शनिवार, 29 अप्रैल 2023

अंतिम संस्कार

अंतिम संस्कार 

वर्मा पीपल के एक पेड़ की सबसे ऊँची डाली पर पहुँच के उल्टा लटक गया. कैम्पस में बहुत से पीपल के पेड़ बिना प्लानिंग के उग आये थे. चूँकि पीपल में देवी-देवताओं का वास होता है इसलिये श्रद्धा के कारण कोई उसे हटाने को तैयार न था. पाप का भागी कौन बने. सरकारी कैम्पस किसी की व्यक्तिगत प्रॉपर्टी तो होती नहीं. अपना घर-जमीन हो तो मट्ठा डाल-डाल के निकालें. अब आलम ये है कि-

उग रहा है दर-ओ-दीवार पर सब्जा 'ग़ालिब'

हम बयाबाँ में हैं और घर में बहार आयी है 

जुम्मा-जुम्मा आठ साल ही हुये थे, वर्मा को रिटायर हुये. घर-बार-परिवार आज जो कुछ भी उसके पास था, उसके पीछे एक अदद नौकरी का होना ही मुख्य कारण था. वरना दिल के अच्छे और सच्चे लोगों से की दुनिया में कोई कमी है क्या. लेकिन क्या मजाल कि कोई लड़की या लड़की का बाप ऐसे इंसान को अपना पति या दामाद, क्रमशः, बनाने को तैयार हो. नौकरी लगना अपने आप में एक लॉटरी है. जहाँ एक-एक, दो-दो नम्बर से सफलता चूक जाती हो, वहाँ सफलता का श्रेय अपनी कड़ी मेहनत को देना और असफलता का ठीकरा भगवान की मर्ज़ी पर फोड़ना ही नियत बन जाती है. और सबसे बड़ी बात ये थी कि माशाल्लाह वर्मा की शुद्ध सरकारी नौकरी थी. जब तक प्राइवेट में काम करता रहा, वर्मा को ख़ुद ही डाउट हुआ करता था कि शादी होगी भी या नहीं. लड़की वाले इंजीनियर समझ कर आते थे और प्राइवेट के नाम पर मुँह पर ही मुँह बिचका के चले जाते थे. बाद में कितने ही प्रपोजल सिर्फ़ इसलिये आये कि वर्मा के पीछे सरकार खड़ी थी. ये बात तब की है जब प्राइवेट कम्पनियों में पैकेज का दौर शुरू नहीं हुआ था. लड़कियाँ भी स्मार्ट से ज़्यादा लल्लू टाइप के भरोसेमन्द लड़कों को पसन्द करती थीं, जो उनके हिसाब से दिन को रात और रात को दिन बता सके. इस प्रकार उनके घर-बार की स्थापना हुयी. समय के साथ परिवार और समृद्धि में वृद्धि होनी ही थी और हुयी भी. अब उनको काफी हद तक सुखी कहा जा सकता था.  

