मंगलवार, 2 नवंबर 2021

सिकन्दर

बाप ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि सपना सच हो जायेगा। सिकन्दर सचमुच सिकन्दर बन जायेगा। जब पच्चीस साल पहले बहुत जतन के बाद लड़का हुआ तो बाप को लगा उसने जग जीत लिया। बेटे का नाम रखा सिकन्दर। सिंह राशि में पैदा पूत के पाँव पालने से ही झलकने लगे थे। बहुत ही डिमांडिंग था। मम्मी चाहिये तो मम्मी, पापा चाहिये तो पापा। यही हाल था, बड़ी, मझली और छोटी दीदी के साथ। जिससे जो चाहा मनवा के ही मानता था। इकलौता बेटा था। लाड़ में कोई कमी नहीं होनी चाहिये। इस बात का हर कोई ख़याल रखता था।

यूपी और पंजाब के पानी में शायद उतना फ़र्क न हो जितना परवरिश की स्टाइल में। वहाँ के पेरेंट्स फ्री डेवलपमेंट के हिमायती हैं जबकि यूपी में सारा ध्यान बच्चों को संस्कारित करने में लगा दिया जाता है। कोई मेहमान आया हो और मेज पर नाश्ता लगा हो तो क्या मजाल कि यूपी का बच्चा बिस्कुट उठाने की गुस्ताखी कर बैठे। माँ अपनी एक नज़र मेहमान पर तो दूसरी उसी पर टिकाये रखती है। नतीजा यहाँ 6 फुट की कद्दावर काठी के लोग गाहे-बगाहे ही दिखायी देते हैं। पूरा का पूरा प्रदेश 5 फुट 5 इंच में सिमट जाता है। कोई दिख भी जाये तो यकीन मानिये उस बन्दे के माँ-बाप ने उसे संस्कारित करने में ज़्यादा ऊर्जा नहीं लगायी होगी। 

अपनी कहानी का हीरो, इतना असीम प्यार पा कर भी 5 फिट 9 इंच पर अटक गया। तब विश्वास करना पड़ता है कि जीन का भी अपना रोल होता होगा, वरना अंग्रेजी शोध पत्रों में लिखी हर बात को बाबा जी ने ढकोसला सिद्ध कर रखा है। लेकिन हमारे उत्तम प्रदेश के लिहाज से ये भी कम नहीं था। फ्री डेवलपमेंट का ये लाभ है कि बच्चा वही करता है जो उसका करने का मन। खेलना और बॉडी बिल्डिंग सिकन्दर के शौक़ थे। ग्रेजुएशन करते न करते सिकन्दर को स्पोर्ट्स कोटा से शहर में ही एक नौकरी मिल गयी। मिडल क्लास लोगों की ख़्वाहिशें भी बस इतनी होती हैं कि बच्चा पढ़-लिख कर जॉब में आ जाये। अपने शहर में ही रहे तो और क्या चाहिये। बुढापे का सहारा किसी मल्टीनेशनल के चक्कर में पड़ गया तो किसी काम का नहीं रहता। 

बहनों की शादी कर करा कर पिता जी निपटे ही थे कि सिकन्दर ने एक लड़की को ला कर माता-पिता के सामने खड़ा कर दिया। सजातीय हो तो ओत्र-गोत्र पूछा जाता। लेकिन पेरेंट्स को मालूम था कि बेटा तो मानेगा नहीं। धीरे से पूछा लड़की ने तो अपने माँ-बाप से तो परमिशन ले ली होगी। सिकन्दर का टका सा जवाब था - बस आप अपना आशीर्वाद दे दो उनका तो मिल ही जायेगा। नतीजा वही हुआ जो सिकन्दर को मंजूर था। जितने धूमधाम से वो शादी करना चाहता था की। बिल पिता जी भरते। लेकिन पेरेंट्स इसी बात से खुश थे कि बेटा-बहू साथ रहेंगे। मूल और सूद दोनों का सुख मिलेगा तो बुढापा आसानी से कट जायेगा।

मैन प्रोपोजेज़ गॉड डिस्पोजेज़। सूद जब तक प्ले ग्रुप में रहे, हर समय दादी-बाबा करते नहीं थकते थे। बस्ता क्या टँगा बच्चों की पढ़ाई की सारी टेंशन बहू पर आ गयी। दादी-बाबा बस दिनभर टीवी देखते हैं। बच्चों के कार्टून चैनल्स के कारण दादी ने अपने दूरदर्शन के सीरियल्स और बाबा ने न्यूज़ चैनल्स की तिलांजलि दे दी। लेकिन बहू को लगता ये लोग कार्टून दिखा कर बच्चों को अपने पास बनाये रखना चाहते हैं। सुबह-सुबह उठ कर जो शोर-शराबा मचाते हैं उससे भोर की नींद में खलल भी नाकाबिल-ए-बर्दाश्त होता जा रहा था। 

जब बच्चों के प्रवेश पर पाबंदी लग गयी तो दादी-बाबा के लिये दिन पहाड़ होने लगे। सिकन्दर को बोलने की हिम्मत तो पहले ही नहीं थी। सोचा कुछ देशाटन-तीर्थ कर लिया जाये। पेंशन की वजह से वे लोग बच्चों के मोहताज़ तो नहीं थे। वृन्दावन में बाँके बिहारी के दर्शन की लालसा बच्चों के सेटलमेंट के कारण बहुत दिनों से टल रही थी। लिहाजा एक दिन प्रोग्राम बना लिया। क्या पता था लौट कर ये दिन देखना पड़ेगा।

कल्याणपुर थाने के दरोगा ने दो गिलास पानी लाने को कहा। बाबू जी आप बिलकुल परेशान मत होइये। मकान आपके नाम पर है। आप चाहेंगे तो बेटा-बहू साथ रहेंगे वरना बाहर। सिकन्दर और उसकी पत्नी ने उन्हें लौट कर घर में घुसने नहीं दिया। दरोगा उन्हें लेकर घर पहुँचा तो दरवाज़ा खुला। सिकन्दर सकपका गया। पिता जी इतना नहीं गिर सकते। बहरहाल वर्दी के आगे वो सिर्फ़ हाँ जी - हाँ जी करता रहा।

पिता जी ने पहली बार महसूस किया दुनिया जीतने की शुरुआत तो घर से ही होती है। जीतने की आदत ही सिकन्दर बनाती है और कई बार माँ-बाप ख़ुद हार के बच्चों के मनोबल को बनाये रखते हैं। जीतने की आदत भी तो उन्हीं ने डाली थी। सिकन्दर को इतना निरीह देखने की आदत नहीं थी। दरोगा के जाने के बाद सब नॉर्मल नहीं लग रहा था।

पेंशन इतनी थी कि वृद्धाश्रम का खर्च वहन कर सकते थे। पत्नी से दबे स्वर में कुछ वार्तालाप हुआ। दोनों बिना बोले घर के बाहर आ गये।

