाने के प्रति आशान्वित नज़र आयें तो कैसा आश्चर्य। बहरहाल मैंने सीधा और सरल रास्ता अपनाया। सिद्धांत और मूल्यों के चक्कर में कभी खुद को नहीं बांधा। पाथ ऑफ़ लीस्ट रेसिस्टेंस। जैसे नदी अपना रास्ता खुद बना लेती है। ये बात अलग है कि वो सिर्फ ऊपर से नीचे ही जा सकती है। गिरना हमेशा चढ़ने से आसान होता है। धारा के विपरीत चलने में अनावश्यक शक्ति ह्रास होता है। उधर चढ़ने में शिखर है तो इधर गिर कर भी समुद्र मिलता है। त्याग करके यदि गांधी शिखर पर पहुँचता है तो भोग करके जिन्ना भी समुद्र तक पहुँच ही जाता है। 



शिखर में एक खराबी है। आप सबके स्कैनर पर होते हैं। पूरी दुनिया आपके फिसलने का इंतज़ार कर रही होती है। ज़रा भी चूके तो हर तरफ थू-थू। जगहंसाई के पात्र बनिए सो अलग से। कीचड़ में रहिये तो चाहे फिसलिये, चाहे लोटिये, चाहे डुबकी लगाइये किसी को आपति न होगी। सरकारें मुफ्त चावल बाँट सकतीं हैं, बेरोजगारी भत्ता और कंप्यूटर भी बँट सकता है। पर केजरीवाल जल माफियाओं के रहते दिल्ली को पानी कैसे पिलाता है इस पर सभी नेताओं और मीडिया की भयंकर दिलचस्पी है। 



खैर मै अपनी बात करता हूँ। दुनिया जैसे चलती है मैंने वैसे ही चलने का निर्णय लिया और देश-समाज के लिहाज से खासा सफल भी रहा। पीएचडी वालों से दारु के साथ मुर्गा और परास्नातकों से सिर्फ दारू वसूलना अपना एक मात्र उसूल था। जब सबको आपका रेट मालूम हो तो ज्यादा दिक्कत भी नहीं होती। सब राजी-ख़ुशी मेरी ये तुच्छ इच्छा पूरी कर देते। मै भी मस्त और बच्चे भी। छात्रों पर अपनी मजबूत पकड़ थी, इसी को मै राज योग का लक्षण समझ कर आनंदित हो लेता था।



पर असली राज योग क्या होता है ये मालूम होना अभी बाकी था। समय ने करवट ली और मै उसी विभाग का विभागाध्यक्ष बना जिसमें मै पढ़ा रहा था। सीनियॉरिटी के लिहाज़ से भी अपने सहकर्मियों में वरिष्ठ हो चला था। ये मेरी पहली प्रशासनिक उपलब्धि थी। अब तक मै अपने अग्रजों की सुख-सुविधाओं का ख्याल रखता था अब मेरे सबोर्डिनेटों का ये दायित्व था कि वे मुझे खुश रखें। मुझे खुश करना इतना कठिन भी नहीं था। चूँकि यहाँ सब मेरी पूरी कुंडली जानते थे इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं हुयी खुद को स्थापित करने में। पर असली चुनौती तब शुरू हुयी जब मेरी नियुक्ति दूसरे प्रदेश में एक संस्थान के निदेशक के तौर हो गयी। नए लोग, नए माहौल में खुद को स्थापित करना एक चुनौती से कम नहीं था। पर अब तक मै सहज मानवीय गुणों में प्रवीण हो चुका था। ऊपर वालों को कैसे खुश रखना है ये मेरी सहज प्रवृत्ति में आ गया था। कोई प्यार से बिकता है, कोई सेवा से, तो कोई पैसे से। जिसको जो चाहिये मेरी पोटली में सबके लिए कुछ न कुछ था। पर नीचे वालों को पालतू बनाने के गुर अभी सीखना था।