चूँकि उनके सब कुछ का आधार नौकरी ही थी, इसलिये उन्होंने 'कर्म ही पूजा है' का स्लोगन अपने ऑफिस में अपनी कुर्सी के पीछे लगा रखा था. जिससे हर आने वाला उसे बिना मिस किये पढ़ सके. जिसका नज़रिया सरकारी नौकरी में भी ऐसा हो, वो व्यक्ति कितना महान होगा. वैसे वर्मा कर्मठ व्यक्ति था भी. लेकिन सिर्फ़ कर्मठ होने से काम नहीं चलता. अपने को कर्मठ सिद्ध करने के लिये हर समय मथे रहिये कि आप कर्मठ हैं (और बाक़ी सब निकम्मे). मार्केटिंग का जमाना कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा. सेल्फ़ प्रमोशन के लिये जो भी करना हो, करना चाहिये. भविष्य के इतिहास के जिस हिस्से को हम जी रहे हैं, उसे देख कर सहज आभास हो जाता है, जब महान लोग जीवित रहे होंगे, तो उन्हें लोगों की कितनी आलोचना झेलनी पड़ती होगी. और लोग अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरूप उन्हें कितने हल्के शब्दों से नवाज़ते रहे होंगे. वो तो तब कैमरे और न्यूज़ चैनेल्स नहीं थे, बस प्रिन्ट मीडिया हुआ करता था और पढना सब जानते नहीं थे. आज के इतने खुले वातावरण में जब मीडिया को गोदी में बैठाया जा सकता है तो तब का इतिहास भी आकाओं के हिसाब से लिखवाया गया होगा. चूँकि वर्मा को उस जमाने में काफी रगड़-घिस के नौकरी मिली थी, तो वो उसके महात्म्य को भली-भाँती समझता था. जो भी जिम्मेदारी मिलती थी उसे यथायोग्यता अनुसार पूरी करने का प्रयास करता था. एक कहावत है 'जहाँ गधे पर नौ मन वहाँ एक मन और' भी डाल दो तो वो चीं नहीं करेगा. जिम्मेदारी निभाते-निभाते वर्मा का हाल वैसा ही हो गया था. सारे थैंकलेस टाइप के कामों के लिये वो हमेशा डिमाण्ड में रहता. ऑफिस के चक्कर में उसने घर को घर नहीं समझा. जाने का तो टाइम था लौटने का कोई पुरसा हाल नहीं. ज़िन्दगी ऐसे ही चलती रही और वर्मा को कभी कोई शिकायत रही हो, ऐसा भी न था. साठ साल की उम्र में जब वो रिटायरगति को प्राप्त हुआ तो उसके बॉसों ने उन पर कशीदों की झड़ी लगा दी. उनके बिना एक निर्वात खड़ा होने वाला था. उसकी पूर्ति कैसे होगी. एक बारगी तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि क्या वो वाकई इतना अच्छा आदमी था, जितना बताया जा रहा था.

लेकिन ये तो समय चक्र है जो नौकरी में आया है, वो साठ का होते ही जायेगा, चाहे वो कितना भी स्वस्थ और एक्टिव हो. कर्मयोगी लोग रिटायर्मेंट के बाद अक्सर इसीलिये बीमार हो जाते हैं कि पूरे दिन में इतना समय है, करें तो करें क्या. रिटायर्मेंट के एक दिन पहले तक इतने व्यस्त रहे कि पूजा-अर्चना-योग-ध्यान और शौक के लिये समय ही नहीं था. अब रोज उठते हैं तो देखते हैं पूरा दिन पहाड़ की तरह सामने खड़ा है. कितना टहलें, कितनी सब्जी लायें. बच्चे सब बंगलौर-पूना-कनाडा-अमरीका निकल लिये. जब तक बच्चों के बच्चों को बस्ते नहीं टंगे थे, दादी-बाबा को लगता था, मूल का सूद ही अब उनके जीवन का मकसद है. लेकिन बस्ता टंगते ही थ्री बीएचके फ्लैट्स में जगह की कमी हो जाना स्वाभाविक सी बात है. टिन्कू को एक अपना अलग स्पेस चाहिये और यदा-कदा आने वाले आगंतुकों के लिये गेस्ट रूम. पापा हर समय टिन्कू को टीवी में घुसाये रखते हैं और मम्मी के लाड ने तो टिन्कू को बिगाड़ रखा है. जब तक शरीर स्वस्थ था, तो वर्मा जी साल में चार बार बच्चों के यहाँ चक्कर काट आते थे. लेकिन पिछले विजिट में उन्हें ये आभास हो गया कि उनके रहने से टिन्कू की पढायी डिस्टर्ब होती है. वो अपने बनाये मकान और अपने कर्मक्षेत्र वाले शहर वापस आ गये. पुराने यार-दोस्तों के बीच कुछ समय सब ठीक चला. उसके बाद जो उन्हें हुआ उसे बीमारी नहीं कहा जा सकता. डिप्रेशन से बचने के लिये योग-प्राणायाम की जगह बच्चों के सजेशन पर डॉक्टरों की सलाह ले ली. लेकिन जैसे-जैसे दवा करते गये मर्ज बढ़ता ही गया. कुछ दिन आईसीयू में बीते.

आज वो बहुत हल्का महसूस कर रहे थे. 'गाईड' की वहीदा रहमान की तरह जीने की तमन्ना और मरने का इरादा साथ-साथ कुलाँचे मार रहा था. आईसीयू से उनके शरीर को बाहर कर दिया गया था. बच्चे आये. जल्दी में थे. तीन दिन में सभी संस्कारों को समाप्त करके सब निकल गये. पत्नी को भी साथ लेते गये कि मम्मी का मन बदल जाये. बच्चों का माता जी के प्रति प्रेम और सम्मान वर्मा को खुश कर गया. तेरह दिन तक तो आत्मा अपने घर में ही रहती है इसलिये वो वहाँ रहे.

