सोमवार, 9 जून 2014

ज़ंजीर

ज़ंजीर


सन तिहत्तर में एक फिल्म आयी जिसने एक आम नायक को महानायक में बदल डाला। ज़ंजीर देखने के लिए चाचा को बच्चों ने पटा लिया। हॉल पहुँच गए रिक्शे में लद-लदा के। लेकिन टिकट नहीं मिला। चाचा बेचारे को ब्लैक में टिकट लेना पड़ा। उन्हें तो पिक्चर में क्या मज़ा आया होगा पर बच्चों ने पैसा वसूल लिया। उस समय जुम्मा-जुम्मा उम्र थी यही कोई आठ साल। मार धाड़ और ढिशुंग ढिशुंग में बहुत मज़ा आया। एक-एक डाइलॉग पर हॉल तालियों से गूंज जाता। शानदार फिल्म के लिए विलेन भी जानदार होना चाहिये। अगर राम से टक्कर हो तो रावण जैसा किरदार भी आपेक्षित है। अजीत की दमदार डाइलॉग डिलीवरी और अमिताभ का एंग्री यंग मैन का रूप भारत की जनता के सर चढ़ के बोला। प्राण साहब तो लाज़वाब थे ही हमेशा से। फिल्म तो सुपर हिट हुयी ही पर अमिताभ को भी उसके बाद पीछे मुड़ के देखना नहीं पड़ा। उस समय मेरे बाल मन में एक जिज्ञासा जगी कि फिल्म का नाम घोड़ा होना चाहिए। ज़ंजीर का इस फिल्म में क्या मतलब। किस अनाड़ी ने रख दिया। विलेन जब गोली चला रहा था तो घोडा ज़ंजीर से लटक रहा था। मेरा ध्यान घोड़े पर तो गया पर हाथ पर बंधी चेन से फिल्म के नामकरण का तात्पर्य मेरी बालबुद्धि के परे था। मेरे हिसाब से फिल्म का नाम अश्व या अश्वथामा या सिर्फ घोड़ा होना चाहिए था।     

आप चाहिए या न चाहिए आपको बड़े तो होना ही है। और बचपन में तो बड़े होने की बड़ी जल्दी भी थी। मै बड़ा हुआ भी उम्र के लिहाज़ से। अक्ल के लिहाज़ से मेरे बड़े होने पर मित्र गणों को थोड़ा संदेह हमेशा बना रहता है। ईमानदारी-देशभक्ति-सत्य-अहिंसा-न्याय-धर्म की बातें आजकल या तो बच्चे करते हैं या कमज़ोर लोग। वीर लोग तो इस धरा-वसुंधरा पर अवतरित सभी भोग्य वस्तुओं का भोग लगाने में ही व्यस्त रहना पसंद करते हैं। और वो भी डेली बेसिस पर। हफ्ते-महीने में कुछ भोग लगाया तो क्या लगाया। हनुमान जी को भी लोग मंगल-मंगल प्रसाद चढ़ा देते हैं। ताकतवर को तो रोज प्रसाद चाहिये। तभी उसे एहसास बना रहता है कि वो वीर है। और माल दूसरे के हिस्से का हो तो और स्वादिष्ट लगता है। बहरहाल जैसे-तैसे बड़े होने था बड़े हो गये। लेकिन बचपन की जिज्ञासा शांत न हो पायी। तब और भी आश्चर्य हुआ जब पता चला कि ये गलती सलीम-जावेद जैसे महान स्क्रीन प्ले लेखकों ने की थी। भाई मर्जी है उनकी और उनके प्रोड्यूसरों की। पैसा उनका, फिल्म उनकी वो भी सुपर-डुपर हिट तो मै भला कौन - खामख्वाह।        

अंग्रेजों के ज़माने में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ज़ंजीर से बांधा जाता था। किसी बलिष्ठ व्यक्ति को यदि बेड़ियों में रखा जाता तो बात समझ आती थी कि ये किसी को पीट-पाट सकता है। पर कभी-कभी निरीह से मरियल लोगों के भी हाथ-पैर ज़ंजीर से जकड़े रहते। पता चलता था कि उस आदमी की सोच खतरनाक थी जिससे अंग्रेजी साम्राज्य की नीवें हिल सकतीं थीं। बाबर से लेकर अंग्रेजों तक, और आज के दौर में सरकारी अफसरान, जिसकी भी राज करने की लालसा थी, उसे बगावत का फोबिया बना रहता। कोई राजा अगर प्रजा की सेवा करना चाहता हो तो उससे बड़ा सेवक खोजना मुश्किल है। पर फिर राजा बनने में उसने जितने पापड़ बेले हैं, जिन षड्यंत्रों का वो भागी बना, उसका मज़ा जाता रहेगा। इसलिए जब एक बार येन-केन-प्रकारेण सिंघासन मिल जाये तो सारी बगावत की बू को दूर करने में ही प्रोडक्टिव समय व्यर्थ कर देना एक राजसी मानसिकता है। तब समझ आया कि ज़ंजीर प्रतीक है मानसिक गुलामी का। एक कैदी को बमशक़्क़त सजा भी दे दो तो भूख खुल के लगेगी। उसका स्वास्थ्य बन सकता है। पर एक को बेड़ियों में जकड के रख दो तो उसकी सोच की धार कुंद हो जाएगी। मै सलीम-जावेद का कायल हो गया नायक के सपने में भले ही घोडा आता हो पर उन्होंने फिल्म का नाम रखा ज़ंजीरज़ंजीर नायक की बेबसी को बहुत ही संजीदा तरीके से दर्शाती थी। लेखकद्वय  ने अगर मेरे कहे अनुसार फिल्म का नाम अश्व, अश्वथामा या घोडा रखा दिया होता तो शायद न फिल्म हिट होती न अमिताभ।     

