हामिद का चिमटा
पूरी पार्किंग में मेरी कार अलग ही दिखाई देती है. अपने इर्द-गिर्द खड़ी गाड़ियों पर नज़र डालते हुए मेरे दिल में एक सुखद भाव अनायास तैर गया. हर तरफ नये-नये मॉडेलों की कारें खड़ी हुईं हैं. जब से ये पे कमीशन आया है हर तरफ सम्पन्नता का दौर दिखाई देने लग गया है. सरकारी लोग जो कभी अपनी दरिद्रता का बखान करते नहीं अघाते थे. अब नयी-नयी गाड़ियाँ फ्लौंट करते घूम रहे हैं. भाई जब कमा रहे हैं तो छिपाना कैसा. ये बात दीगर है कि उन्हीं के प्राइवेट काउंटर पार्ट उनसे चार गुनी ज्यादा तनखाह उठा रहे हैं. पर सरकारी लोगों के लिए यही काफी है कि वो अपने अड़ोसियों-पड़ोसियों से कुछ ज्यादा कमा रहे हैं. और बात जब रौब गांठने की हो तो गाड़ी ही एक मात्र स्टेटस सिम्बल है. जब से ब्रांडेड कपड़ों और फैशन अक्सेस्सरिज़ का चलन बढ़ा है, बन्दों को (और बंदियों को भी) देख कर उनकी औकात का पता लगाना मुश्किल हो गया है. काल्विन क्लेन या रे-बैन के चश्मे होंगे. गले में तनिष्क की मोटी सी चेन. ला-कोस्ट या एड़ीडैस ( जिसे मै लाकोस्टे या आदिदास समझता था) की शर्ट. ली/लेविस/लीकूपर की जींस. नाइकी या रीबाह्क (जिसे मै नाइके या रिबोक बोलता था) के जूते. मोज़े हेंस या पुमा के. बेल्ट कोच या ट्रअफलगर की. यहाँ तक की अंतर्वस्त्रों की बात होगी तो जॉकी के होंगे या डीज़ल के. जैकेट या स्वेटर होंगे तो रेमंड या मोंटे कार्लो के. रोलेक्स या अरमानी की घडी. यानि आदमी पूरा चलता-फिरता ब्रांड अम्बेसडर बना हुआ है. बहुत कठिन हो गया है आम और अमरुद आदमी में फर्क करना.
कुछ लोगों ने दूध और पानी को अलग करने के लिए स्वान (यानि हंस) विधि अपना ली है. यदि आदमी को पहचानना हो तो देखो वो किस गाड़ी से उतरा है. उसी के अनुसार उनको आदर-सत्कार पाने का हक है. वैसे ये बात पार्टी या उत्सवों पर ही लागू होती है. दफ्तरों में तो हर कोई हर किसी की हर बात जानता है. इसलिए ये बात यहाँ लागू नहीं होती पर खानदानी रईस दिखने के लिए नफासत को पोर-पोर से झलकना चाहिए. और इसकी प्रैक्टिस के लिए ऑफिस से मुफीद कोई जगह हो सकती है क्या भला. सो ब्रांडेड आदमी जब अठलखिया कार से उतरता है तो पूरे दिन इसी खुमार में घूमता है की शाम को फिर इसी में सवार हो कर वो लोगों के दिलों पर लोटता सांप छोड़ कर पुनः अपने बिल में घुस जायेगा.
जैसे खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है, फिजां में नयी-नयी कार लेने की बयार चल पड़ी. व्यापारियों में तो चलन तीस लाख से ऊपर वाली कारों का चल गया पर बाबू लोग आठ-दस लाख पर ही अटक गए. बच्चों की पढाई और उनकी शादी का ख्याल एक नौकरी-पेशा आदमी को खुल कर ऐय्याशी भी नहीं करने देता. और वैसे भी इन्हें कार चलाने से ज्यादा दिखाने की फ़िक्र हुआ करती है. अड़ोसी-पडोसी ने देख ली और यार-दोस्तों ने थोड़ी तारीफ़ कर दी तो इनका पैसा लगाना स्वारथ हो गया. अब टोयोटा, फोक्सवैगन, फोर्ड, निसान, पोर्सा, स्कोडा आदि एवं इत्यादि मिडिल क्लास इंसानों को लुभाने में लगे हैं.
ये पार्किंग किसी ऑफिस की नहीं थी. मिस तनरेजा के तीसरे पति के भाग और चौथे पति के मिल जाने की ख़ुशी में पार्टी रक्खी गयी थी. कैम्पस के सामुदायिक मिलन केंद्र में. मिस तनरेजा इस तरह के उत्सवों को बेहद सादे तरीके से मनाना पसंद करतीं थी. वर्ना वो ये पार्टी लैंडमार्क में भी दे सकतीं थीं. पर इससे, होने वाले वर को अपनी महत्ता का गुमान होने का शक हो सकता था. हाँ वो नयी-नवेली दुल्हन की तरह पोशाक बनवाना कभी न भूलतीं. और अपने विभाग तथा इष्ट-मित्रों को अपनी इस ख़ुशी में अवश्य शामिल करतीं. मै उनके इस उपलक्ष्य में आयोजित प्रीति-भोज में पधारा था. मुझे अपनी बेवकूफियों पर उतना ही गर्व है जितना समझदारों को अपनी समझदारी पर. ऊपर वाले ने मुझे ये नेमत दी है कि मै बड़ी आसानी से अपने आप को किसी भी प्रचलित चूहा दौड़ से अलग रख सकूं. इसीलिए जब लोग अपनी नव-अर्जित समृद्धि को लिबास और दिखावे पर खर्च करते, मै फक्कड़ी को अपनी ढाल बना के चलता. सो होंडा और टोयोटा के ज़माने में मारुती-८०० रखना और उस पर फक्र करना मुझ जैसे बिरले इंसान के ही बस की बात है. पाठकगण यदि मै अपनी शान में कुछ ज्यादा कह गया हों तो माफ़ कीजियेगा. और यदि आप भी दिखावे के ज्वर से पीड़ित हों तो इसे अनर्गल प्रलाप समझ कर मेरी मानसिकता को कोसने का मौका अपनी टिप्पणियों में मत छोड़ियेगा. पर मै क्या करूँ, मै ऐसा ही हूँ.
