मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

शिक्षा का उद्देश्य

उन दिनों ऐसा न था। सरकारी स्कूलों में पढना फ़क्र की बात थी। क्योंकि अनार कम थे बीमार ज्यादा। अब की तरह हर कोई पढ नहीं सकता था। स्कूल कम थे, पढ़ने वाले ज्यादा। राजकीय विद्यालय में दाखिला एक बड़ा काम था। प्रवेश परीक्षा में सीटें सीमित थीं। छठवीं में प्रवेश होता था या नवीं में। हर कक्षा में अनुमन्य सीमा 40 छात्रों की होती थी, पर वास्तव में 120 बच्चे कक्षा को गुलज़ार कर रहे होते थे। छठवीं में सीटें ज्यादा होतीं थीं, सो दाखिला कुछ आसन होता था, पर नवीं में दाखिला मानो किसी इंजीनियरिंग कालेज का प्रवेश हो। आठवीं की गर्मी की छुट्टियाँ इसी क्रम में शहीद हो गयीं थीं। पर पूरे इलाहाबाद में दूसरा कोई ऐसा कालेज न था, जिसमें पढ़ने में पिता जी को लेश मात्र भी गर्व होता। चूँकि आगे पढना ज़रूरी था और सरकारी स्कूल के अलावा किसी और स्कूल में पढना या न पढना बराबर माना जाता था। इसलिये मन मसोस कर भाइयों अपनी छुट्टियाँ क़ुर्बान करनीं पड़ीं। 

पिता जी शायद नर्सरी में प्रवेश करने गये हों तो गये हों, उसके बाद तो हर जगह अपने अभिभावक बन कर हम स्वयं ही गये। जीआईसी, इलाहाबाद में प्रवेश करने की ख़ुशी पहले दिन ही काफ़ूर हो गयी, जब कक्षा में सौ-सवा सौ बच्चे बैठे मिले। हम छोटे स्कूल से गये थे, जहाँ प्रार्थना ग्राउंड पर सारा स्कूल एक साथ खड़ा हो जाता था। ज्यादातर टीचर हर छात्र-छात्रा को नाम से जानतीं थीं। प्रधानाचार्या से लेकर दाई तक सभी महिलायें थीं। बसों के ड्राइवर या चपरासी ही बस पुरुष थे। सख्त अनुशासन हमारी अध्यापिकाओं का शगल था। और ये शौक़ सिर्फ़ स्कूल या क्लास की चारदीवारियों तक सीमित नहीं था। मैनर्स-एटिकेट्स पर भी लेक्चर दिये जाते थे। क्या मजाल कि हम स्कूल के बाहर भी चाट या चूरन या पाँच पैसे की सेक्रीन वाली आइसक्रीम खाते दिख जायें। एक लेक्चर पक्का समझिये। एक बार कुछ लड़कों को सिर्फ़ इसलिये सजा मिल गयी कि उन्होंने हँसी-हँसी में पीने के पानी के लिये लिखे स्लोगन को कुछ तोड़-मरोड़ दिया था। एक छात्र ने मज़ाक में फ़रमाया 'पानी बहाओ, पियो मत', बाकि छात्र हँस दिये। किसी अध्यापिका ने सुन लिया। फिर तो उस ग्रूप की जो क्लास ली गयी वो वाकया आज तक जेहन में है। तभी से मुझे लगता है कि महिलायें जितनी कानून व्यवस्था बना के रखतीं हैं, उतना पुरुषों के बस की बात नहीं है। पुरुष वैसे भी कानून तोड़ कर ज़्यादा ख़ुश होते हैं।