अन्य अपने सरीखे (पीने-खाने वाले) निदेशकों के समक्ष जब अपनी समस्या बखान की तो सुझाव तुरंत मिल गए। पहला सरकारी नौकरी का आदमी सिर्फ और सिर्फ काम करके आगे नहीं बढ़ सकता। उसकी सी आर अफसर के हाथ होती है। सभी कर्मचारियों में इसका खौफ होना चाहिए इसी के अतिउत्कृष्ट या उत्कृष्ट होने पर उनकी पदोन्नति निर्भर रहती है। दूसरा लाइक माइन्डेड लोगों को साथ रक्खो। तीसरा आम कर्मचारी से खुद को दूर रखने से आपके बारे में हर कोई जान नहीं पता और सदैव सशंकित रहता है। पहले और तीसरे के बारे में तो कोई संशय नहीं था। दूसरे को इम्प्लीमेंट करने में मेरी आसुरी प्रवृत्तियों ने साथ दिया। मैंने लौटते ही सारे अपने नीचे के उच्च पदस्थ सहकर्मियों को दारु और चिकेन की पार्टी का न्योता दे डाला। मुझे विश्वास था लाइक माइन्डेड ऐसे ही मिल पाएंगे। साथ ही अनलाइक माइन्डेड लोग भी चिन्हित हो जायेंगे। ऐसा हुआ भी। अब वो लोग जो संघर्ष कर के शिखर तक जाना चाहते हैं सारे चिन्हित हो चुके हैं। मै उनके संघर्ष तो कठिन बनाने में यथाशक्ति-यथासम्भव योगदान कर रहा हूँ। लाइक माइन्डेड लोगों को अब पार्टी देनी नहीं पड़ती अब वे ही मुझे पार्टी देते हैं। आजकल मेरी पांचों उँगलियाँ घी में हैं और सर कढ़ाई में। जिधर मै निकल जाता हूँ लोग दड़बे में घुस जाते हैं। झुक-झुक के सलाम करते लोग किसे अच्छे नहीं लगते। इस प्रदेश के लोग वाकई उलटे हैं जितना लतियाओ उतनी वफ़ादारी पाओ। चार सौ साल की गुलामी और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था ने गुलाम ही पैदा किये हैं। आदमी का राज आदमी के ऊपर यही राज योग है। 



मेरा राज योग अब शुरू हुआ है। राज योग शायद ऐसा ही होता हो। 



- वाणभट्ट 




    

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

मजमा

मजमा  

साढ़े ग्यारह बजने को थे। इलाहाबाद के चौक में घंटाघर के पास गहमा गहमी का माहौल अपने शबाब की ओर बढ़ रहा था। असली भीड़ तो एक-दो बजे के बाद होती है। जब घर-गृहस्थी से फुर्सत पा कर महिलायें पूरे बाज़ार पर हावी हो जातीं हैं। घंटाघर के पीछे छिपे मीनाबाजार की रौनक अभी इक्का-दुक्का ग्राहकों तक ही सीमित थी। कुछ लोग भीड़ बढ़ने से पहले चौक की संकरी गलियों से निकल लेना उचित समझते हैं। ये ऐसे ही लोगों की जमात थी। सेल्स मैनों की संख्या दुकान पर खरीददारों पर भारी जान पड़ रही थी। मालिक भगवानों की खुशामद में लगे थे और उनके कारिंदे काम बढ़ने के पहले एक-दूसरे से अटखेलियों का पूरा लुफ्त उठा लेना चाहते थे।

एक मौलाना ऐनक लगाए ठठेरी बाज़ार की तरफ से कब निकल आये किसी ने ध्यान भी न दिया। वो परम आदरणीय छुन्नन गुरु की प्रतिमा की ओर मुंह करके घंटाघर की घडी की ओर एकटक निहारने लग गये। उनके चेहरे की परेशानी-चिंता साफ़ पढ़ी जा सकती थी। लग रहा था कोई जिन्न घडी से प्रकट होने वाला हो। उनकी देखा देखी कुछ चिल्लर पार्टी भी मुंह उठाये घडी की ओर देखने में मशगूल हो गयी। एक बच्चे से रहा नहीं गया। पूछा ही लिया कि मियां जी क्या देख रहे हो। उन्होंने मुंह पर उंगली लगा कर उसे चुप रहने का इशारा कर दिया। बच्चों में कौतूहल कुछ और बढ़ गया। वो भी टकटकी लगा कर उधर देखने लग गए जिधर मौलाना देख रहे थे। 