हारता हुआ सिकन्दर उन्हें अच्छा नहीं लगा।

- वाणभट्ट


शनिवार, 23 अक्तूबर 2021

 पिलर 


आपने लोगों को बूढा होते ज़रूर देखा होगा लेकिन मैंने देखा है, एक पूरे के पूरे मोहल्ले को बूढा होते. सन चौहत्तर की ही तो बात है, कोई सदी नहीं गुजरी है, जब पापा ने इलाहाबाद विकास प्राधिकरण से 99 वर्षों की लीज़ पर जमीन खरीदी थी. विकास के नाम पर सड़क जैसे कुछ रस्ते से बना दिये गये थे. बिजली के पोल के गड्ढे हमें उतनी ख़ुशी दे कर जाते थे, जितनी आज 24x7 आती हुयी लाईट. सामने एक पार्क हुआ करता था, जिसमें पार्क जैसा कुछ नहीं था. फ्री होल्ड जमीन वाले निकटवर्ती लोग उसकी मिट्टी का उपयोग गारे के रूप में कर लेते थे. नतीज़ा गहरे-गहरे गड्डों का साम्राज्य हुआ करता था. जहाँ दिन में शहर भर के चरवाहे अपनी भैंस हाँक के लाते थे. हिन्दू बाहुल्य अल्लापुर इलाके का एक ही एन्ट्री पॉइंट था. जहाँ भैंसों और ऑफिस जाने वालों का टाइम मैच करता था - सवा नौ से साढ़े नौ. बस दिशायें अलग हुआ करतीं थीं. समय के पाबंद लोग नौ बजे के पहले ही निकल लेना उचित समझते थे. ऐसा ही सीन शाम को पाँच बजे के आस-पास भी होता था. जब सबको घर पहुँचने की जल्दी होती थी, तो कीचड़ से आच्छादित भैसों के लिये भी गोधूली की बेला होती थी. अल्लहड़ मस्ती क्या होती है, ये हम लोगों को बचपन में ही पार्क में भरे बरसाती पानी के गड्ढों में भैंसों की अटखेलियों से भली भाँती ज्ञात हो चुका था. एक हुनर में और हम लोग माहिर हो गये थे - कीचड़ से सनी भैंस की दुम से कितनी दूरी से बच के चलना है कि मम्मी से सनलाइट की बट्टी हमारे स्कूल यूनीफॉर्म्स को साफ़ करने में व्यर्थ न हो जाये. उन्हीं गड्ढों की वजह से हम दादुर-मोर-पपीहे की आवाज़ का अन्तर बन्द आँखों से बता सकते थे. उस ज़माने में दसवीं कक्षा में भाई साहब को बायोलॉजी में मेढक का डिसेक्शन करना होता था. पहली बारिश के मोह में जो राना टिग्रिना ख़ुशी-ख़ुशी टरटरा रहा होता, वही हमारा टारगेट बन जाता. जीव प्रेमी दादी और माता जी के चक्कर में भरी दुपहरी में छत पर मेंढक का ऑपरेशन वैसे ही होता जैसे आजकल ओ.टी. में इंसानों का होता है. बस फ़र्क इतना था कि हम पर उसे सिल के दोबारा खड़े करने की ज़िम्मेदारी नहीं होती थी.

पिता जी से जब कोई पूछता कि आपने लीज़ की जमीन क्यों ली, तो उनका टका सा जवाब होता - 99 साल में हम और हमारे बच्चों का काम तो हो जायेगा. उनके बच्चों के बच्चों की चिन्ता हम क्यों करें. जब हम जौनपुर से निकलने के बाद वापस नहीं जा पाये तो क्या बच्चे इलाहाबाद से निकलने के बाद वापस आ पायेंगे. उनकी दूरदर्शिता आम व्यक्ति को समझ न आती. एक नये मोहल्ले को पूरी तरह विकसित होने में 20 साल तो लग ही जाते हैं. तब तक बच्चे अपनी उड़ान भरने के लिये तैयार हो जाते हैं. सबने एक साथ मकान बनवाये, सबके बच्चे एक साथ बड़े हुये, सब एक साथ उड़े, सब लगभग एक साथ रिटायर हुये. हर घर में बचे तो बस मियाँ-बीवी. जो सिर्फ़ अपने बच्चों की उड़ान और उनके सपनों को ही जीने में लगे थे. आख़िर उनका यही तो इन्वेस्टमेंट था. बच्चे पढें-लिखें-बढें. बच्चों के सपने उनकी जमा-पूँजी थे. 

वो जमाना और था. तब सिविल इंजीनियरिंग इतनी विकसित नहीं थी. नींव में इंटों की चुनाई होती थी. मिट्टी के ढोले पर सरिया और ब्रिक्स की सहायता से छत ढाली जाती थी. सीमेंट कोटे से मिलती थी. ये बात अलग है कि तब सस्ते का ज़माना था लेकिन लोन की सुविधा कम होने के कारण लोग फुटकर में मकान बनवाते थे. चार कमरे का मकान एक-एक कमरे करके बनता था. कमोबेश मोहल्ले के हर व्यक्ति का यही हाल था. लोग दिखावे के लिये नहीं जरूरत के हिसाब से मकान में पैसा लगाते थे. पोर्च में लागत ज़्यादा आती थी इसलिये हम लोगों को ये भी आसानी से पता चल जाता था कि किसकी माली हालत कैसी है. लेकिन पूरा मोहल्ला एडीए के मानकों के अनुसार ही निर्माण करता था. सामने दस फिट और बगल में पाँच फिट छोड़ना अनिवार्य था. पीछे आँगन भी इस प्रकार आते थे कि चार आँगन आपस में मिल जाते ताकि सबको उनके हिस्से की हवा-पानी-धूप मिल सके. पिता जी ने दूरदर्शिता दिखाते हुये गेट पाँच फिट का बनवाया कि घर में कभी स्कूटर आये तो गेट बदलवाना न पड़े. शायद उस ज़माने में पैंतालिस-पचास हज़ार में घर बन गया था. लेकिन लोन उतारने के लिये घर में लौकी-सेम-करेला-तरोई-साग आदि आँगन में उगा लिया जाता था ताकि सब्जी का खर्च कम हो सके. पिता जी जो दो टाइम एक सब्जी नहीं खाते थे, महीनों लौकी और सेम पर काट दिया करते थे. लालटेन का शीशा कैसे साफ़ करना है और पढने के लिये केरोसिन लैम्प ज़्यादा उचित होता है. मिट्टी का तेल राशन कार्ड पर लाइन लगा के मिलता था. जब बिजली के पोल के लिये गड्ढे ख़ुद रहे थे, तो हम बच्चे खेल छोड़ कर वहीं खड़े रहते थे इस बात की तस्कीद करते कि कब तक ये काम हो जायेगा. उन्हीं गड्ढों में आइस-पाइस (बाद में पता चला उसे आई-स्पाई कहा जाता है) और चोर-सिपाही खेला जाता. ये बातें हमारे बच्चों को शायद ही पता चले.