वापस चलने ही वाले थे कि उन्हें ध्यान आया, सोने के समय को छोड़ दें तो जागते हुये समय का अधिकांश समय तो उसने ऑफिस में ही बिताया है. वही ऑफिस जिसके लिये उनका दिल-औ-जाँ समर्पित हुआ करती थी. वहाँ भी तो कोई संस्कार बाक़ी होगा. लोग बाग हैं कि बस फ़ेसबुक और वाट्सएप्प पर आरआईपी और ओम शांति से काम चलाना चाहते हैं. वो आ गये और तब से उल्टे लटके पड़े हैं, पीपल के पेड़ की सबसे ऊँची टहनी पर कि कन्डोलेंस हो जाये तो चलें.          

-वाणभट्ट 

मंगलवार, 18 अप्रैल 2023

काजी जी क्यूँ दुबले

एक जमाना था जब काजी शब्द सामने आते ही किसी दुबले-पतले व्यक्ति की इमेज आँखों के सामने आ जाया करती थी. क्योंकि एक मुहावरा होता था - काजी जी क्यूँ दुबले, शहर के अन्देशे. उसका आशय ये हुआ करता था कि शहर भर की चिन्ता में काजी जी दुबले होते रहते हैं. जब से हिन्दुस्तान में ओबेसिटी और मोटापे की बात शुरू हुयी है, तब से उस तरह के दुबले-पतले आदमी की कल्पना करना भी मुश्किल हो गया है. और इंडिया वालों की एक ख़ासियत तो माननी पड़ेगी, कि क्या मजाल ये किसी भी चीज़ की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लें. मुग़ल आये तो उन्हें लगा अपनी हिस्ट्री बनाने से अच्छा है दूसरों की पढ़ लेना. और जब अंग्रेज़ आये तो उन्होंने महसूस किया कि सभ्यता कोट-पैंट-बुशर्ट में चलती है और विज्ञान तो अंग्रेज़ी में ही लिखा जाता है. ये परम्परा तब से अब तक कायम है. हिन्दी या संस्कृत या किसी प्रादेशिक भाषा में लिख कर आप ज्ञानी तो कहला सकते हो, विज्ञानी नहीं. जब हर आदमी गर्भवती महिला की तरह पेट फुलाये घूम रहा हो तो इसे हम अपना आलसीपन कैसे मान लें. ये जो गेहूँ हम खा रहे हैं, सारा दोष उसी का है वरना हम तो बस दो रोटी सुबह और दो रोटी शाम खाते हैं और तोंद है कि घटने का नाम नहीं लेती. दिनभर में जो समोसा-ढोखला-बर्गर-पिज्जा डकार गये, वो तो बस हल्का सा स्नैक्स है, और वो खाने की कैटेगरी में थोड़ी नहीं आता. 

बहरहाल काजी जी का काम चिन्ता करना ही होता था. चिन्ता तो बस करने की चीज़ होती है. अगर आप किसी दिन दोनों हाथ और पाँव लेकर जुट गये, तो बहुत सम्भव है कि चिन्ता का समाधान निकल जाये. लेकिन शरीर को कष्ट देने की अपेक्षा चिन्ता करना कहीं ज़्यादा आसान काम है. आपको लगता रहता है कि बहुत कुछ कर रहे हैं लेकिन करना कुछ भी नहीं है. चिन्ता करने वालों का फुल टाइम काम, सिर्फ़ और सिर्फ़ चिन्ता करना है. और जब चिन्ता करने में कोई काम नहीं करना पड़ता, तो काजी जी दुबले कैसे होते थे, ये बात समझ से परे है. उन्हें तो माशाल्लाह हलाल के बकरे की तरह ख़ासा मोटा-ताज़ा होना चाहिये था. लेकिन चूँकि मुहावरे देश-काल के हिसाब से सटीक हुआ करते थे, इसलिये ये मानना पड़ेगा कि काजी जी शहर भर की चिन्ता किया करते थे और दुबले भी हुआ करते थे. 