जीआईसी में राम राज्य था। कितने बच्चे उपस्थित हैं, कितने नहीं जानने के लिये प्राचार्य महोदय के पास न कोई जिन्न था, न कोई चिराग। अगर सारे बच्चे किसी दिन क्लास करने के मूड में आ भी गये, तो समस्या थी कि बैठें कहाँ। और किसी तरह खिड़की-दरवाज़ों पर चढ़ के बैठ भी गये तो उन्हें कंट्रोल करके विषय को पढ़ा पाना असंभव तो नहीं था, पर अध्यापकों के लिये कठिन ज़रूर था। जैसे ही अध्यापक महोदय बोर्ड की ओर मुड़ते कक्षा जीवंत हो जाती। यहाँ सारे पुरुष अध्यापक थे और उनका अनुशासन, जैसा मैंने पहले ही कहा है, हमारी आठवीं की अध्यापिकाओं जितना नहीं था। विज्ञान और गणित की कक्षाओं में उपस्थिति फुल रहती थी। हिन्दी, अंग्रेज़ी और वैकल्पिक विषयों में छात्र नदारद रहते। जैसे ही हिन्दी या इंग्लिश के अध्यापक कक्षा में प्रवेश करते, बच्चे खिड़कियों से कूद-काद कर भाग लेते। गलती से कभी क्लास में ज़्यादा बच्चे होते, तो हमारे हिंदी के प्राध्यापक पूछ बैठते - बेटा तुम लोग भाग नहीं पाये या वाकई हिन्दी पढ़ने की इच्छा जागृत हो गयी है। इस माहौल के बाद भी पढ़ने वाले पढ़ ही लेते। 120 बच्चों में कोई बोर्ड टॉप भी करता कोई आईआईटी निकालता। श्रेय निश्चय ही हमारे स्कूल और अध्यापकों को मिलता। इसलिये हर अभिभावक, जो कान्वेंट की फ़ीस नहीं अफोर्ड कर सकता था, का सपना होता कि मेरा बच्चा जीआईसी में पढ़े।  

चूँकि मै अनुशासित स्कूल का छात्र था, इसलिये कक्षा बंक करने का विचार मेरे मन में कभी नहीं आया। मै सभी विषयों की क्लास अटेंड करता। विज्ञान और गणित के टीचर तो सिर्फ टॉपर और पढ़ाकू किस्म के छात्रों को जानते थे, जो स्टाफ़रूम में उनसे मिल कर उनसे अपनी समस्याओं पर डिस्कशन करते थे। मेरी उपस्थिति सभी विषयों की कक्षाओं में अनिवार्य थी। टॉपर तो मै नहीं था, पर सभी विषयों में मेरा दख़ल टॉपरों से कुछ ही कम था। हिन्दी से लेकर मैथ तक सभी विषयों में मै लगभग बराबर अंक प्राप्त करता। हिन्दी और अंग्रेजी के अध्यापक मेरी निष्ठा से ज्यादा प्रभावित थे और विशेष स्नेह दिया करते थे। अंग्रेज़ी के अध्यापक थे, नूर साहब। बेहद चलते-पुर्जे। अनेक सरकारी इम्तहानों की कॉपियाँ जाँच कर वो ख़ासी आय अर्जित कर लिया करते। अपने घर पर 15-20 बच्चों को बुला लेते। उनकी पत्नी मेज़ पर बैठ जातीं और जोर-जोर से आन्सर बोलती जातीं, पहले का ए, दूसरे का सी...। और चंद घंटों में सारी कापियाँ जँच जातीं। सिर्फ चाय-नाश्ते की 
ख़्वाहिश में हम सभी उनके पेपर जाँचने के लिये श्रमदान करने को उतावले रहते। नूर साहब की आँखों की शोभा एक ऐसा चश्मा बढाता था जिसमें से उनकी आँखें किधर देख रहीं हैं, ये जान पाना कठिन था। यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि वो सनग्लास नहीं था, पावर इतना ज्यादा था कि उसके ग्लास में गोले के अन्दर गोले और गोले के अन्दर गोले और गोले के अन्दर गोले पड़ा करते थे। कितने गोले पता नहीं। वो बच्चों से ही किताब पढ़वाते और एक-एक लाइन की व्याख्या करते। जो बच्चा फँस जाता वो और नूर साहब ही उस पढ़ाई का लुफ़्ट उठा पाते। बाकी मटरगश्ती किया करते।  