सन 2003 में जब आवास विकास में सेमी-फिनिश्ड एमआईजी लिया तो वही स्थिति थी. एरिया डेवेलप हो रहा था. सड़क पर एक स्कूटर निकलती थी तो एक किलो धूल घर के अन्दर आ जाती थी. बिजली-पानी-सीवर सब था शायद पच्चीस सालों में कोलोनी को विकसित करके देने का रिवाज़ बन गया हो. पिता जी ने प्लाट ख़रीदा था और हमने अधबना मकान. किसी ने राय दी मकान जिंदगी में एक बार बनता है, किसी आर्किटेक्ट की मदद ले लीजिये. ये सब कुछ ऐसे तजुर्बे हैं जिन्हें करना जरूरी है, सो मैने भी एक आर्किटेक्ट महोदय से संपर्क किया. उन्होंने आते ही पिलर, सरिया और टाई बीम की बात शुरू कर दी. आजकल आरसीसी के बिना बिल्डिंग नहीं बनती. मकान लोहा-लाट होना चाहिये. उन्होंने स्ट्रक्चरल डिज़ाइन करवाने की सलाह दी. पूरा मकान पिलर और बीम पर बनेगा तो सैकड़ों साल तक चलता रहेगा. दादा कमाये पोता - बरते वाले अंदाज़ में. मैंने पूछा कि भाई बिल कौन देगा. मेरे खर्चे पर तो तुम ताजमहल बना दोगे. मेरे पास 6 लाख रुपया है और उसी में मुझे गृह प्रवेश भी करना है. उसने बताया स्टेट गवर्नमेंट का मकान है, सब प्लास्टर - व्लास्टर निकलवाना पड़ेगा नहीं तो जब आप रहना शुरू करेंगे, ये गिरना शुरू करेगा. मुझे अंदाज़ था कि यदि मै तोड़-फोड़ में लग गया तो शायद मेरी पूँजी कम पड़ जाये. मुझे पिता जी की नसीहत याद आयी. सौ साल मेरे और मेरे बच्चों के लिये काफी हैं. भाई तू नींव पर मकान बना सकता है, मुझे सरिया नहीं पिलानी. उसने कहा मेरा काम तो राय देना है, मानना न मानना आपके हाथ में है. वैसे आजकल कोई भी बिना पिलर और बीम के मकान नहीं बनवाता. ये बात मेरी समझ से परे है कि मकानों के निर्माण की कीमत सिर्फ़ इसलिये बढ़ जाये कि तकनीक उन्नत हो गयी है. आज आवश्यकता है कम लागत के मकानों की ताकि अधिक से अधिक लोगों को छत मिल सके. बहरहाल उसके सजेशन्स को नज़रंदाज़ करते हुये मै नियत पूँजी में अपने घर में प्रवेश कर चुका था. इंजीनियरिंग ड्राइंग मेरा पंसदीदा विषय था इसलिये मैंने अपने वास्तुकार महोदय के साथ एलिवेशन पर काम किया. मुझे भान था कि झोंपड़ी को भी ढंग से रंग और लीप-पोत दिया जाये तो वो सुन्दर लगने लगती है. पूरे मोहल्ले ने मकान को तोडा और फिर बनवाया. जब पैसा होता है तो फड़फड़ाता भी है. बीम और पिलर पर खड़े उनके मकान निश्चय ही मेरे मकान से कहीं ज़्यादा मजबूत होंगे. मजबूती के हिसाब से उन्होंने तीन-चार मंजिलें भी खींच डालीं. किराये की आय के उद्देश्य से. लेकिन एमआईजी मकानों में इतनी जगह कहाँ होती कि तीन कार और तीन स्कूटर खड़ी कर सकें. 

कुछ दिन पहले इलाहाबाद जाना हुआ. कोरोना के कारण लगभग दो वर्षों के बाद. पूरा मोहल्ला बूढा सा लगा. बहुत से मकान बिक चुके हैं. बहुत से मकान की स्थितियाँ ऐसी हैं मानो इश्तहार लगा है - ये मकान बिकाऊ है. जो मकान बिक चुके हैं, उनका नया मालिक पहले पुराने मकान को धराशायी करता है फिर पिलर और बीम पर लोहा-लाट मकान बनाने में जुट जाता है. इस उम्मीद में की शायद सात पुश्तें उस मकान का लुफ़्त उठायेंगी. तकनीक नयी आ गयी है तो जेब की परवाह किसे है. मकान मजबूत होना चाहिये अम्बुजा सीमेंट की तरह. पापा के मकान की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी. उस मकान और सामने के पार्क से कितनी ही यादें जुडी हुयी हैं. अब सामने का पार्क विकसित हो गया है. संघ की शाखा आज भी बदस्तूर ज़ारी है. जोगर्स ट्रैक बन गया है. ओपन जिम और झूले लग गये हैं. लेकिन दिन भर खेलने वाले वो जुनूनी बच्चे अब नहीं दिखते जो अपने हाथों से पिच और बैडमिन्टन कोर्ट बना डालते थे.  

जो भी मिला, यही पूछता - बेचने आये हो. तब महसूस हुआ माँ-बाप की तरह मकान भी बूढ़े हो जाते हैं. वो भी बच्चों के आने की बाट जोहते हैं. बिना पिलर का पापा का मकान अभी भी पूरी मजबूती से खड़ा है. पास ही एक मकान को गिरा कर एक मजबूत ईमारत का निर्माण प्रगति पर था. मित्र से एक ठेकेदार का इंतजाम करने को कहा. उसे घर की मरम्मत और रंगाई का काम करने को बोल कर मै यार-दोस्तों से मिलने निकल गया. किसी ने सही कहा है - इलाहाबाद छूटता नहीं है और छूट भी जाये तो छोड़ता नहीं है.

- वाणभट्ट 

शनिवार, 31 जुलाई 2021

 फटा जूता

इस चित्र को देख कर कतिपय ये लगता है कि कलम का धुरन्धर पुरोधा अपने जीवन में कितना सीधा और सरल रहा होगा. प्रेमचन्द जी की इस दुर्लभ फोटो पर परसाई जी का एक लेख भी है 'प्रेमचन्द के फटे जूते'. जिसमें उन्होंने मुंशी जी की सादगी का भव्यता से वर्णन किया है. वो हर घन्टे सेल्फी खींचने का ज़माना तो था नहीं. एक्स-रे की तरह फोटो प्लेट्स लगा करती थीं. कैमरा ऐसा कि जिसमें फ़ोटोग्राफ़र का पूरा धड़ घुस जाता था. कैमरे से चिड़िया निकलती थी और गलती से आपने चिड़िया नहीं देखी तो तय था कि फ़ोटोग्राफ़र आपको खा जाने वाली निगाहों से घूरेगा. उसकी एक प्लेट जो ख़राब हो गयी. फ़ोटोग्राफ़र के यहाँ टाई-कोट-कंघी-पाउडर सब उपलब्ध रहता था. स्टूडियो में वातानुकूलन की व्यवस्था नहीं हुआ करती थी. यकीनन उस दौर में फ़ोटो खिंचाना एक बड़ा इवेन्ट हुआ करता था. आज भी लोग कैमरे के आगे अपना सबसे अच्छा स्वरुप दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं. जिसके जबड़ों में मुस्कुराने से मोच आ जाती हो, वो भी फेसबुक पर अपनी मनमोहिनी मुस्कान बिखेरने को आतुर दिखायी देता है. प्रेमचन्द जी की ये फ़ोटो निश्चित रूप से स्टूडियो की तो नहीं होगी. वर्ना बैकग्राउंड में ताजमहल बना होता. कोई फ़ोटोग्राफ़र मित्र जो इनकी लेखनी का फैन रहा  होगा, उसने इनसे बहुत मिन्नतें करके भाभी जी के साथ पहले और शायद आख़िरी इस चित्र के लिये राजी किया होगा. जैसे सब लोग सबसे अच्छी पोशाक विशेष अवसरों के लिये बचा के रखते हैं, उम्मीद है मुंशी जी ने भी अपने सबसे अच्छे कपड़ों को धारण किया हो. ये उनके सबसे पसन्दीदा जूते रहे होंगे, जो कभी नये होंगे लेकिन बाबू जी ने उन्हें पहन - पहन के घिस मारा होगा. उन्हें शायद ये आभास नहीं रहा होगा कि फोटो में लोगों का ध्यान उनके चेहरे से ज़्यादा जूते पर जायेगा. उन्हें उम्मीद रही होगी कि फ़ोटोग्राफ़र ने जिस तरह फोटोशॉप करके ब्लैक एन्ड वाईट फोटो को कुछ कलर कर दिया है, उनके जूतों पर भी कुछ मुलम्मा चढ़ा देगा. या उन्हें लगा होगा की फोटो तो सिर्फ़ ऊपर की ही ली जायेगी. लेकिन यदि ऐसा अंदेशा होता तो वो जूता पहनते ही क्यों. अतः ये निष्कर्ष निकालना ज़्यादा उचित है कि उनके पास इससे अच्छे जूते नहीं थे, जो कि किसी भी कवि या लेखक की लेखन से अर्जित आय का द्योतक है. बहरहाल परसाई जी ने इस फोटो के बारे में लिख कर अपनी रचना को अमरत्व प्रदान कर दिया. जूतों की कमी उस ख्यातिलब्ध लेखक को अपनी निश्छल मुस्कराहट बिखेरने से नहीं रोक पायी. 