एक कारण ये भी हो सकता है कि तब तक ग्रीन रिवोल्यूशन ने दस्तक न दी हो. या गेहूँ तब तक ईज़ाद न हुआ हो. तब के मोटे अनाज और आज के श्रीअन्न की कमी रही हो. न नौकरी का कॉनसेप्ट था, न ही पे कमिशन्स हुआ करते थे. तो बहुत सम्भव है, पैसा उनके पास चला जाता हो जो शरीर हिलाने में संकोच नहीं करते थे. और वही लोग खाते-पीते, हृष्ट-पुष्ट हुआ करते हों. ऐसे में अगर चिन्तक टाइप के लोग दुबले रह जायें, तो उसे उनकी अकर्मण्यता कहना सर्वथा अनुचित होगा. बुद्धिजीवी के लिये बुद्धिजीवी बने रहना ज़्यादा इम्पॉर्टेंट है. काम तो कोई भी कर सकता है, लेकिन सोचना हर किसी के बस की बात नहीं है. घण्टों एक जगह बैठना और बैठ कर सोचना बहुत श्रमसाध्य कार्य है. आप बस पन्द्रह मिनट एक जगह बैठ के दिखा दीजिये, सोचना तो दूर की बात है. काजी जी इसलिये भी दुबले बने रहना चाहते थे कि उनकी भुखमरी और दरिद्रता, विद्वता की आड़ में छिप जाये और किसी को उनके माली हालातों के बारे में पता न लगे. 

लेकिन अब वो दिन लद गये हैं जब काजी जी दुबले-पतले हुआ करते थे. देश भले ही डेवलपिंग का डेवलपिंग रह गया लेकिन हर कोई व्यक्तिगत रूप से डेवेलप कर गया. जिनके परदादा सायकिल के लिये तरसते थे उनका परपोता अपने एलआईजी मकान में बोलेरो के लिये गेट लगवाता है. यही तरक्क़ी है. कहाँ खाने के लाले थे, अब गली-गली खोमचे-खानों-व्यंजनों-पकवानों की दुकानें हैं.  ग्रीन रिवोल्यूशन ने आदमी को भुखमरी से सिर्फ़ निजात ही नहीं दिलायी बल्कि खाद्यान्न इतनी प्रचुरता में उपलब्ध करा दिया कि काजी जी को बिना खाये सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ती है. वो सोच-सोच के खाने के बजाय खा-खा के सोच रहे हैं. रेडी-टू-ईट खानों की उपलब्धता के कारण, जो थोड़ी बहुत मेहनत करनी भी पड़ती थी, वो भी करने की ज़रूरत खत्म. पहले जब भूख लगती थी तो चौके तक जा कर कुछ बनाना पड़ता था. अब तो जंक फूड की बाढ़ आ रखी है. ऐसे में काजी जी को कम से कम खाने-पीने की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है. 

हर तरफ़ बेडौल से डोलते लोगों को देख कर आप सोच सकते हैं कि अब काजियों की प्रजाति लुप्तप्राय हो गयी है. लेकिन ये एक्सटिंक्ट हो जाने वाले जीव नहीं हैं. ये खाना मिले तो खा लेंगे और नहीं मिले तो कॉकरोच की तरह हाइबरनेशन में चले जायेंगे, लेकिन सोचना नहीं छोड़ सकते. आज के हालात ये हैं कि कोई भूखा मरना भी चाहे तो सरकार मरने नहीं देगी, कम से कम भूख की वजह से तो बिल्कुल नहीं. मुफ़्त राशन वितरण एक ऐसी ही योजना है, जिसमें लोग राशन ले कर मार्केट में बेच भी सकते हैं. पुरानी फ़िल्म का एक डायलॉग याद आ रहा है, जिसमें विलेन कहता है कि - मैं तुम्हें ऐसी जगह मारूँगा जहाँ पानी भी न मिलेगा. उस पर अपने धरम पा जी का रिप्लाई था - कुत्ते, मैं तुझे पानी पिला पिला के मारूँगा. अगर मेडिकल साइंस का लेटेस्ट इतिहास लिखा जाये, तो पता चलेगा कि वाकई लोग भूख से कम मगर खा-खा के ज़्यादा मर रहे हैं. क्या खायें या क्या न खायें बताने से अच्छा है, मँहगी-मँहगी दवाई ही खिलायें. पूरा का पूरा चिकित्सा उद्योग इसी सिद्धांत पर चल रहा है. समीकरण सीधा है, लोग हैं तो खायेंगे. भोजन उपलब्ध हो तो हर समय खायेंगे. सुबह उठने से रात के सोने तक खायेंगे. वो तो अच्छा है कि बीच में नींद आ जाती है, वरना मुँह और पेट के थोड़े आराम की किसे चिन्ता है. गलती से रात में नींद खुल गयी तो कभी-कभी ये समझ नहीं आता कि तीन बजे रात को खायें तो खायें क्या. कृषि क्षेत्र में इतनी क्रांतियाँ आ चुकी हैं कि भोजन प्रचुरता में उपलब्ध है. उस पर तुर्रा ये है कि न आपको बनाना है, न पकाना. बस पैकेट खोलो और शुरू हो जाओ. इन परिस्थितियों में आप दुबले-पतले काजी की उम्मीद कैसे पाल सकते हैं.

