शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

बच गयी

कुछ दिन पहले तक पुंगानुरू के नाम से सब अन्जान थे. भला हो हमारे प्रधान का जिसने उनके साथ अपने वीडियो को वायरल कर दिया. गाय की वो प्रजाति जो विलुप्ति की कगार पर थी, एकाएक पॉपुलर हो गयी. सरकार बदली तो पौष्टिक दूध देने वाली इन गायों का संरक्षण की ओर ध्यान दिया जाने लगा. जिससे इनकी संख्या में वृद्धि हुयी है. और निकट भविष्य में इनकी संख्या तेजी से बढ़ने वाली है क्योंकि इनकी माँग में अत्यन्त वृद्धि देखने को मिली है. बहुत से लोग आज अपने आवास या फ्लैट में अन्य पालतू जानवरों की जगह इन छोटी-छोटी गायों को पालने के इच्छुक दिखायी दे रहे हैं. 

ऐसे ही जब लहरी बाई का नाम सुना तो एक सुखद आश्चर्य हुआ कि मध्य प्रदेश की एक आदिवासी महिला श्री अन्न की विलुप्त हो रही लगभग 150 प्रजातियों को संरक्षित करने में बिना किसी सरकारी अनुदान के तन-मन-धन से जुड़ी हुयी हैं. बहुत सम्भव है कि बीज संरक्षण की ये विधा उन्होंने अपने पुरखों से सीखी हो. ये वो लोग हैं जिनका स्वदेशी तकनीकी ज्ञान (आईटीके) अंग्रेजी शिक्षा से बच गया. किसी राजनेता की नीतियों के समर्थक और विरोधी दोनों होते हैं, लेकिन उनके विचारों और कार्यों के दूरगामी परिणाम होते हैं. जैविक (ऑर्गेनिक) और प्राकृतिक (नेचुरल) खेती (फ़ार्मिंग) को पुनः मुख्य धारा पर लाने का प्रयास, इस सरकार की पुरातन पद्यतियों के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है. इसी प्रकार श्री अन्न को प्रोत्साहन ऐसे समय में करना, जब सब इसकी महत्ता भूल कर, इसकी ओर से विमुख हो चले थे. सम्भवतः इसका मूल उद्देश्य लघु और सीमांत किसानों की उत्पादन लागत को कम करना और उनके उत्पाद के लिये उच्च मूल्य का बाज़ार तैयार करना हो ताकि उनकी उपज का अधिक मूल्य मिल सके और उनकी आय में वृद्धि हो.