एक सायकिल वाला उधर से गुज़र रहा था, वो भी इन्हें अजीबोगरीब अवस्था में देख कर रुक गया। पूछा क्या हो रहा है तो बच्चों ने उसे भी चुप रहने का इशारा कर दिया। वो भी बड़ी हसरत के साथ उस ग्रुप में शामिल हो गया। एक स्कूटर वाले भाई साहब ने अपना स्कूटर स्टैंड पर लगा दिया। और उस समूह का हिस्सा बन गए।जो लोग मार्किट में आ जा रहे थे उनकी भी उत्सुकता कुछ बढ़ गयी। धीरे-धीरे करके समूह बढ़ता ही जा रहा था और कोई भी किसी को कुछ भी बता पाने की स्थिति में नहीं था। संयोग से मेरे पास भी कुछ समय था। अटैची की चेन ठीक करने वाले के आने का समय तो हो चला था पर वो अभी आया नहीं था। उसकी दुकान ठीक घंटाघर के नीचे फुटपाथ पर हुआ करती थी। लिहाज़ा मै भी उस भीड़ में शामिल हो गया। समय बीतने के साथ-साथ लोगों के चेहरे पर उत्सुकता के भाव आ जा रहे थे। पर मौलाना थे कि भीड़ से बेफिक्र घड़ी की ओर देखे जा रहे थे। दुकानों से लोग भी निकल के बाहर आ गए। लगभग जाम की सी स्थिति बन गयी थी।   

कुछ पुलिसिया भी वहाँ आ गये। और तहकीकात में जुट गए कि क्या हो रहा है। पर किसी को कुछ मालूम हो तो बताये भी। वो भी घडी की ओर सर उठा के खड़े हो गए। अजीब माहौल बन गया कि पता नहीं घंटाघर में क्या होने वाला है। जो आये वहीं पर थम जाए। कुछ लोग दूरबीन ले आये ताकि सही-सही देख सकें। वहाँ होने वाली वाली किसी घटना से वो चूक न जायें। भीड़ में कुछ प्रेस फोटोग्राफर भी आ गये और विभिन्न एंगल से भीड़ की फ़ोटो लेने में लग गए। पुलिस वालों को काम मिल गया। वो भीड़ को हांकने में जुट गए। पर भीड़ थी कि एक तरफ से हटती तो दूसरी तरफ जा खड़ी होती। सबकी निगाह घड़ी की टिक-टिक करती सुइयों पर टिकी थी। 

मौलाना भीड़ से बेफिक्र ही रहे और धीरे से वापस ठठेरी बाज़ार की ओर चल दिये। किसी का उनकी ओर ध्यान भी नहीं गया। सब तन्मय हो कर ऊपर देखने में व्यस्त थे। कोने पर बैठे तमोली ने मौलाना को भीड़ से निकलते देख लिया। पूछा ये क्या मज़मा लगा दिया मियाँ। मियाँ बोले बारह बजे पोती को स्कूल से लेने जाना होता है। आज मेरी घड़ी ख़राब हो गयी थी इसलिए घंटाघर आ गया। बारह बज गए हैं मै जा रहा हूँ पोती को लेने। तमोली ने कहा कल फिर आइयेगा। आप के फ़ज़ल से खूब पान बिक गए सुबह-सुबह।

घंटाघर पर भीड़ बढती ही जा रही थी। मेरी अटैची वाले का अभी तक कोई अता-पता नहीं था।   

- वाणभट्ट 

अंत में : ये घटना विनय भाई ने सुनाई थी। ये भाई टाइप के भाई नहीं हैं। ये वाकई भाई हैं। इस कथानक का कॉपीराइट उनका ही है। मेरी तरफ से ये कहानी कॉपीलेफ्ट है। दिल खोल के कॉपी कीजिये, पेस्ट कीजिये।  
   

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म य...