हाँ तो मै मिस तनरेजा कि पार्टी अटेंड करने आया था. १९९५ का मॉडल जो मैंने सन २००० में सेकेण्ड हैण्ड ख़रीदा था, उसे २०१२ तक मेंटेन करने का गुरुर वो ही समझ सकता है जिसने मशीन का दिल देखा हो. कोई भी मशीन बूढी नहीं होती नयी-नयी तकनीकें आ जातीं हैं. कुछ सुविधाएं बढ़ जातीं है. आज भी जब मै अपने पी-फोर कंप्यूटर पर काम करता हूँ तो महसूस करता हूं कि माइक्रोसोफ्ट के सोफ्टवेयर के लिए बार-बार हार्डवेयर बदलना कहाँ की समझदारी है. जबकि प्रोसेस्सर नहीं मेरी खुद की स्पीड मेरी कार्य की गति निर्धारित करती है. बहरहाल मैंने अपने चारों ओर विराजे ने वाहनों में विद्यमान नयी तकनीकों पर प्रसंशा की एक दृष्टि डाली. मन ही मन अपनी मेंटेनेंस को भी सराहा और पार्टी स्थल की ओर कूच कर गया.
वहां उपस्थित सभी अतिथियों ने भी मेरे आने को भली-भांति नोटिस कर लिया था. पुराने साइलेंसर कुछ कम काम करते थे. कुछ लोग मुस्करा रहे थे. कुछ कमेन्ट मार रहे थे "लो आ गया फटीचर". मैंने उन सबको अनसुना करके मिस तनरेजा और उनके नये पति को बधाई देना उचित समझा. हद तो तब हो गयी जब मिस तनरेजा ने मेरा इंट्रो अपने पति से करवाया. "हनी, ये वर्मा जी हैं, हमारे यहाँ वैज्ञानिक के पद पर काम करते हैं. एकदम ज़मीन से जुड़े इंसान हैं". पतिदेव को देख कर जितना मै मुस्कराया उससे कहीं ज्यादा वो मुस्कराए. मुझे लगा शायद मेरी पर्सनालिटी से इम्प्रेस हो रहे हैं. पर भाई साहब क्या बताएं भैंस मुंह खोलेगी तो गाना नहीं गाएगी. उनके मुंह से निकला "वही मारुती-८०० वाले, बहुत नाम सुना है आपका". मुझे ये कतई गुमान नहीं था की मै इस विशेषण से भी जाना जाता हूँ. पीछे से लोगों के ठहाके मेरे कानों में गूंज गए. मिस तनरेजा के मुख का वो हाल था कि 'शोभा वरननी न जाई'.
मै मुस्कराया और बोला "जी हाँ मै वही मारुती वाला हूँ. लोग प्यार से मुझ फटीचर भी कहते हैं. पर सच ये है कि हिंदुस्तान और विशेषकर कानपुर के लिहाज़ से मारुती ही एक कम्प्लीट कार है. छोटी सी कार है कहीं भी पार्क कर लो. जाम में आसानी से निकल जाती है. पूरे शहर में चाहे एक लाख की गाड़ी हो या पचास लाख की सब ठुंकी हुई हैं. और तो और मोटर चोरों की नज़र भी नयी कारों पर ही होती है. आप लोग भी नयी कार को पार्क करके न तो चैन से शौपिंग कर पाते हैं, न ही पार्टी का मज़ा ले पाते हैं. महँगी गाड़ियों के स्पेयर भी मंहगे होते हैं इसलिए उन्हें मेंटेन करने में भी काफी खर्च हो जाता है. अपनी मारुती तो सस्ती, सुन्दर और टिकाऊ भी है. आप सबने लोन ले कर ये मंहगी-मंहगी गाड़ियाँ सिर्फ शोशेबाजी के लिए खरीदी है. जबकि मैंने अपनी आवश्यकता के लिए. हर कंपनी अपनी कार में नयापन लाने के लिए अजीब-अजीब से शेप निकाल रहीं हैं. सबका कम्पटीशन मारुती से है. आप लोग चाहे कितना भी हँस लें मुझ पर, पर जब भी नयी कार में स्क्रैच लगता है, आप लोगों का दर्द मै बयां नहीं कर सकता. मारुती कल की गाड़ी थी, आज की गाड़ी है और कल की गाड़ी भी रहेगी." मेरे इस धारा प्रवाह उद्बोधन को पार्टी में उपस्थित लोग विस्मयादिबोधक चिन्ह के साथ सुनते रहे. मुझे लगा मारुती को मुझे अपना सेल्समैन रख लेना चाहिए.
बाद में खाना खाते समय फुल्कों को देख कर मुझे हामिद का चिमटा याद आ गया. अंगूर खट्टे हों ऐसा भी नहीं है.
- वाणभट्ट
* मुंशी प्रेमचंद के 'ईदगाह' को सादर समर्पित.