वर्षा आधारित कृषि हमेशा से एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है. निरन्तर हो रहे असन्तुलित आधुनिक विकास ने मनुष्य के जीवन को सुख-सुविधायें अवश्य प्रदान की हैं किन्तु साथ ही पर्यावरण को अपूरणीय क्षति भी पहुँचायी है. इस कारण हुये जलवायु परिवर्तन ने कृषि में चुनौतियों को और भी बढ़ाया है. हरित क्रान्ति के लगभग पचास वर्षों के बाद अब प्रबुद्ध लोगों को ये लगने लगा है कि अधिकाधिक उत्पादन हेतु सिंचित क्षेत्रों में भूमिगत जल के दोहन और रासायनिक खाद-कीटनाशकों के विवेकहीन उपयोग से प्राप्त उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि टिकाऊ नहीं है. बढ़ती जनसँख्या की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुये, कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि के साथ पर्यावरण भी संरक्षित करना आज एक बहुत बड़ी चुनौती बन के उभरा है. वर्षा आधारित खेती में कृषक आय में अस्थिरता के कारण कृषि एक लाभकारी उद्यम नहीं प्रतीत होता है. इसीलिये कृषि कार्यों से पलायन की प्रवृत्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि दिखायी पड़ती है. आज कृषक को कृषि कार्यों से जोड़े रखने के लिये कृषि का लाभप्रद होना अत्यन्त आवश्यक है. आशा की जाती है कि कृषि आय को दुगना करने के लिये उत्पादन दुगना करना होगा. किन्तु होता ठीक इसका विपरीत है. उत्पादन ज़्यादा हो तो बाज़ार भाव कम हो जाता है. कृषि का सारा कारोबार किसान पर ही टिका है पर पूरी कृषि उत्पाद मूल्य श्रृंखला में किसान उद्योग के लिये सस्ते कच्चे माल का प्रदाता बन के रहा गया है. बीज-खाद-रसायन-कीटनाशक कंपनियों के लिये कृषक बाज़ार है जब कि कटाई के बाद स्थापित उद्योगों के लिये कृषक सस्ते कृषि उत्पाद को उपलब्ध कराने का माध्यम बन के रह गया है. यदि पूँजी-प्रवाह की ओर ध्यान दिया जाये तो ये आसानी से देखा जा सकता है कि पूँजी ग्रामीण अंचल से शहरों की ओर प्रवाहित हो रही है. जब हर ओर कृषक समृद्धि और कृषि आय बढ़ाने की बात हो रही है ऐसे में समस्त मूल्य श्रृंखला में किसान ही सबसे कमज़ोर कड़ी बन के उभरा है. उत्पादन का सारा जोखिम किसान का होता है जबकि मूल्य श्रृंखला के अन्य प्रतिभागी, जो उत्पाद के बाजार मूल्य का निर्धारण भी करते हैं, और सिर्फ़ लाभ पर ही काम करते हैं. उत्पादन से लेकर भोजन की थाली तक की खाद्य श्रृंखला जिस किसान पर निर्भर है, उसकी वित्तीय और आर्थिक स्थिति का ध्यान रखना श्रृंखला के अन्य सभी प्रतिभागियों के लिये आवश्यक है और ये उनका उत्तरदायित्व भी है. 

कार्य कोई भी हो लेकिन आय इतनी तो अवश्य होनी चाहिये कि चार-छः लोगों के एक परिवार का समुचित भरण-पोषण हो सके. कोई भी लाभदायक व्यवसाय के लिये एक निश्चित पूँजीगत निवेश की आवश्यकता होती है. किन्तु कृषि के क्षेत्र में ऐसा नहीं है. जिसके पास जितनी ज़मीन है, उसी पर खेती कर रहा है. बढ़ती जनसंख्या के साथ जोत भी छोटी होती गयी. लेकिन कोई और विकल्प न होने कारण किसान खेती छोड़ नहीं पाता. उस उत्पादन से जितनी आय होती है, उसी में परिवार का पालन करने की विवशता ही कृषक को कृषि कार्य में लगे रहने से हतोत्साहित करती है. आज स्थिति ये है कि किसान की अगली पीढ़ी खेती नहीं करना चाहती. जीविकोपार्जन के लिये 60 प्रतिशत से अधिक लोग आज भी खेती पर आश्रित हैं, जबकि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 20 प्रतिशत से भी कम है. इसलिये आवश्यक है खेती को फ़ायदेमंद बनाने की. हरितक्रांति ने देश को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने में अपना अमूल्य योगदान दिया. इस समय देश को पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ, आर्थिक रूप से समृद्ध और सामाजिक रूप से न्यायसंगत हरितक्रांति की आवश्यकता है. तभी इसे सदाबहार क्रांति कहा जा सकेगा. पर्याप्त घरेलू आय, रोजगार के अवसर, संरचनात्मक सुविधायें, विपणन सशक्तिकरण, ग्रामीण आय में वृद्धि के माध्यम से ही कृषक की सामाजिक सुरक्षा का निर्वहन किया जा सकता है. सतत विकास लक्ष्य में कृषक आय से लेकर, भूमि-मृदा संरक्षण और जल संचयन तक की दिशा में प्रयास करने की बात हो रही है. हरित क्रान्ति के पुरोधा भी इस बात से सहमत दिखायी देते हैं.