मेरी स्थिति वही थी जैसे जेल से छूटे कैदी की। अत्यधिक अनुशासन से अनुशासनविहीनता की स्थिति। और अब मुझे इसका आनंद भी आने लगा था। नूर साहब की क्लास इसके लिये सर्वथा उपयुक्त हुआ करती थी। अमूमन क्लास टॉपर मेरे ठीक आगे बैठता था, लेक्चर थियेटर की पहली पंक्ति में। हमारी अच्छी मित्रता भी थी। इसलिये किसी भी बोर से बोर क्लास में हम आनन्द के कुछ पल खोज ही लेते थे। उस दिन कुछ ऐसा ही हुआ। उसकी कुर्सी के पटरे की कील निकल गयी थी। और वो जरा भी हिलता-डुलता पटरा सरक जाता। वो दोस्त ही क्या जो फटे में टाँग न अड़ाये। बाकि क्लासें तो ठीक-ठाक गुज़र गयीं। नूर साहब की क्लास का मै इंतज़ार कर रहा था। आते ही उन्होंने 'अ प्ले बाई टैगोर' के पाठ के लिये एक लडके को चुन लिया और सराबोर हो कर उसकी पंक्तियों को एक्सप्लेन करने लगे। मैंने टॉपर के पटरे को लात से हिलाना शुरू कर दिया। इस खेल में उसे भी मज़ा आने लगा। उसने मेरा पैर पकड़ लिया। मै भी टाँग छुड़ाने के प्रयास में लग गया। इस पूरे कार्यक्रम हम इतना डूब गये की देश-काल-सीमा का ज्ञान ही नहीं रहा। मास्टर जी पहले से ही टैगोर की गाथा में आकंठ डूबे हुये थे। 

मैंने अपने पैर को ज़ोर से खींचा, टॉपर ने उसे आगे खींचा। और ये क्या मेरा पैर बिना किसी व्यवधान के पीछे आ गया। पर देखता हूँ कि मेरा जूता एक परफेक्ट प्रोजेक्टाइल लेता हुआ आगे की ओर जा रहा है। मैथ के प्राचार्य जिस प्रोजेक्टाइल को थ्योरी में समझाया था और वो मेरी समझ में कम आया था, इस दुर्घटना से एकदम क्लियर हो गया। 45 डिग्री पर गोला दागो तो सबसे दूर जाता है। नूर साहब के कान को मिस करता हुआ वो जूता मेज पर विराजमान हो गया। तन्मयता से पढ़ा रहे नूर साहब को पहले तो कुछ समझ नहीं आया। पर मेज पर गिरी अजीबोगरीब आकृति और धप्प की आवाज़ ने उनका ध्यान खींच  ही लिया। उन्होंने झुक कर उस बला का मुआयना करना शुरू कर दिया। ख़ुशबु से या आकार से उन्हें शीघ्र समझ आ गया कि ये किसी का जूता है और शायद उन्हें लगा होगा किसी ने फ़ेंक कर मारा है। पूरी क्लास सन्नाटे में आ गयी। मै भी और टॉपर भी। कोई और होता तो गुस्से से आग-बबूला हो गया होता पर नूर साहब का सब्र काबिलेतारीफ़ था। उन्हें अपनी लिमिटेशन भी मालूम थी। उन्होंने क्लास की ओर निहारा। उन्हें कुछ दिखाई तो देने से रहा। इसलिये मै कुछ निश्चिन्त था। पर सभी जानते हैं कि टॉपर लोग कैसे होते हैं। वो घबरा गया। "सर ये मेरा नहीं है।" "तो फिर किसका है।" नूर साहब ने अपनी दूर-दृष्टि का उपयोग किया। "सर इसका।" नूर साहब का चेहरा गुस्से में लाल हो गया। लगा कच्चा चबा जायेंगे। टॉपर की उंगली मेरी ओर इशारा करने ही वाली थी कि मै मेज के नीचे घुस गया। नूर साहब ने मेरे पीछे वाले छात्र पर अपनी क्रोधित निगाह डाली। मेरा पकड़ा जाना तय था। मरता क्या न करता, जूता छोड़ कर मै खिड़की की ओर भागा। जब तक नूर साहब समझ पाते मै ये-जा, वो-जा।  

अगले दिन मै उनकी क्लास में वैसे ही बैठा था जैसे की कुछ हुआ ही न हो। उन दोस्तों का मै अभी भी शुक्रगुज़ार हूँ, जिन्होंने मेरा नाम अपनी ज़ुबान से नहीं लिया। आज मै नूर साहब, जहाँ भी हों, से इस लेख के माध्यम से उस कृत्य के लिये क्षमा की रिक्वेस्ट भी प्रेषित कर रहा हूँ।

प्रोजेक्टाइल का जो फंडा उस दिन मिला, उसके बाद मैंने कभी भी क्लासरूम को अपने और अपने अध्ययन के बीच आने नहीं दिया। आउट ऑफ़ बॉक्स होने के कारण अक्सर आउट ऑफ़ क्लास ही रहा. वैसे भी शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की प्रवृत्तियों को मुक्त करना ही तो है।

- वाणभट्ट
        

समृद्धि

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