काजी हैं तो एक जगह बैठ के ही सोचेंगे. सोचेंगे तो दिमाग़ पर लोड पड़ेगा. दिमाग़ दौड़ेगा तो थकेगा भी और उसे भूख भी लगेगी. भूख लगेगी तो कहीं भी उठ के जाने की ज़रूरत भी नहीं है. बगल में चिप्स-कुरकुरे-टकाटक-मंच-न्यूट्रीबार-शेक-जूस का अम्बार लगा है. बस हाथ बढ़ाने की देरी है. और उसके बाद यदि बीच में लंच-डिनर का टाइम आ जाये तो थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, बस दरवाज़े तक जाने में. स्विग्गी-ज़ोमैटो हैं न. ट्रेडिशनल खाने में मुँह की बेवजह कसरत हो जाती है और चिन्तन से ध्यान भटकने की गुंजाइश रहती है. इस दृष्टि से पिज़्ज़ा-बर्गर-मोमोज़-फ्रेंच फ्राइज़ आपको कम डिस्ट्रैक्ट करते हैं. आपने खाया भी लेकिन नहीं खाने वाली फ़ीलिंग उसी तरह बनी रहती है जैसे व्रत में सिंघाड़े के आटे का हलुआ और साबूदाने-मखाने की खीर और कुट्टू के आटे की पूड़ी खाने के बाद भी व्यक्ति कह सकता है कि वो उपवास कर रहा है.

इसलिये आपको जो आस-पास डायनासॉर के भतीजे सरीखे घूमते हुये लोग दिख रहे हैं, दरअसल ये नये जमाने के काजी हैं. वाणभट्ट कोई इनसे अलग नहीं है. लेकिन क्लेम हमारा ब्लेम तुम्हारा टाइप के हर उस आदमी के बुद्धिजीवी होने पर लानत है जो ब्लेम अपने सर ले ले. जब श्रीअन्न खाते थे, अच्छा सोचते थे, और अच्छा सोचते थे तो स्वस्थ भी रहते थे. ये गेहूँ न होता तो हम बस भूखे ही तो रहते. मौके, दस्तूर और नज़ाकत का फ़ायदा उठा कर इन काजियों ने सारी तोहमत लाद दी, गेहूँ पर, इसी के कारण तो व्हीट बेली होती है. ये गेहूँ ही हमारे उभरते या उभर चुके तोंद का मुख्य अपराधी है. इस परिपेक्ष्य में पुराने मुहावरे को रिवाइज़ करने की आवश्यकता है - काजी जी क्यूँ मोटे, शहर के अन्देशे.