भारत का हमेशा से कृषि उत्पादन के क्षेत्र में एक अग्रणी स्थान रहा है. किन्तु अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा कृषि में कम आय चिन्ता का विषय है. जल्दी ख़राब होने वाले फल और सब्जियों का अत्यधिक उत्पादन, उत्पादकों के लिये हानि का कारण बन जाता है. उत्पादन बढ़ने के साथ ही, प्रसंस्करण के लिये आवश्यक मूलभूत सुविधाओं के अभाव में हानियाँ भी उसी अनुपात में बढ़ीं हैं. खाद्य प्रसंस्करण उद्योग अभी भी अपने आरम्भिक अवस्था में है. अधिक क्षमता वाली वृहद स्तर प्रसंस्करण इकाइयों को एकसमान कच्चे उत्पाद की आवश्यकता होती है. हरित क्रान्ति ने कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिये उन्नत  प्रजातियों के विकास की ओर प्रेरित किया. किन्तु आज देश में बहुतायत में उपलब्ध प्रजातियों द्वारा उत्पादन लिये जाने के कारण प्रसंस्करण उद्योग में अंतिम उत्पाद की गुणवत्ता असमान कच्चे माल के प्रयोग के कारण प्रभावित होती है. इसीलिये बहुराष्ट्रीय खाद्य प्रसंस्करण कम्पनियाँ किसानों के साथ खेती अनुबंध कर रही हैं. इसी कारण राष्ट्रीय खाद्य उद्योग में भी एकसमान आयातित कच्चे माल का उपयोग करना पसन्द किया जा रहा है. भारत में आम के पेय पदार्थ कई बड़ी कम्पनियाँ बना रही हैं. भारत आम की अनेकानेक प्रजातियों के उत्पादक भी है और निर्यातक भी. किन्तु आम के पल्प में असमानता होने के कारण ये कम्पनियाँ एकसमान रंग और मिठास वाले आयातित आम के पल्प या कनसंट्रेट्स को उपयोग में लाती हैं. उच्च गुणवत्ता वाले भारतीय आम निर्यात के बाद बहुत ही कम मूल्य पर बाज़ार में बेचे जाते हैं. प्याज-लहसुन-टमाटर-आलू के दामों में अस्थिरता हर साल की समस्या बन चुकी है. कृषि उत्पादन और आय इसी प्रकार की अनिश्चितताओं से ग्रसित है. भंडारण और प्रसंस्करण की सुविधाओं में निवेश अनिश्चितताओं को कम करने की दिशा में एक सार्थक प्रयास सिद्ध हुआ है. 

हरितक्रांति के बाद से निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों ने कृषि उत्पादन वृद्धि की दिशा में अनेकानेक सफल प्रयास किये हैं. फसल सुधार की विभिन्न परंपरागत और आधुनिक पद्यतियों की सहायता से कीट-रोग और जलवायु सहिष्णु उन्नत प्रजातियों के विकास ने कृषि उत्पादन के नये आयाम रचे हैं. किन्तु दुर्योग से सभी ने उन्नत प्रजाति के बीजों के विकास को ही कृषि की समस्त समस्याओं का समाधान मान लिया है. परिणामस्वरूप एक ही कृषि जलवायु क्षेत्र के लिये अनेकों प्रजातियाँ विकसित और संस्तुत कर दी जाती हैं. जिस कारण उन्नत बीजों की उपलब्धता प्रभावित होती है. भला हो मझोले-सीमांत वर्षा आधारित खेती करने वाले किसानों का, जो विश्व के सभी शोधकर्ता इनका उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिये कृतसंकल्प हैं. ये अथक प्रयास निरन्तर इसलिये इसलिये जारी है उत्पादन में वृद्धि करके उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारी जा सके. हर फ़सल जिसका मानव खाद्य उपयोग चिरंतन काल से चला आ रहा था, उनके सुधार में लोग लगे हुये हैं. आज हालात ऐसे हो गये हैं कि पराम्परागत देसी प्रजातियों के बीज अब मिलने मुश्किल हो गये हैं. कुचक्र तो यहाँ तक रचा जा रहा है कि दस साल से पुरानी प्रचलित प्रजातियों को बीज श्रृंखला से ही बाहर कर दिया जाये ताकि नयी-नयी प्रजातियों को उत्पादनकर्ताओं तक पहुँचाया जा सके. शोध यदि नौकरी या व्यवसाय बन जाये तो उसकी परिणति प्रोन्नति और लाभ तक ही सीमित रह जाती है. इसके लिये लोग यदि हर सम्भव हथकण्डे अपनाते हैं तो कोई गलत नहीं है. हमारे यहाँ जब गाय और भैंसों की देसी नस्लें विलुप्त होती जा रही हैं, तो वहीं ब्राज़ील में उन्हीं देसी गायों का दुग्ध उत्पादन का बढ़ जाना, कहीं न कहीं समुचित प्रबन्धन अपनाने की दिशा में इंगित कर रहा है. यदि मात्र अनुकूल वातावरण उत्पादन बढ़ाने में सहायक हो सकता है,  तो निश्चय ही उचित प्रबन्धन उत्पादन वृद्धि का एक महत्वपूर्ण माध्यम बन सकता है. नियत पर संशय तब होता है, जब एक ही क्षेत्र के लिये संस्तुत बीसियों प्रजातियों में से वंश-सुधारकों में एक, दो या तीन प्रजातियों के चयन पर सहमति नहीं बन पाती. विभिन्न प्रजातियों के रंग-रूप-आकार-गुण में अंतर होने के कारण उत्पादन से पूर्व कृषि यंत्रों की सेटिंग में समय और श्रम व्यर्थ होता है, और प्रसंस्करण मशीनों में भी कई एडजस्टमेंट करने पड़ते हैं. इससे प्रसंस्कृत उत्पाद की एकरूपता और गुणवत्ता भी प्रभावित होती है. 

