रविवार, 27 जुलाई 2025

डीबीटी - 45

बात सन पचहत्तर-अस्सी के आस-पास की है. उन्नीस सौ सुधी पाठकों ने अपने आप जोड़ ही लिया होगा. क्योंकि अट्ठारह सौ या उससे पहले की बात होती तो बात लेखक सहित इतिहास में दफ़न हो चुकी होती. 

ये वो दौर था जब पिता जी मकान बनवा रहे थे, तो उनकी तमन्ना थी कि गेट कम से कम पाँच फिट चौड़ा होना चाहिये ताकि स्कूटर आसानी से अन्दर आ सके. और जैसे ठन्डे का मतलब कोकाकोला होता है, उस समय स्कूटर का मतलब 'हमारा बजाज' होता था. जिसका पेट एक तरफ़ इसलिये फूला होता था कि उधर इंजन होता था. दूसरी तरफ़ सिमिट्री देने के इरादे से एक डिक्की बना दी गयी थी, जिसमें गाडी के दस्तावेज़ और कुछ एक्स्ट्रा क्लच और ब्रेक वायर रखे होते थे. उस स्कूटर के मालिक को थोडा बहुत मेकैनिक वाला ज्ञान होना भी आवश्यक था, ताकि इमरजेंसी में वो कम से कम क्लच-ब्रेक वायर तो बदल सके, जो प्राय: महीने-दो-महीने में टूट जाते थे. रोज सुबह जब स्कूटर को स्टार्ट करना होता था तो उसकी आरती उतारने की एक पारंपरिक विधि हुआ करती थी. स्कूटर को कम से कम पाँच से छ: बार इन्जन की तरफ झुकाना पड़ता था. उसके बाद भगवान का नाम लेकर किक मारिये, तो स्कूटर एक बार में स्टार्ट हो जाता था. लोगों की आदत तो ऐसी पड़ गयी थी कि जब बीच में माउन्ट इंजन वाली लेम्ब्रेटा स्कूटर आयी, तो लोगों को उसे भी एक तरफ़ झुकाये बिना चैन नहीं पड़ता था. जब एग्रीकल्चरल इन्जीनियरिंग में टू-स्ट्रोक पेट्रोल इंजन के बारे में पढ़ा तब समझ आया कि 'बजाज' के इंजन में बिना एक तरफ़ झुकाये कार्बोरेटर तक तेल (पेट्रोल) नहीं पहुँचता था. बाद में भले बजाज ने अपने मॉडल इम्प्रूव कर लिये हों लेकिन स्कूटर को एक तरफ़ झुकाने की आदत हिंदुस्तान के डीएनए तक घुस गयी. आज भी किसी ऑफिस में फ़ाइल चलाना हो तो, जिसकी गरज़ हो, उसे झुकने-झुकाने से कोई परहेज नहीं रहता.

शाम को पार्क में खेल रहे बच्चों को इस आवाज़ का बेसब्री से इंतज़ार हुआ करता था. कुछ खाली बच्चे तो सुबह से ही इस आवाज़ का इंतज़ार करते थे. आवाज कुछ ऐसी थी मानो कोई कोलतार के खाली ड्रम को लुढ़काता हुआ चला आ रहा हो. भड़-भड़, खड़-खड़, भड़-भड़. बीच-बीच में घर्र-घर्र की आवाज़ कभी-कभी डॉमिनेट कर जाती. अगर घर्र घर्र की आवाज़ रुक गयी तो खड़-खड़, भड़-भड़ की आवाज़ भी बन्द हो जाती थी. बच्चे और खुश हो जाते कि आज मौका मिलना तय है. 

हिन्दुस्तान में सभी सरकारी विभागों और कुछ गैरसरकारी विभागों में ये सुविधा है कि यदि आप उस विभाग के कर्मचारी-अधिकारी हैं, तो उस विभाग की सेवायें या तो मुफ़्त मिलेंगी या सब्सिडाइज्ड रेट पर. टेलीफोन डिपार्टमेंट में जब आम आदमी के लिये फ़ोन पर ट्रंककॉल लगा कर बात करना मँहगा ऑप्शन था, उसी विभाग के सीनियर अधिकारी के पुत्र, और हमारे मित्र, अपने घर में उपलब्ध इस सुविधा का उपयोग हमारे हॉस्टल के मित्रों को निस्वार्थ भाव से मुहैया कराया करते थे. अलबत्ता तो उस समय के हमारे लोवर मिडल क्लास और आज के अपर-लोअर मिडल क्लास के खानदान में किसी के पास फोन था ही नहीं जो उस फ़्री सेवा का लाभ उठा पाता. रेलवे वालों को ट्रेन फ़्री, हवाई जहाज वालों के लिये हवाई जहाज फ़्री. उसी तरह पेट्रोलियम कम्पनियाँ अपने अधिकारियों को कार के लिये पेट्रोल/डीज़ल के लिये अलाउंस देती थीं. लेकिन उसके लिये जरूरी था, एक अदद कार का होना. 