-वाणभट्ट

मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

कद्दू में तीर

कद्दू में तीर 


बात उन दिनों की है जब मुझे नया-नया आत्म ज्ञान मिला कि अन्य नौकरियों की तरह शोध और शिक्षा अब शौक़ या हॉबी न रह कर नौकरी बन चुके हैं. जैसे की बहुत से ज्ञानीजन बता चुके हैं कि इन्टर के बाद सबसे इन्टेलीजेन्ट लोग इंजीनियरी या डॉक्टरी में प्रवेश ले लेते हैं. उसके बाद वाले आईएएस या एमबीए में सेलेक्ट हो जाते हैं. जिनके पास सामाजिक गतिविधियों के कारण पढने-लिखने का समय कम होता है, वो नेता बन सकते हैं और उनके नीचे आइएएस और इंजीनियर काम करते हैं. बीटेक या ग्रेजुएशन करते करते छात्र अक्सर इतना पक जाते हैं कि एक अदद नौकरी की तलाश शुरू कर देता है. खुद्दार टाइप के बच्चे ट्यूशन और छोटी-मोटी नौकरी करके अपनी पढायी जारी रखने का प्रयास करते हैं, ताकि पिता जी के बोझ को कुछ कम किया जा सके. वहीं कुछ बाप ऐसे भी होते हैं, जो बच्चों में ये विश्वास भरते हैं कि बेटा लौटना तो अशोक की लाट वाली नौकरी ले कर वर्ना घर में इतना पुदीना सूख रहा है कि तेरी सात पुश्तों को भी नौकरी करने की जरूरत नहीं पड़ने वाली. शायद ही किसी बाप ने सपने में भी बेटे को वैज्ञानिक बनाने का सपना पाला हो. और शायद ही कोई बेटा भी ऐसा हुआ हो जिसने वैज्ञानिक बनने की इच्छा दिखायी हो. जिन्हें ऐसा स्वप्न आया भी होगा तो उन्हें नासा और इसरो से कम का तो नहीं ही आया होगा. 

अक्सर एक अदद सरकारी नौकरी के प्रति अदम्य इच्छा शक्ति ही उच्च से उच्चतर शिक्षा कम्प्लीट कर लेने के लिये प्रेरित करती रहती है. जब तक नौकरी न मिल जाये, उच्च शिक्षा ज़माने में सर छुपाने का सबसे कारगर हथियार है. ग्रेजुएशन करके कोई गलती से गाँव-घर पहुँच गया तो सभी इष्ट-मित्र-ख़ैरख्वाह पूछ-पूछ के जीना हराम कर देते हैं कि बेटा आगे क्या करने का इरादा है. सो घर पर रह कर कॉम्पटीशन्स की तैयारी करना एक कठिन काम है. शहर में या घर से दूर रहिये तो बाप को भी बता सकते हैं कि बस दो नम्बर से मेन्स चूक गया. पिता जी को भी फ़ख्र करने का मौका मिल जाता है कि बेटा सिविल की तैयारी में जुटा है. कला संकाय वालों के पास तो बहुत ऑप्शन हैं. बीए, एमए करने के बाद एलएलबी-एलएलएम करने की गुंजाईश बची रहती है. लेकिन विज्ञान संकाय वाले बच्चों के पास पीएचडी का ही स्कोप बचता है. ऐसा नहीं कि उन्हें एलएलबी करने की मनाही है. लेकिन टू द पॉइन्ट और पूर्णतः सही या गलत उत्तर देने वाले बच्चों के लिये बेवजह भाँजना थोड़ा कठिन तो है. जबकि वहाँ का सिद्धांत है कि कॉपी पर लिखोगे नहीं तो एग्ज़ामिनर नम्बर कैसे देगा. इसलिये लिख के ज़रूर आना. खेत पूछे तो खलिहान लिखना लेकिन कागज़ कोरे मत छोड़ना. बी और सी कॉपी ले लोगे तो अच्छे मार्क्स भी मिल सकते हैं. बहुत से लोग कॉम्प्टिशन्स की तैयारी में पीएचडी तक कर डालते हैं. शोध शुरू करने से पहले ये भी शोध किया जाता है कि किस विश्वविद्यालय का कौन सा एडवाइजर टाइम से डिग्री दिलवा सकता है और कौन शोध में इतना डूब जाता है कि उसे आपकी डिग्री की चिन्ता ही नहीं रहती. वैसे भी डिग्री जब आपकी है तो किसी और को भला क्यों चिन्ता होने लगी.