कृषि आधारित बहुत सी समस्याओं का समाधान जल उप्लब्धता, मृदा पोषण और उचित फसल प्रबन्धन से सम्भव है. कृषि यंत्रीकरण भी उत्पादन वृद्धि, समय प्रबन्धन, खर-पतवार, कीट और रोग नियन्त्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. फसल के मुख्य चरणों पर पानी की उपलब्धता और मृदा के पोषक तत्वों की उपस्थित से फसल उत्पादन की समस्याओं के प्रकोप को कम किया जा सकता है. फसल चक्र अपना कर खर-पतवार, कीट और रोग का नियन्त्रण करने की एक परम्परागत विधि रही है. प्रजातियों को एकाधिक विशेषताओं और अन्तिम खाद्य उद्देश्य के अनुसार विकसित करने की आवश्यकता है. ताकि उन्नत प्रजातियाँ न सिर्फ़ उत्पादन बढ़ायें बल्कि प्रसंस्करण की दृष्टि से भी उन्नत हों. जैव विविधता के देश में नयी-नयी प्रजातियों के विकास जैव विविधता में निरन्तर वृद्धि कर रहा है. एमएससी और पीएचडी में की गयी पढ़ायी की पुनरावृत्ति के प्रति प्रतिबद्धता ने नवीन शोध की सम्भावनाओं को कम किया है. रटन्त विद्या चतुरलिंगम तो बना सकती है, लेकिन फुनसुख वांगड़ू जैसे मौलिक विचारक नहीं. मात्र प्रोन्नति के उद्देश्य से किये जा रहे शोध कार्य से 'ब्रेक थ्रू' तकनीक प्राप्त करने की सम्भवना नहीं के बराबर है. सारे विश्व में पशुओं और फसलों की प्रजातियों का सुधार कृषि शोध का मुख्य आधार बन गया है. सबका लक्ष्य ऐसी प्रजातियों का विकास करना है जिससे लैटिन अमेरिका, अफ़्रीका और दक्षिणी-पूर्व एशिया के असिंचित क्षेत्र के लघु और सीमान्त किसानों का उत्पादन बढ़ाना और उनकी आय में वृद्धि करना है ताकि उनका जीवन स्तर सुधर जाये. गौर की बात ये है कि सभी अंग्रेजी में विज्ञान पढ़े लोग उन्हीं फसलों को सुधारने में संकल्पित हैं, जिनके मानव उपयोग का पता हमारे पुरखों ने बिना किसी आधुनिक विज्ञान के लगा लिया था. पूरा विज्ञान और समस्त वैज्ञानिक मिल कर एक नयी फसल नहीं खोज पाये जो खाने योग्य हो. लेकिन अब यही आधुनिक विज्ञानी, उन्हीं की प्रजाति पर प्रजाति निकाले जा रहे हैं. ऐसी ही एक प्रोटीन अधिक्य वाली फसल है खेसारी. जिसका भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बहुत पहले से उपयोग किया जाता रहा है. किन्तु इसमें उपस्थित कुछ अपौष्टिक तत्वों के कारण इसका खाद्य उपयोग प्रतिबंधित कर दिया गया. कई वर्षों से खेसारी की ऐसी प्रजातियों का विकास करने का प्रयास चल रहा है, जिनमें अपौष्टिक तत्व कम हों. किन्तु बहुत सम्भव है कि केवल उचित प्रसंस्करण पद्यतियों को अपना कर अपौष्टिक तत्व को कम करके इस फसल को उपयोग लायक बनाया जा सके. लेकिन प्रयास प्रजाति विकास के माध्यम से ही किया जा रहा है.