पड़ोसियों का माथा तब ठनका जब मेहरोत्रा जी ने अपना गेट चौड़ा कराना शुरू कर दिया. मेहरोत्रा जी एक सरकारी अंडरटेकिंग पेट्रोलियम कम्पनी में अधिकारी थे. कंपनी प्रदत्त इस सुविधा यानि पेट्रोल अलाउंस के लिये मेहरोत्रा जी दिल्ली से एक पुरानी एम्बेसडर ख़रीद लाये क्योंकि कार का होना ज़रूरी था. उसका फ़र्स्ट-सेकेण्ड या थर्ड हैण्ड होना ज़रूरी नहीं था. जिस मोहल्ले में सब मिडिल क्लास हों, वहाँ अंडरटेकिंग कंपनी का आदमी अपने आप अपर मिडल क्लास हो जाता था. उनका गेट चौड़ा होना भी चाहिये था. मोहल्ले वालों का तो ये हाल था कि किसी की नयी स्कूटर या मोटर सायकिल आ जाये तो जब तक मिठाई न खा लें, जी हलकान किये रहते थे. लेकिन किसी का मन पुरानी कार के लिये मिठाई माँगने का न हुआ और न ही मेहरोत्रा जी ने कोई ऐसी पेशकश की. डी.बी.टी.-45 उसी एम्बेसडर का नम्बर था. जो चलती कम थी भड़भड़ाती अधिक थी. 

अब चूँकि उसे अलाउंस वसूलने के इरादे से ही लिया गया था, इसलिये उसे रोज चलाने का प्रश्न नहीं उठता था. मेहरोत्रा जी ऑफिस स्कूटर से ही जाते और कार घर पर खड़ी-खड़ी मिडल क्लास मोहल्ले में उनका स्टेटस बढ़ाती रहती. कभी-कभी जब उन्हें सपरिवार कहीं निकलना हो, तो गाडी निकाली जाती थी. एक-आध महीने में एक-आध बार. आधी बार इसलिये लिखा है कि कई बार मेहरोत्रा जी स्टार्ट करके उसे गरगरा देते ताकि बैटरी चार्ज रहे. लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं था. कई बार बैटरी गरगराने से पहले ही डिस्चार्ज हो जाती. सो मोहल्ले में पार्क में खेल रहे बच्चों की सेवाओं की आवश्यकता होती थी. और बच्चे भी अपनी सेवायें देने को तत्पर रहते. ऐसा नहीं था कि मेहरोत्रा जी अपने एलाउंस का कुछ हिस्सा उनसे साझा करते हों. इसका कारण हम जैसे असामाजिक बच्चों को बहुत बाद में पता चला.  दरअसल उनकी दो लडकियाँ थीं, जिनकी झलक पाने के चक्कर में बच्चे शाम को पार्क में खेलते हुये, डी.बी.टी.-45 के आने या जाने का इंतज़ार करते. यदि स्कूल न जाना हो तो कुछ बच्चे सुबह से ही पार्क की रौनक बढ़ाने में लग जाते, क्या पता कब बुलावा आ जाये. उन्हें मालूम था कि गाड़ी पूरी तरह धक्का परेड है. 

लेकिन ऊपर वाले ने भी पता नहीं क्या विधान बनाया है. किसी को ज्यादा देर तक खुश नहीं देख सकता. एक रात कुछ चोर आये और उस कार की सबसे नयी चीज़, टायरों को निकालने में देर लगती, इसलिये चारों पहिये ही खोल के चल दिये. चोर भी अपने फ़न में माहिर थे. किसी तरह का शोर न हो इसलिये पहले उन्होंने ईंटों का जैक बनाया, चारों पहियों के लिये और सारे पहिये खोल के चलते बने. अगले दिन सब लोगों ने देखा कि कार ईंटों पर खड़ी है. अड़ोसी-पड़ोसी भला अपना धर्म कहाँ छोड़ने वाले, चाहे उन्हें इस कार की मिठाई मिली हो या न मिली हो. सब एक-एक करके आये और सम्वेदना व्यक्त कर के गये कि चोर भी कितने गिर गये हैं. मेहरोत्रा जी ने भी कसम खायी कि पुरानी कार में नया पहिया और नया टायर नहीं लगवायेंगे. अलाउंस कार होने का मिलता है, कार चलने-चलाने का नहीं.

चोरों को उन अबोध बच्चों की हाय ज़रूर लगी होगी जो कार को धक्का दे कर ही खुश हो लेते थे.

-वाणभट्ट

वैधानिक चेतावनी: इस संस्मरण का किसी घटना-दुर्घटना से मिलना महज संयोग माना जाये.

डीबीटी - 45

बात सन पचहत्तर-अस्सी के आस-पास की है. उन्नीस सौ सुधी पाठकों ने अपने आप जोड़ ही लिया होगा. क्योंकि अट्ठारह सौ या उससे पहले की बात होती तो बात ...