चीफ़ साहब ऑफिस के लिये तैयार हो रहे थे. बहुत सोचते-समझते हुये उन्होंने अपनी पुरानी घिसी हुयी पैंट और शर्ट निकाल ली. फ़ील्ड में तो एक दिन में ही कपड़ों का कबाड़ा निकल जाता है. फिर बारी थी जूतों की. कभी-कभी उबड़-खाबड़ जगहों पर पूरा दिन टहलना पड़ जाता था. सो उन्होंने फटने की कगार तक पहुँच चुके जूतों को इस उम्मीद में उठा लिया कि ये फटे तो फिर नया जूता पहनना शुरू किया जाये. आज उन्हें साईट पर भी जाना था, इसलिये जितना सम्भव था उतनी सिम्पल वेशभूषा में रहना ही श्रेयस्कर. ऐसा नहीं था कि उनके वार्डरोब में नये कपड़ों-जूतों की कमी हो. लेकिन आदत से मजबूर उन्हें लगता था कि ऑफिस के लिये नये कपडे ख़राब करने का कोई मतलब नहीं है. पर्सनालिटी से सम्बंधित एक जर्नल के में छपे शोधपत्र के अनुसार जूतों का पहले इम्प्रेशन में अहम् रोल होता है. पता नहीं ऑथर्स क्या कहना चाहते हैं कि इन्सान चेहरे से पहले जूता देखना पसन्द करता है. शोधपत्र कोई वेद-पुराण तो हैं नहीं कि उनके औचित्य पर कोई प्रश्न कर सके. आज के विद्वान जो अंग्रेजी में बोल-लिख दें, वही ज्ञान है. ऐसा नहीं मानने पर आपका अज्ञान परिलक्षित होता है.

चीफ़ साहब उस ज़माने के इंजीनियर थे जब कम्प्यूटर साइंस और इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी जैसी कोई ब्रांच नहीं होती थी. जब टॉप रैन्कर्स द्वारा सिविल ख़त्म हो जाती थी, तब इलेक्ट्रिकल और मेकैनिकल का खाता खुलता था. इंजीनियरिंग में सेलेक्शन के साथ ही रोजगार की गारेंटी हो जाती थी और सिविल इंजीनियरिंग के साथ सात पुश्तों के भरण-पोषण की आस बंध जाती थी. 'नमक का दरोगा' में वंशीधर के पिता के माध्यम से मुंशी जी ने उपरी आय को बहता स्रोत बताने में उस समय गुरेज नहीं किया तो अधिकांश छात्रों के सिविल प्रेम को सिर्फ देश निर्माण से जोड़ कर देखना कहाँ तक उचित होगा, ये बात मै अपने प्रबुद्ध पाठकों पर छोड़ता हूँ. गजटेड क्लास वन से नौकरी शुरू करके चीफ़ के रुतबे तक पहुँचना कोई हँसी-खेल तो था नहीं. सिस्टम में सिस्टम के हिसाब से फिट होना पड़ता है तब जा कर आउटस्टैंडिंग माना जाता है. कुछ लोग तो वार्षिक मूल्याङ्कन में उत्कृष्ट ग्रेड के लिये बॉस के चेम्बर के बाहर ही खड़े रहते हैं. कम्पटीशन ये रहता है कि यदि बॉस ने घंटी मारी तो चपरासी से पहले कौन पहुँचता है. अंग्रेजों के द्वारा इसे ही आउटस्टैंडिंग की संज्ञा दी गयी होगी - द पर्सन हू इज़ स्टैंडिंग आउट (ऑफ़ द रूम). इसके लिये तब तक सुर मिलाना पड़ता था जब तक मेरा और तुम्हारा सुर हमारा न बन जाये.         

प्रेमचन्द के लिये मज़बूरी थी कि उनके पास जो कपड़े थे, उन्हीं में वो सहज महसूस करते थे. फ़ैमिली फ़ोटो उन्हीं के हाथ आती जो उनको भली-भाँती जानते होंगे. अब घर की और उनकी माली हालात अपनों से कहाँ छिपी होती. पूर्णमासी के चाँद पर निर्भर न करने वाले चीफ़ साहब के केस में ऐसा न था. उन्हें दिखाना था कि इतने वरिष्ठ पद पर पहुँचने के बाद भी वो जमीन से जुड़े सादगी पसन्द इंसान हैं. उनके पास नियमित आय का बहता झरना तो था लेकिन उन्हें ऐसा प्रयास करना पड़ता था कि इष्ट-मित्रों को उनकी माली हालात पर शक़ बना रहे. इसीलिये उन्होंने तनख्वाह बढ़ने के बाद भी पुरानी मारुती 800 का पिंड नहीं छोड़ा था. सरकारी काम के लिये सरकार प्रदत्त वाहन मिला ही हुआ था. धन-दौलत अलमारियों में भरी रहे तो कॉन्फिडेंस बना रहता है. हर शहर में एक-दो मकान या प्लाट इसलिये जरूरी होता है कि हारी-बिमारी में काम आयेगा. इसलिये उनका फटीचर अन्दाज़ वैसे ही था जैसे शायरों ने सादगी को क़यामत की अदा बता रखा है. घिसे कपड़े और फटे जूते उनका मेकअप था, जिससे लोग असलियत को न भाँप पायें और यदि वो कहें कि उन सा ईमानदार व्यक्ति न धरा पर हुआ न होगा, तो लोगों को संशय बना रहे. 

मौका-ए-वारदात अर्थात साइट पर ठेकेदार अपनी एसयूवी लेकर पहले से ही मौज़ूद हो गया था. पता नहीं उसे कैसे पहले से ही पता चल जाता है कि साहब की गाड़ी आज किस दिशा में जायेगी. लिंटर की शटरिंग को खोला गया तो हॉल की छत बीच में विनम्रता से कुछ झुक सी गयी. चीफ़ साहब को समझते देर नहीं लगी की स्ट्रक्चरल डिज़ाइन में कुछ ज़्यादा ही छेड़-छाड़ हो गयी है. थोड़ी बहुत गुंजाईश तो हमेशा रहती है, लेकिन इतनी बड़ी गलती उनको बर्दाश्त नहीं थी. वो ठेकेदार पर बरस पड़े. उनके अन्दर का नौकरी करने वाला कर्मठ और ईमानदार अधिकारी जाग गया था. उन्होंने खरी-खरी सुना डाली. लेकिन आवेश में वो कुछ ऐसा बोल गये जो ठेकेदार को बुरा लग गया. वो भी तैश में आ गया - आप तब से बोले जा रहे हो मै सुन रहा हूँ. मेरे सामने ज़्यादा ईमानदारी का राग मत अलापो. मेरा सारा पैसा वाईट है जो डिपार्टमेंट ने मेरे एकाउन्ट में डाला है. मै एसयूवी भी लूँगा और ठसक से मँहगे कपड़े भी पहनूँगा. तुम दिखाते रहो अपनी दरिद्रता फटे जूतों में. 

हर विभाग में कुछ आउटस्टैंडिंग लोग होते हैं जो स्थिति की नज़ाकत देखते हुये नरम-गरम हो लिया करते हैं. कुछ लोग ठेकेदार पर पिल पड़े. कुछ ठन्डे के इंतजाम में लग गये. हजारों सालों की ग़ुलामी करने के बाद भी जिस देश में समझदार लोग अभी भी बहुतायत में हों, वहाँ मामला रफ़ा-दफ़ा होते देर नहीं लगती. तय हुआ कि बीच में एक बीम दे दो और फाल्स रुफिंग से तो सब छिप ही जाना है. 