और अब जब शोध नौकरी बन गया है तो आइन्स्टाइन-एडिसन-न्यूटन की तरह मनमर्जी से शोध नहीं कर सकते. ऑफिस टाइम में अगर आप पेंड के नीचे झपकी ले रहे हो तो कोई भी आपकी फोटो निकाल के बॉस को प्रेषित कर सकता है. और गलती से सेब आपके ऊपर गिर भी जाता तो आप हडबडा कर ऑफिस की ओर भागेंगे या ये सोचेंगे कि सेब क्यों गिरा. शुक्र मनाते कि सेब न गिरता तो पता ही न चलता कि शाम होने को आयी. नौकरी के अपने नियम हैं. यहाँ ना-करी नहीं कर सकते. बॉस इज़ ऑलवेज राईट का सिद्धांत भी चलता है. अन्य नौकरी की तरह यहाँ भी तेल-मालिश और बटर-पॉलिश प्रमोशन के अमोघ अस्त्र हैं. जब पहली बार प्राइवेट नौकरी ज्वाइन की तो फैक्टरी मैनेजर ने वेलकम करने के लिये कमरे में बुलाया और डूज़ और डोंट्स की एक लिस्ट पकड़ा दी. काम वेल डिफाइंड था. जब शोध संस्थान पहुँचा तो बॉस ने वेलकम करते हुये कहा कि वर्मा तुम क्या करना चाहते हो. मेरे अंडर में काम करने वालों को काम करने की पूरी छूट है. जो चाहे करो मेरा पूरा सपोर्ट रहेगा. तब से हर हफ्ते में एक-दो प्रोजेक्ट बना कर बॉस से मिलता. और बॉस के पास कई तर्क होते - इस काम के लिये यहाँ सुविधा नहीं है, ये काम बहुत ही कठिन है, अभी तुम कर नहीं पाओगे और सबसे अच्छा तर्क था कि यदि ये हो सकता होता तो अमरीका-जापान वाले कर चुके होते. बॉस चूँकि सदैव सही होते हैं इसलिये मै फिर अगले हफ्ते मिलने का वादा लेकर विदा हो लेता. और अगले मिलन में मेरे दिल में उठ रहे यूरेका वाले भाव की अच्छी तरह से बत्ती बनायी जाती और डस्टबिन के हवाले कर दी जाती. अगली बार जब मै गया तो उनके चेहरे पर कुछ निश्चयात्मक भाव पहले से व्याप्त था. लेकिन उन्होंने मेरे प्रोजेक्ट को पूरे गौर से सुना. लेकिन उस पर कोई कमेन्ट नहीं किया. बल्कि राय दी कि यदि मै आटा चक्की पर काम करूँ तो कैसा रहेगा. मै हतप्रभ सा अपलक नेत्रों से उनके मुखारबिन्दु की ओर देखता रह गया. बाद में पता चला कि उन्होंने उसे घूरने की संज्ञा दे दी. बहरहाल वो मेरे लिये पहली सीख थी कि सजेशन्स नीचे से ऊपर नहीं जाते, ऊपर से जो इंस्ट्रकशंस आयेंगे उन्हीं को फ़ॉलो करना है. सही भी है. बॉस कौन है, ये हमेशा याद रखना चाहिये. बॉस वहाँ तक देख सकता है, जहाँ तक हम सोच भी नहीं सकते.      

अब चूँकि ये नौकरी है इसमें प्रमोशन के लिये कुछ शर्तें भी ज़रूर होंगी. उसमें से एक शर्त थी कि काम चाहे आप कुछ भी कर लीजिये, प्रमोशन के लिये एक पीएचडी की डिग्री होनी ही चाहिये. दिल का तो काम ही है कि रोज कोई ख्वाहिश, कोई तमन्ना पैदा की जाये. तब तक बीवी-बच्चों की ओर से कुछ-कुछ निपट चुके थे, तो सोचा कैरियर की ओर भी ध्यान दे लिया जाये. पीएचडी करने से पहले वाली खोज शुरू की गयी कि किस विश्वविद्यालय में किस प्रोफेसर के अन्तर्गत शोध किया जाये ताकि तीन साल की डिग्री तीन साल में ही मिल जाये. अब मै इन सर्विस कैंडिडेट था इसलिये स्टडी लीव में ही काम खत्म करना आवश्यक था. जब रैगिंग का दौर चला करता था, सीनियर्स और जूनियर्स के रिश्ते बने रहते थे. अमुक युनिवर्सिटी में अमुक प्रोफ़ेसर बहुत ही सीधे और सहज स्वभाव के हैं. तीन साल में यदि लड़का डिग्री नहीं भी करना चाहे तो वो धक्का लगा कर बाहर करवा ही देते हैं ताकि उनका रिकॉर्ड खराब न हो. वो ईमेल और डब्ल्यु डबल्यु डब्ल्यु डॉट इन वाला ज़माना तो था नहीं कि मुलाकात फिक्स करके निकलते. अगले ही मौके पर मै उनके सामने प्रस्तुत था.