रोगों से प्रतिरोधक क्षमता विकसित करके उन्नत प्रजातियों से उत्पादन बढ़ाना, सभी वंश-सुधार कार्यक्रमों का मुख्य उद्देश्य होता है. इसके लिये बीमारी से ग्रसित क्षेत्र में विकसित प्रजातियों की स्क्रीनिंग की जाती है. उत्तरजीविका और उत्पादकता के आधार पर प्रजातियों का चयन किया जाता है. चूँकि उत्पादकता ही सेलेक्शन का एक मात्र आधार है इसलिये बहुत सम्भव है कि प्रजातियाँ जो स्वाद, रंग, गन्ध, पाक, पाचन और प्रसंस्करण गुणों की दृष्टि से अधिक उन्नत हों, वो भी स्क्रीनिंग की बलि चढ़ जाती हैं. प्रजातियों का विकास में इन सभी अन्य गुणात्मक मापदण्डों का समावेश करना अत्यावश्यक है. इससे प्रजातियों के बेतहाशा निस्तारण में कमी आएगी और उच्च एकाधिक गुणवत्ता वाली प्रजातियों की प्राप्ति होगी. इसके लिये कृषि विज्ञान की सभी विधाओं को वंश-सुधार सम्मिलित किया जाना आवश्यक है. फसल उत्पादकता के साथ-साथ, पौष्टिकता, प्रसंस्करण और पाक गुणों के महत्व को भी समझने की आवश्यकता है. बड़े स्तर व क्षमता की प्रसंस्करण इकाइयों को एकसमान कच्चे माल की आवश्यकता होती है. मिलों की आवश्यकता के अनुसार अनुबन्ध खेती (कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग) द्वारा कृषक आय में वृद्धि सम्भव है. वर्तमान फसलों के वंश-सुधार कार्यक्रमों में उत्पादकता के अलावा अन्य सभी विशेषताओं को विशेष महत्व नहीं दिया जाता. गौर करने वाली एक बात ये भी है कि सुधार सिर्फ़ निरीह प्राणीयों या वनस्पतियों का ही किया जा रहा है. कोई शेर-चीते-मगरमच्छ को शाकाहारी, सभ्य या पालतू बनाने का प्रयास नहीं कर रहा. जिसमें भी इन्सान से ज्यादा ताकत है या जिनसे इन्सान को ख़तरा हो सकता है, उनका सुधार नहीं संरक्षण किया जा रहा है. बैल को तो हमने जोत लिया और उसकी नस्लें भी सुधार दीं. घोड़े-गधे-खच्चर को भी सुधार दिया गया लेकिन किसी ने नील गाय की शक्ति को कृषि उपयोग में लाने का प्रयास नहीं किया. प्राइवेट और पब्लिक सभी अन्धाधुन्ध तरीके से फसल या जीव सुधार किये जा रहे हैं. इस व्यवस्था और विचारधारा पर नियन्त्रण लगाने की आवश्यकता है नहीं तो भविष्य में कोई भी शुद्ध प्रजाति नहीं बचने वाली. भविष्य में देश लहरी देवी जैसे लोगों का ऋणी रहेगा जिन्होंने मूल प्रजातियों को वैज्ञानिक विकास की अंधी दौड़ से बचा कर संरक्षित किया.