-वाणभट्ट 

रविवार, 25 जुलाई 2021

 जब मै जीता हूँ तो कहते हैं कि मरता ही नहीं, जब मै मरता हूँ तो कहते हैं कि जीना होगा 


प्रबुद्ध पाठकों, आप को लग रहा होगा कि किसी लेख का शीर्षक इतना बड़ा हो सकता है क्या. तो वाणभट्ट का कहना है कि - क्यों नहीं. जब एक से एक वाहियात विज्ञापन पेश हो सकते हैं, तो ऐसा वाहियात शीर्षक क्यों नहीं. आज रविवार का 'हिन्दुस्तान' सुबह हाथ में आया ही था कि पूरे फ्रन्ट पेज पर छपा विज्ञापन आँखों के सामने छा गया- 

आरक्षण नहीं तो गठबंधन नहीं

गौर करने की बात ये है कि 'टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' जो साथ ही आया था, उसमें ऐसा कोई इश्तेहार नहीं था. चुनाव की आहटें सुनाई देने लगीं हैं. जो लोग अब तक सत्ता के साथ बंधे हुये थे, उनके लिये भी अपनी रोटी सेंकने मुफ़ीद समय है. हल्ला मचाते रहो नहीं तो अपना ही वोट बैन्क सरक जायेगा. क्योंकि सारा का सारा चुनावी गणित जात-पात-सम्प्रदाय पर केन्द्रित है. जातिवादी नेताओं की विशेषता है कि उन्हें कम से कम अपनी बिरादरी के वोटों का ध्रुवीकरण करके रखना है. जब समाज संगठित होगा तभी बड़ी राजनैतिक पार्टियाँ इन नेताओं को कुछ तवज्जोह देंगी. तो ये भैया लोग अपने वर्ग में ये सन्देश देने में लगे रहते हैं कि आपकी आवाज उठाने वाला सिर्फ़ मै ही हूँ. कहीं इधर-उधर दिमाग लगाया तो जैसे आज तक पिछड़े बने रहे, वैसे ही बने रहोगे. अमूमन व्यक्ति को अपने लिये ज़्यादा कुछ नहीं चाहिये होता. उसकी तो जैसे-तैसे कट गयी. लेकिन अपनी संतानों के लिये उसे संघर्ष करने में कोई गुरेज भला क्यों हो सकता है. अपने बेटे और बेटों के बेटे लाट-गवर्नर बन के घूमें इस स्वप्न को देखने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन इक्कीसवीं सदी में इस सपने की पूर्ति के लिये बीसवीं सदी का सस्ता-सुन्दर-टिकाऊ और टाइम टेस्टेड तरीका कहाँ तक उचित है, ये सोचनीय है और शौचनीय भी. 

हिन्दुस्तान के महापुरुषों ने सत्ता में बने रहने के लिये जातिगत व्यवस्था को हथकण्डे के रूप में अपनाया. भुनाया कहना, शायद ज़्यादा उपयुक्त हो. ये ऐसा चेक था और है जिसके बाउंस होने की सम्भावना न के बराबर है. प्रत्याशियों के चयन में प्रत्येक क्षेत्र में जाति-सम्प्रदाय की बहुलता को विशेष तरजीह दी जाती है. और स्वतन्त्र भारत की परतन्त्र मानसिकता वाली जनसंख्या ने ऐसे प्रत्याशियों को कदाचित ही अस्वीकार किया हो. ऐसा आज भी हो रहा है. सत्ताधारी पार्टियाँ ये दावा करती हैं कि उन्होंने देश-प्रदेश में ज्ञान की गंगा बहाने के लिये अनेकानेक विद्यालय-विश्वविद्यालय खोल डाले. शिक्षा का स्तर कितना बढ़ा या घटा ये कवेश्च्नेबल है. प्राइवेट कम्पनीज़ में अनाप-शनाप तनख्वाह के बावज़ूद सरकारी और स्थायी नौकरियों के प्रति युवाओं का आकर्षण आज भी बना हुआ है. प्राइवेट की देखा-देखी सरकार को भी वेतनमान में निरन्तर इज़ाफा करते रहना पड़ता है.

हिन्दू होने के कारण जातिगत आरक्षण का लाभ जिन हिन्दुओं को मिल रहा है, वही लोग उस हिन्दू धर्म को सुबह-शाम, सोते-जागते बल भर के कोसते रहते हैं. यदि हिन्दू धर्म के मूल में जायें तो यहाँ कर्म की प्रधानता रही है. अगला जन्म इस जन्म के कर्मों का अर्जन है. इसलिये ऊपर वाले ने जिस जगह जहाँ प्लेस किया है, उसके अनुसार कर्म कीजिये, ऊपर वाला हिसाब रखेगा और अगले जन्म में कर्मानुसार प्लेस कर देगा. बहुत ही सीधी, सरल और सच्ची संकल्पना है. मुझे तो नहीं याद की मैंने ईश्वर से इसी धर्म-कुल-जाति में जन्म लेने की अभिलाषा व्यक्त की हो. जिसको जहाँ पैदा होना था, वहीं पैदा हुआ. इसमें किसी और का दोष नहीं है. जन्म में किसी का किसी प्रकार से कोई दोष नहीं हो सकता है. जाति-सम्प्रदाय की बात क्या करनी, अपना लिंग तक कोई चयन नहीं कर सकता. इंसानी फ़ितरत है अन्तर क्रियेट करने की. जाति-सम्प्रदाय न होते तो भी स्त्री-पुरुष का विभेद कर देता. और यहाँ भी अन्याय की गाथाएं लिख मारता. आत्मा में इस तरह का कोई विभाजन नहीं है. पैदा होने से पहले आत्मा की कोई जाति या सम्प्रदाय नहीं होता. हिन्दू को वैसे भी धर्म से ज़्यादा जीवन पद्यति मानना अधिक उचित है. एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में जन्मे सभी लोग हिन्दुस्तानी या हिन्दू हो सकते हैं. इसी कारण सम्प्रदाय बदलने के बाद बावज़ूद पूजा पद्यति भले बदल गयी हो लेकिन जातियाँ नहीं बदल पायीं. आत्मा के हाथ में जाति या सम्प्रदाय चुनने का कोई प्रावधान हो ऐसा किसी वेद वेत्ता या धर्म के ज्ञाता ने कदापि न कहा होगा. 

यदि अनादी काल से ये वर्ण व्यवस्था थी तो फिर बड़े-बड़े पीर-फ़क़ीर, जिनसे भारत माता का इतिहास भरा पड़ा है, वो भी अपनी जाति पर हुये अन्याय का  बखान अपने दोहों-चौपाइयों में कर रहे होते. साहित्य में सदैव समाज परिलक्षित होता रहा है. हिन्दू धर्म, जिसे सनातन कहना अधिक उचित है, में पण्डितों की भूमिका को बहुत ही नकारात्मक तरीक़े से दिखाया जाता है. जबकि पण्डित जी भरण-पोषण के लिये , दान-दक्षिणा पर ही निर्भर रहते थे. यानि समाज में उससे अधिक धनवान और समृद्ध लोग अवश्य रहे होंगे. राजा-महाराजा काल में हो सकता है किसी-किसी पंडित को उनके धर्म-ज्ञान से प्रभावित हो कर राज-पुरोहित की पदवी मिल जाती हो लेकिन सभी पण्डित समृद्ध रहे हों ऐसा नहीं होगा. हाँ ऐसा ज़रूर हुआ होगा कि जब सरकारी नौकरियों का प्रावधान किया गया हो तो उस समय के पढ़े-लिखे लोगों को प्राथमिकता मिल गयी हो. हजारों सालों के समृद्ध भारत के इतिहास में जाति-व्यवस्था की चर्चा कम ही देखने-सुनने-पढ़ने को मिलती है. जबकि समस्त विश्व का इतिहास सक्षम लोगों द्वारा अक्षम लोगों पर अन्याय से भरा हुआ है. सक्षम लोग पद-धन-बल-बुद्धि का उपयोग इस धरा का भोग करने में लगाते रहे हैं. आज भी लगा रहे हैं. लोग कानून और न्याय की दुहाई देते रहते हैं और ताकतवर लोगों के हाथ से अन्याय हो जाने को लोग सहजता से स्वीकार कर लेते हैं. जान है तभी तो जहान है. 'वीर भोग्या वसुन्धरा' के द्वारा कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि दक्षता, निपुणता और शक्ति के माध्यम से समृद्ध लोग ही धरती का भोग करते हैं. ये बात आज भी सब ओर दिखायी देती है. जिनके पास भी कोई दक्षता या निपुणता है, उनके गुण ग्राहकों की संख्या कभी कम नहीं रहती. दक्षता बिना पुरुषार्थ के, न द्वापर युग में संभव थी, न आज. एक ही परिवार में पैदा हुये दो भाइयों में एक अधिक समृद्ध सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिये है कि उसने दूसरे से ज़्यादा मिड-नाईट ऑयल जलाया है. माता-पिता के लिये दोनों बच्चे बराबर हैं, शिक्षा-दीक्षा भी बराबर दी है, लेकिन अन्तर सिर्फ़ पुरुषार्थ का है. 