एक दिन जब ऑफिस पहुँचे तो देखा प्रशासनिक भवन के सामने कुछ नाप-जोख चल रही है। जब भी विभाग में कहीं से फंड आ जाता है, इस प्रकार का काम शुरू हो जाता है। ये कोई गौर करने लायक बात न थी। फिर कुछ दिनों के बाद देखा की कालेज के प्रधानाचार्य महोदय के पोर्टिको वाली सड़क पर चेन का बैरियर लग गया है। हुआ यूँ कि पूरे परिसर में साईकिल, स्कूटर, गाड़ी पार्क करने की कोई समुचित व्यवस्था न थी, न प्रशासन ने इस ओर कभी ध्यान दिया। कुछ छायादार हिस्सों में पहले-आओ, पहले-पाओ के आधार पर कुछ गाड़ियां खड़ीं हो जातीं थीं। कुछ के लिये  गिने-चुने पेड़ थे और उनके अलावा लोगों के लिए जाड़ा-गर्मी-बरसात था खुला आसमान। आम आदमी तो प्रशासनिक भवन से दूर ही रहने का प्रयास करता। किन्तु मुंहबोले प्रशासनिक कार्यालय के अधिकारी और कर्मचारी प्राचार्य महोदय की गैर- हाजिरी में पोर्टिको की छाया का आस्वादन करने से नहीं चूकते थे। 

कोई भी विभाग बिना विभागाध्यक्ष के तो चल सकता है पर बिना लग्गू-भग्गुओं के नहीं। लग्गू ने प्राचार्य महोदय को खोंस दिया कि हुज़ूर जब आपकी अम्बेस्डर पोर्टिको की शोभा नहीं बढ़ा रहीं होतीं तो ऑफिस के बाबुओं के दुपहिया वाहन उस पोर्टिको की शोभा ख़राब कर रहे होते हैं। भग्गू कहाँ पीछे रहता बोला सर आप जिस कार्यकुशलता से प्रशासनिक निर्णय लेते हैं बहुत सम्भावना है कोई आपको रिटायरमेंट से पहले हुर-हुरा न दे। इसलिये इस रस्ते पर एंट्री रिस्ट्रिक्ट कर दीजिये। प्राचार्य ने अनमना सा विरोध किया कि लोगों का रास्ता लंबा हो जायेगा, उन्हें घूम के जाना पड़ेगा। लग्गू-भग्गू ने समझाया सर इस पोर्टिको पर सिर्फ और सिर्फ आपका और आपकी अम्बेस्डर का हक़ है। और किसी भी प्रशासक को अपने हक़ के प्रति जागरूक और जनता के हक़ के प्रति यदि सुसुप्त नहीं तो निर्विकार तो रहना ही चाहिये। अभी ये लोग आपके पोर्टिको में कब्ज़ा करेंगे कल आप की अनुपस्थिति में आप के कमरे के एसी की ठंडी हवा भी खाने लगेंगे। दोनों प्रवेश द्वार पर सीकड़ लग जायेगी जैसी इण्डिया गेट पर लगी रहती है फिर किसी की क्या मजाल जो आपके पोर्टिको की छाया का मिसयूज़ कर सके। प्रस्ताव पास हो गया और अमल में भी आ गया। 

लोगों की असुविधा का ख्याल रखना प्रशासक का काम नहीं है। कुछ को बुरा लगा कुछ को भला। पर बुरा-भला लगने या कहने की गुंजाईश न थी। प्राचार्य जी कलम के पक्के थे। मुँह से कुछ न कहते पर कलम से रगड़ देते। और रोजी-रोटी में पूरी आस प्रमोशन पर ही टिकी रहती है। वही तो बरक्कत है। सो लोगों ने मुँह सिल लिये। राजाज्ञा भी कोई चीज़ होती है।एक दिन हमारे शर्मा जी इमोशनलिया गये। बोले साला खाली पोर्टिको में भी गाड़ी नहीं खड़ी कर सकते लानत है ऐसी जहालत पर। जोश आ गया चेन हटा के अपनी स्कूटी पोर्टिको में लगा दी। उस क्षण उन्हें लगा किसी गोरी सरकार का नमक कानून तोड़ दिया। प्राचार्य ने एक जाँच आयोग बैठाया दिया। बगावत की बू पर काबू ज़रूरी था। आयोग ने प्राचार्य के कहे अनुसार शर्मा के इस जघन्य कृत्य की घनघोर भर्तस्ना की। आखिर उनकी भी सत्यनिष्ठा यानि इंटीग्रिटी का मामला था। शर्मा को भयंकर सा मेमो मिला पर्सनल फाइल में एडवर्स एंट्री हुयी सो अलग से। शर्मा के सपने में अब बिना घोड़े वाली ज़ंजीर अक्सर आती है। जिन्हें मेमो नहीं मिला उनके सपनों में भी वो ज़ंजीर जरूर आती होगी उन्हें उनकी बेबसी का एहसास दिलाने।   

- वाणभट्ट               

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...