कभी-कभी लगता है कि हमने अंग्रेजी में ग्रहण की शिक्षा को ही ज्ञान और विज्ञान मान लिया है. शायद इसीलिये जैविक और प्राकृतिक खेती के पक्षधर पालेकर और देवव्रत जी का नाम आते ही पियर रिव्यूड अंग्रेजी जर्नल वाले साइंसदान असमन्जस में पड़ जाते हैं. ये वैसी ही बात है जैसे अंग्रेजी में चिकित्सा शास्त्र पढ़े लोगों में बाबा रामदेव का नाम सुनते ही करेन्ट दौड़ जाता है. आज आवश्यकता है देसी चिकित्सा और कृषि पद्यति को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर परखने और स्थापित करने की. जब भारत की गोवंश नस्लें ब्राज़ील में जा कर उचित प्रबन्धन से अधिक दुग्ध उत्पादन कर सकती हैं तो यहाँ पर भी वैसा किया जा सकता है. ये तो वर्तमान सरकार के प्रयास हैं जो पुरानी प्रजातियों के संरक्षण और विकास की ओर ध्यान दिया जाना आरम्भ हुआ है. प्राकृतिक खेती को बढ़ावा भी अंग्रेज़ी में आधुनिक कृषि विज्ञान पढ़े वैज्ञानिकों को तर्क-संगत नहीं लगता, किन्तु सरकार चाहती है कि हमारी पारम्परिक कृषि पद्यति की वैज्ञानिक अवधारणा पर काम किया जाये. पर्यावरण संरक्षण व स्थायित्व वाली खेती का मूल्याङ्कन व तुलनात्मक अध्ययन करने की आवश्यक है. जिस उत्पादन-उत्पादकता वृद्धि हेतु सुपर रेस विकसित करने के प्रयास सदियों से चल रहे हैं, वो एक वैज्ञानिक पटकथा से अधिक कुछ नहीं है. कृषि उत्पादन से लेकर उपभोग तक की समस्त खाद्य व मूल्य श्रृंखला का समग्रता से अध्ययन द्वारा ही सही टिकाऊ खेती का चयन किया जा सकता है. आज टिकाऊ खेती की ही नहीं बल्कि समृद्ध किसान की बात भी होनी आरम्भ हो गयी है. इसलिए आवश्यक हो जाता है कि कृषि शोध फसल सुधार से आगे कृषक आय तक समग्रता से देखे, सोचे और प्रयास करे. 

वर्तमान स्थिति में लहरी बाई जैसी महिलायें, पालेकर जी और देवव्रत जी जैसे लोग ये सम्भावना दिखाते हैं कि स्वदेशी तकनीकी ज्ञान को वैज्ञानिक पुष्टि और विज्ञान द्वारा समर्थन दिये जाने की आवश्यकता है. वो तो अच्छा हुआ जो पुंगानुरू गायें वंश-सुधारकों की दृष्टि से बच गयी. नहीं तो पूरी सम्भावना है कि यदि पुंगानुरू गाय की ओर सुधारक भाईयों का ध्यान गया होता तो वे उसकी ऊँचाई बढ़ाने में लग जाते ताकि स्टूल पर बैठ कर दूध दुहने की सुविधा मिल सके.

-वाणभट्ट

1 टिप्पणी:

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जीनोम एडिटिंग

पहाड़ों से मुझे एलर्जी थी. ऐसा नहीं कि पहाड़ मुझे अच्छे नहीं लगते बल्कि ये कहना ज़्यादा उचित होगा कि पहाड़ किसे अच्छे नहीं लगते. मैदानी इलाक...