मेरा बस चलता तो मै किसी धन्नासेठ के घर पैदा होता लेकिन कर्म फल के अनुसार जन्म मुझे माध्यम वर्ग के एक परिवार में मिला. लेकिन परिवार ऐसा जिसकी नींव सत्य और इमानदारी पर टिकी थी. मुझे नहीं ज्ञात कि मेरे माता-पिता ने किसी बात के लिये झूठ बोलने के लिये प्रेरित किया हो. इसलिये सच बोलने में मुझे कभी किसी प्रकार की दिक्क़त नहीं हुयी. बदलते परिवेश में कभी-कभी सच बोलने से अच्छा चुप रह जाना लगता है लेकिन उसका असर भी स्वास्थ्य पर रिफ्लेक्ट होता है. एक बात तो बताना मै भूल ही गया, सन पैंसठ में मेरा जन्म इलाहाबाद, जो अब प्रयागराज है, में हुआ था, जिसे हर मामले में एक शहर की संज्ञा दी जा सकती है. बाबा की असमय मृत्यु के कारण पिता जी को अपनी पढ़ाई की फ़ीस ट्यूशन करके निकालनी पड़ती थी. नौकरी लगने के बाद उन्होंने अपने अन्य भाइयों के साथ मेरी माता जी को भी पढने-पढ़ाने और अपने पैरों पर खड़े होने में सहयोग किया. आज  जब कोई मुझसे पूछता है कि कौन से वर्मा हो तो लगता है इसकी शिक्षा व्यर्थ चली गयी.

शहर में रहने के कारण मुझे नहीं ध्यान कि कभी मेरे घर या स्कूल में जात-पात की बात हुयी हो. राजकीय विद्यालय में एक कक्षा में सौ-सवा सौ बच्चों के 6-8 सेक्शन हुआ करते थे. वहाँ भी कभी इन बातों का ज़िक्र होता हो, ऐसा नहीं था. जब बोर्ड का फॉर्म भर रहे थे, तब मुझे पता चला कि सिख, बौद्ध और जैन, हिन्दू से अलग सम्प्रदाय हैं. ऐसा नहीं है कि हिन्दू और मुसलमान का फ़र्क हमें न मालूम रहा हो. दंगे हमेशा नखास कोना से शुरू होते थे और जब तक मिलिट्री नहीं लग जाती थी, शांत नहीं होते थे. हिन्दुओं में इतने वैरायटी के हिन्दू होते हैं, ये तो तब पता चला जब इंजीनियरिंग के एंट्रेंस में बैठने का मौका लगा. साथ में पले-बढे-खेले मित्र अचानक शोषित और पीड़ित हो गये. जिन मित्रों के बैट-बॉल के कारण उन्हें तीन बार आउट करना पड़ता था. जिनसे इन्द्रजाल कॉमिक्स माँग कर हम लोग गर्मी की छुट्टियाँ काटा करते थे. जिन्होंने हाईस्कूल और इन्टर में मेरिट में स्थान बनाया. जिस ऑफिस में मेरे पिता जी क्लर्क और उनके पिता जी गज़टेड ऑफिसर हुआ करते थे, सब वंचितों में शामिल हो गये. तब हमें शायद आरक्षण व्यवस्था का एहसास हुआ लेकिन हम लोगों की मित्रता यथावत कायम रही और कायम है आज भी. जाति हमारे बीच कभी दीवार नहीं बन सकी. शिक्षा का उद्देश्य ही मानवीय प्रवृत्तियों से मुक्ति में निहित है. इतनी सब बातों का लब्बोलाबाब ये है कि शिक्षित और शहरी होने के नाते मुझे जाति व्यवस्था का वो विद्रूप रूप नहीं देखने को मिला जिसके कारण आरक्षण को जस्टिफाई किया जाता रहा है. 

आज यदि जातिगत सामाजिक खाई स्पष्ट रूप से दिखाई देती है तो उसका दोष शिक्षा और रोजगार में आरक्षण को दिया जा सकता है. समाज कभी बराबर नहीं होता, न होगा. समृद्ध और सम्पन्न लोग हमेशा रहेंगे. कोई देश या काल वर्ग विसंगतियों से अछूता नहीं रहा है. अमीर-गरीब, सबल-निर्बल उसी तरह होते हैं जैसे सुख और दुःख. दोनों साथ रहेंगे और एक दूसरे के पूरक बन कर. विपन्न लोगों को भरण-पोषण के लिये उन पर आश्रित रहना होगा. आर्थिक-शारीरिक-सामाजिक रूप से सम्पन्न लोगों ने ही समाज के उत्थान में योगदान किया है. ये लोग सभी जाति-धर्म के थे लेकिन जाति-धर्म से दायरे में कभी नहीं बँधे. बिजनेस हो या नौकरी. टॉप पर जगह कम होती है. जो वहाँ पहुँचा है, वो हमसे अधिक पुरुषार्थी रहा है, ऐसा हमेशा होता आया है. इस जाति व्यवस्था के राजनीतिकरण के पीछे एक अदद नौकरी की इच्छा से ज़्यादा कुछ नहीं है, जो पुश्त-दर-पुश्त बरकरार रहे. विशेष बात ये है कि जो नेता इन मुद्दों को उछालते हैं, उन्हें न तो पढ़ना है न नौकरी करनी. बस बिरादरी में हनक बनी रहनी चाहिये. मुगलों और अंग्रेजों के ज़माने में आरक्षण कभी मुद्दा नहीं बन पाया, शायद तब शाही और सरकारी नौकरियों में गुणवत्ता पर जोर रहा होगा. आज़ादी के बाद का सारा इक्वेशन वोट साधने और सरकार बनाने में लग गया. हिन्दुओं का विभाजन और आरक्षण शायद इसी की पैदाइश है. मौलवी और पादरी हर घर में घुस गये, और हिन्दुओं ने जाति और वर्ण व्यवस्था के नाम पर पण्डितों के साथ-साथ धर्म को भी घर के बाहर कर दिया. इसी का नतीजा है कि हर कोई सनातन धर्म पर अपने विचार रखने को स्वतन्त्र है. इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिये कि वंचितों को बराबर का अधिकार और सम्मान मिलना चाहिये लेकिन समाज में ऐसे पुरुषार्थियों की कमी नहीं है जिन्होंने विपन्नताओं के बावज़ूद इतिहास बनाया है. एक ही समाज में इतना विद्वेष तब देखने को मिल रहा है जब आधे से अधिक जीवन व्यतीत हो चुका है. कितने ही अक्षम, सक्षम बन चुके हैं.  