गुरु जी में गुरु के सारे लक्षण थे. चेहरे पर अन्तस का तेज दैदीप्यमान था. इतनी सहृदयता से मिले कि मेरी अन्तरात्मा कहने लगी गर फ़िरदौस डिग्री करनी है तो बस यहीं अस्तो, यहीं अस्तो, यहीं अस्तो. मै अपने ढेर सारे प्रोजेक्ट प्लान्स ले कर इस उम्मीद में गया था कि किसी न किसी पर तो प्रोफ़ेसर साहब मान ही जायेंगे. उन्होंने ने भी उतने ही गौर से सुना जितनी उत्सुकता से मै बता रहा था. सारी बातें सुनने कर बाद उन्होंने गुरु-गंभीर आवाज़ में बोलना शुरू किया. देखो बेटा तुम लोग यंग हो, अभी बहुत कुछ करना चाहते हो लेकिन समय सीमित है. तुम्हारी तो नौकरी ही शोध की है, और काम करने के लिये पूरी ज़िन्दगी पड़ी है. मेरा कन्सर्न ये है कि तुम तीन साल में डिग्री लो और यहाँ से चले जाओ. तुम्हारे सारे के सारे काम अप्प्लाइड और सोल्यूशन ओरियेंटेड हैं. मै हमेशा पाथब्रेकिंग काम करता हूँ. एकदम नया एरिया खोजता हूँ और उस पर काम शुरू कर देता हूँ. जब तक दूसरों का ध्यान उधर जाता है और वो उस एरिया में काम शुरू कर दें, उससे पहले मै नया पाथ ब्रेक करने में लग जाता हूँ. मान लो तुमने कोई मशीन बनाने का प्रयास किया तो दो बातें होंगी. या तो मशीन चलेगी, या नहीं चलेगी. चल गयी तो ठीक, लेकिन नहीं चली तो तुम्हारी डिग्री लटक जायेगी. थोडा आध्यात्मिक होते हुये उन्होंने बोलना जारी रखा. शोध आत्मा-परमात्मा की तरह होना चाहिये. या तो आत्मा को पता हो कि उसने क्या किया या परमात्मा को. अप्प्लाईड काम चाहे कितना भी उपयोगी हो, हाई रेटिंग के जर्नल्स में छापना मुश्किल हो जाता है. जब कि अबूझ शोधपत्र बहुत ही अच्छी रेटिंग पाते हैं. ऐसे शोध से सदैव बचना चाहिये जिसका जवाब आपसे हाँ या ना में माँगा जाये. जवाब के बदले में  आप और दस सवाल पैदा कर दें. फ्यूचर रिसर्च के क्षेत्र आइडेंटिफाई करना भी शोध का एक प्रमुख लक्ष्य होता है. समस्या ऐसी होनी चाहिये, जिस पर सारी दुनिया काम कर रही हो, पर कर कोई कुछ भी न पा रहा हो. समाधान के चक्कर में कभी पड़ना ही नहीं चाहिये. समस्या खत्म हो गयी तो तुम करोगे क्या. इतिहास साक्षी है कि समस्यायें वहीं की वहीं हैं, कितने ही शोधकर्ता आये और आ कर चले गये. हाँ ये बात अलग है कि अब समाधान खोजने के लिये शोध पर खर्च बढ़ते जा रहे हैं. क्योंकि उच्च रेटिंग के जर्नल में छापने के लिये काम उन्नत तकनीकों और यन्त्रों द्वारा करना पड़ता है, इसलिये शोध का ख़र्च बढ़ना लाज़मी है. समाधान न उनको मिलना है, न तुमको मिलेगा. सब कद्दू में तीर मार रहे हैं, तुम भी मारो. न उनका तीर लगेगा, न तुम्हारा. अलबत्ता तुम्हारी पीएचडी समय पर ज़रूर हो जायेगी. भाव विह्वल हो कर मैंने उनके चरणों की ओर हाथ बढ़ाना चाहा लेकिन उन्होंने मुझे गले से लगा लिया. 

कृष्ण ने जैसे महाभारत काल में अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी थी, वैसे ही मेरे ज्ञान चक्षु खुलते जा रहे थे. हर कोई हाथ में धनुष लिये कद्दू पर निशाना साधता हुआ दिखायी दे रहा था.

-वाणभट्ट 

ऑर्गेनिक जीवन

मेडिकल साइंस का और कुछ लाभ हुआ हो न हुआ हो, आदमी का इलाज जन्म के पहले से शुरू होता है और जन्म के बाद मरने तक चलता रहता है. तुर्रा ये है कि म...