रविवार, 7 मई 2017

माँ

माँ 

माँ को बनते देखा है 
मैंने 

अनगढ़-अल्हड सी लड़की ही तो थी 
जब आयी थी 
अपनी माँ की कुछ यादें 
कुछ हिदायतें सहेजे 

अनजाने लोगों के दिल में 
पहला प्रवेश चौके से होगा 
सब को मीठी खीर 
और 
पति की कटोरी में थोड़ा नमक 
अगर चुपचाप खा जाए 
तो बेटी - सुखी रहोगी 
माँ ने सिखलाया होगा

फिर तो समय को पंख लग गये 
दो वर्षों की अवधि पलों में बीत गयी
जब पहले शिशु का हुआ आगमन 
वो बेपरवाह सी लड़की 
पलों में बदल गयी 
हर आहट 
हर क्रंदन को  
जीती थी वो प्रतिपल 

अब वो पहले माँ थी 
फिर कुछ और 
बेटी-पत्नी-बहू नहीं 
वो केवल माँ थी 
दूसरे शिशु के बाद 
जो नहीं बदला था 
वो थी माँ  

अल्हड-अटखेलियां कब छूट गयीं 
जीवन के इतने वर्षों में 
बस इतना ही जान सका 
प्राण बसते हैं 
उसके संतानों में 
और किसी का होना सुख है 
पर बच्चों के लिए सब कुछ करना 
मात्र लक्ष्य है 

वो बच्चे जो उड़ जायेंगे दूर 
समय पर 
फिर भी उनके सुख को जीने का अपना सुख है 

उसके सुख में ही सबका सुख है 
वो है तो घर, घर है 
शब्दों की सीमाओं में 
उसे बाँधना बहुत कठिन है 

हाँ मैंने माँ को बनते देखा है 
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अपनी पत्नी में ...
अपने जीवनसाथी में...  

- वाणभट्ट 

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब ,
    हिन्दी ब्लॉगिंग में आपका लेखन अपने चिन्ह छोड़ने में कामयाब है , आप लिख रहे हैं क्योंकि आपके पास भावनाएं और मजबूत अभिव्यक्ति है , इस आत्म अभिव्यक्ति से जो संतुष्टि मिलेगी वह सैकड़ों तालियों से अधिक होगी !
    मानते हैं न ?
    मंगलकामनाएं आपको !
    #हिन्दी_ब्लॉगिंग

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी कविता सर |बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ |

    जवाब देंहटाएं
  3. भैया आपको प्रणाम🙏इतना खूबसूरत लेख, आपके संवेदनशील,भावुक और सहृदय व्यक्तित्व को उजागर करता है।बधाइयां इस लेख के लिए।

    जवाब देंहटाएं
  4. आज पुनः पढ़ा, भावुक पंक्तियाँ अंतर्मन को छू गयी👌🙏🙏💐

    जवाब देंहटाएं

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