आज के विज्ञापन में मेरे विचारों को झकझोर दिया. हम आगे जा रहे हैं या आज भी अपने अतीत का सलीब को ढोने के लिये प्रयत्नशील हैं. ये ऐसा मुद्दा है जिस पर डिबेट होनी चाहिये और चलती रहनी चाहिये. यहाँ सहमति और असहमति का प्रश्न नहीं है. जिस तरह सक्षम लोगों ने स्वेच्छा से गैस सब्सिडी छोड़ दी, वैसे ही लोगों को इस विषय पर भी विचार करना चाहिये ताकि उन्हीं के वर्ग के अन्य लोगों को आरक्षण का लाभ मिल सके. जिन जख्मों को वक्त भर रहा था, उसे कुरेद-कुरेद कर हरा रखना आज की राजनैतिक आवश्यकता हो सकती है, लेकिन ये देशहित में भी हो, ज़रूरी नहीं. इसीलिये मै ये कहने को विवश हूँ कि: जब मै (जातिगत व्यवस्था) जीता हूँ तो कहते हैं कि मरता ही नहीं, जब मै मरता हूँ तो कहते हैं कि जीना होगा. 

-वाणभट्ट 

रविवार, 18 जुलाई 2021

 बदला 


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. ऐसा कोई और तो कहने से रहा, क्योंकि किसी और प्राणी ने भाषा का इस कदर विकास नहीं किया कि प्यार और तिरस्कार को शब्दों में व्यक्त कर पाये. उस पर ऊपर वाले ने वॉयेस मोड्युलेशन और फेस एस्प्रेशन की एडिशनल सुविधा दे रखी है. शब्दों के चयन से उसी बात को आप खट्टे और मीठे दोनों तरह से कह सकते हैं. लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि यदि दूसरे प्राणी भी इंसान की तरह बोल पाते, तो इतना तो ज़रूर कहते कि मनुष्य एक असामाजिक प्राणी है. प्रकृति की हर व्यवस्था प्रकृति को सिंचित और पोषित कर रही है. लेकिन ऊपर वाले की सर्वोत्कृष्ट रचना, मनुष्य, सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लाभ में लगा है. चूँकि अधिकांशतः प्राणी शायद ज़्यादा दूर की नहीं सोच पाते, इसलिये उन्हें भूख और प्यास से ज़्यादा सोचने की जरूरत नहीं पडती. न उनके पास इतना दिमाग कि चेस खेलें या खामख्वाह का लोड झेलें. इसी कारण अन्य प्राणियों में उन सभी मानवोचित गुणों का सर्वथा अभाव है, जिनके कारण मानव ने अपना और अपने समाज का सत्यानाश कर रखा है. मानवोचित गुण हैं - काम-क्रोध-लोभ-मोह-इर्ष्या-द्वेष. सात्विक टाइप के लोग इन्हें अवगुण की संज्ञा दे सकते हैं. लेकिन शास्त्रों के अनुसार जिन बातों को गुण माना गया है, उन्हें विकसित करना पड़ता है, चाहे संस्कार के माध्यम से, चाहे नियम-कानून से. यदि मनुष्य का बस चले तो उसे हर बंधन से आज़ादी चाहिये. हर व्यक्ति सत्ता के प्रति इसीलिये आकर्षित होता है कि उसे दूसरों की अपेक्षा नियम तोड़ने की ज़्यादा छूट मिल जाये. सेवा के उद्देश्य से जो सत्ता में आता है, वो लीडर बन जाता है. लेकिन देश की शक्की जनता  को दाल में काला खोज निकालने की वंशानुगत बीमारी है. 

मनुष्य को सामाजिक तो तब माना जाये जब कोई संस्कार न सिखाया गया हो. न कोई नियम-कानून की पोथी हो. और वो मिल-जुल के रह रहा हो. लेकिन मानवता में ऐसे उदाहरण खोज पाना असंभव सा है. एक समाज में भी कुछ व्यक्ति समाज को अपने हिसाब से हाँकने के प्रयासों में लगे रहते हैं. यदि एक समाज किसी के नेतृत्व को स्वीकार कर भी ले, तो वो समाज दूसरे समाज पर विजय पाने को आतुर हो जाता है. तुर्रा ये है कि तमाम इंसानी खून बहाने वाली कौमें भी ख़ुद को सामाजिक बताने से गुरेज नहीं करतीं. सामाजिकता क्या होती है, ये छोटे-छोटे जीवों जैसे चीटियों-मधुमक्खियों-दीमकों में सहजता से दिख जाता है. सब एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और मिल-जुल कर काम करते हैं. लेकिन इंसान में इस फ़ितरत को खोजना पड़ता है. नैसर्गिक रूप से मनुष्य असामाजिकता से ओत-प्रोत है. इतने नियम-कानून बनाने के बाद, उनका अनुपालन कराने के लिये कितने ही सरकारी विभाग बनाने पड़े हैं. वहाँ भी हर जगह समाज का ही  प्रतिबिम्ब दिखायी देता है. सब राजा बने घूम रहे हैं, तो काम उतना ही होगा जितने में नौकरी चलती रहे. व्यक्तिगत हित और स्वार्थ जब हावी हो जाते हैं, सारा विभाग अपनी-अपनी स्वार्थ सिद्धि में लग जाता है. और लगे भी क्यों न. यदि निस्वार्थ सेवा करेगा तो यही जालिम ज़माना, उसको मिसफिट बता देगा. बच्चा है, आदर्शवादी बना फिरता है. पता नहीं दुनियादारी कब सीखेगा.

सरकार की बात तो तब की जाये जब परिवार-पास-पडोस-यार-दोस्त का हाल कुछ अलग हो. सामाजिक बनने के चक्कर में सबको लगता है कि निभा तो बस वो ही रहा है, बाक़ी तो सब उसका फ़ायदा उठा रहे हैं. दरअसल जैसे दुनिया में दो वर्ग हैं गरीब और अमीर, वैसे ही इंसानों में भी दो कैटेगरी है - दिल वाले और दिमाग वाले. दिमाग वालों को अपने दिमाग पर गुरुर है तो दिल वाले ज़िन्दगी को अपने अंदाज़ में ही जिये जा रहे हैं. अपने-अपने फ़ायदे के चक्कर में समाज की ऐसी की तैसी हुयी पड़ी है. किसी को कुछ भौतिक लाभ हो तो समझ भी आता है. लेकिन रहीम दास जी के अनुसार संसार में बहुत वेरायटी के लोग भरे पड़े हैं. सिर्फ़ दूसरों पर अपना रुतबा कायम रहे, इस कारण भी कई लोग सुपीरियोरिटी काम्प्लेक्स से पीड़ित हैं. एक जमाना था जब आय कम हुआ करती थी, तो सबको सबकी जरूरत पड़ ही जाती थी. जब से आदमी को उसकी आवाश्यकता और औकात से ज़्यादा तनख्वाह मिलने लगी है, वो बस दूसरों को देखने-दिखाने में लगा हुआ है. कारें बदल रहा है. प्रॉपर्टी बना रहा है. घोड़े तो इतने हैं नहीं कि रेस खेलें, तो शेयर में भी सट्टा लगा रहा है. सेंसेक्स का उफ़ान किसी भी तरह से जीडीपी में ग्रोथ से मिलान नहीं कर रहा है. लेकिन जुआ खेलने का मज़ा ही तब है जब मनी सरप्लस हो. मुजफ्फ़र अली की तर्ज़ पर कि 'जीत गये तो क्या कहना, हारे भी बाज़ी मात नहीं'. 

एमआईजी और एलआईजी मकानों में भी अब महाराजा गेट लगता है ताकि बोलेरो खड़ी की जा सके, तो देश की आर्थिक उन्नति का सहज पता लग जाता है. स्थिति ये है कि - मै भी रानी तू भी रानी कौन भरेगा पानी. समाज की बात वही लोग कर रहे हैं, जिन्हें समाज से कुछ निकालना है. बाक़ी अपनी पे-पैकेज और बैंक बैलेंस देख-देख के झूम रहे हैं. सामाजिकता बस पीने-पिलाने तक सीमित रह गयी है. यदि आप को ऐसे कोई शौक नहीं हैं, जिसे दुनिया व्यसन कहती है, तो आपसे ज़्यादा असामाजिक कोई नहीं है. बिना पिये-पिलाये समाज और रिश्तेदारी निभाने का सारा बोझ आजकल विदेशी कन्धों पर है. कभी-कभी तो लगता है कि यदि ये फ़ेसबुक-वाट्सएप्प-ट्विटर न होता तो शायद हमारे अन्दर जो बची-खुची सामाजिकता है, वो कब की दम तोड़ चुकी होती. एक ज़माना था, जब पडोसी के घर फोन आता था, अब सब डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डॉट कॉम की तरह दस अंकों का मोबाइल लिये घूम रहे हैं. हर व्यक्ति हर समय उपलब्ध है. कभी-कभी तो ऐसी स्थितियां बन जातीं हैं कि उठाना नहीं चाहते लेकिन उठाना पड़ता है क्योकि अगले ने आपको वाट्सएप्प पर ऑन लाइन देख रखा है. उसे ये तो पता नहीं कि आप मोबाइल लेकर किस अवस्था में कहाँ बैठे हैं. गूँजती आवाज़ सुन कर वो गेस कर ले तो बात अलग है. 

हमारी जेनरेशन वाले वो दिन नहीं भूले होंगे जब इमेल शुरू हुआ था. दिन में दस मेल इधर-उधर आते-जाते थे. क्या खाया, क्या पहना. फिर मोबाइल आया. इनकमिंग के भी पैसे थे, तो जनाब मिस्ड कॉल की भाषा बना ली गयी थी. शनै-शनै कॉल्स फ्री हो गयीं लेकिन बात करने के लिये बातें ही खत्म हो गयीं. अब रिश्तेदारों से ये पूछने का रिवाज़ नहीं बचा कि खाने में क्या बना है और कल कौन सी पिक्चर देखी. फ़ेसबुक पर कढ़ी की फोटो लगी होगी या स्टेटस पर वाचिंग बागी-3 पड़ा होगा. मुस्कुराती हुयी ऐसी फ़ोटोज़ जैसे दुनिया के रंज-ओ-ग़म से इनका सबाका नहीं पड़ा. होटल और टूरिस्ट स्पॉट के बेफिक्रे अंदाज़ अब बताने की बात नहीं, दिखाने की चीज़ें बन गये हैं. और वैसे भी किस-किस को बतायें कि हम देशाटन के लिये निकले हैं. जो उमस और गर्मी में पड़े हैं, थोडा उन्हें और सुलगा दो. यहीं पर एहसास हुआ कि सामाजिकता की आड़ में मनुष्य घनघोर असामाजिक प्राणी है. दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता साबित करने और उन्हें नीचा दिखाने की होड़ सी लगी हुयी है. 

पहले ज़माना था कि यार-दोस्त-नाते-रिश्तेदार गाहे-बगाहे मिल ही जाते थे. तो अपनी नाराज़गी-गिले-शिकवे आमने-सामने निपटाते थे. प्रेम यदि गहरा हो तो नौबत जूतम-पैजार तक आ जाती थी. एक-दूसरे की माँ-बहनों को इज्ज़त से याद कर लिया जाता था. ख़ासियत ये कि हर व्यक्ति अपनी जगह सही है और दूसरा जैसे, हाल ही में दिवंगत हुये युसूफ़ खान की फ़िल्म 'राम और श्याम' का विलेन 'प्राण' है. मौका मिला है तो खरी-खरी सुना दो. कुछ लोगों का तो मानना है कि जहाँ प्यार होगा वहीं तो तकरार होगी. प्रेम प्रदर्शन का एक स्टैण्डर्ड विधान है कि रुठिये-मनाइये. चूँकि हर जगह तो प्रेम हो नहीं सकता इसलिये कुछ गुंजाईश अगले को ठोंक-पीट कर सही करने की भी बन जाती है. जैसे-जैसे सभ्य बनने और दिखने का प्रचलन बढ़ा है, लोग मनोभावों को दिल में दफ़न करने का प्रयास करते हैं. शायद यही वजह है कि भारत में दिल के मरीज़ अन्य देशों की तुलना में अधिक पाये जाते हैं. 

अस्सी के दशक में एक फ़िल्म आयी थी 'आधारशिला'. नसीरुद्दीन शाह और अनीता कंवर अभिनीत उस फ़िल्म में बदला लेने का एक अजीब-ओ-ग़रीब तरीका फिल्माया गया था. विलेन का रोल उस समय के आकाशवाणी के हिंदी न्यूज़ रीडर देवकी नंदन पाण्डेय जी द्वारा निभाया गया था. वो आर्ट मूवीज़ का दौर था. विलेन एक इस्टेब्लिशड फ़िल्म डायरेक्टर है. नसीर उसके पास अपनी एक स्टोरी लेकर जाते हैं. नसीर फ़िल्म इन्सटीटयूट से नये-नये निकले हैं. वो नसीर को बहुत चक्कर कटवाता है. हर बार वो नसीर से पूछता है - पानी तो पियोगे. नसीर हर बार पानी पीता है. विलेन तो विलेन, वो नसीर की स्टोरी चुरा लेता है. आखिरी बार जब नसीर जाता है तो फिर वो पानी ऑफ़र करता है. कोई आम फ़िल्म होती तो हीरो विलेन को हुर देता लेकिन आर्ट फ़िल्म थी. नसीर ने देवकी साहब की आँखों में आँखें डाल कर ऐसे घूरा जैसे कच्चा चबा जायेगा. और पानी के लिये - 'नहीं' बोल कर चल देता है. उसके बाद क्या हुआ ये जानने के लिये आपको फ़िल्म देखनी चाहिये. बदला लेने का ये सभ्य तरीका लोगों को बहुत अच्छा लगा. 

लेकिन तब मिलना-जुलना हो जाया करता था. अब जमाना फेसबुक-वाट्सएप्प का है. मिलने की रही सही गुंजाईश चीनी वायरस के कारण और भी कम हो गयी. अब आमना-सामना तो होने से रहा पर अपनी असामाजिकता से आदमी बाज तो आने से रहा. वो यहाँ भी दूसरे पर सुपीरिओरिटी स्थापित करने, नाराज़गी ज़ाहिर करने और बदला लेने के तरीक़े ईज़ाद कर रहा है. सामाजिक है इसलिये फेसबुक और वाट्सएप्प पर दखल ज़रूर रखता है. इस तरह के अन्य एप्लीकेशनस भी इसी उम्मीद से डेवेलप किये जा रहे हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है. लेकिन ऐसा है नहीं. दिन में दो बार वो किसी न किसी से न लडे, तो बहुत सम्भावना है कि रेड लाईट पर ट्रैफिक पुलिस से ज़रूर लड़ जायेगा. आगे वाली गाड़ी का होंकिंग करके चलना मुश्किल कर देगा. किसी सायकिल वाले को घूरेगा. सोशल मीडिया भड़ास निकलने के लिये उचित स्थान नहीं है क्योंकि यहाँ आपको अपने शिक्षित और सभ्य बने रहने का दिखावा करते रहना पड़ता है. जमाना कितनी भी तरक्की कर ले, नाज़-नख़रे वही पुराने रहेंगे. अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने का एक नया ट्रेन्ड विकसित हुआ है. आप कहीं घूम कर आये और फ़ेसबुक पर दुनिया के सबसे सुखी इंसान के रूप में आपने फोटो चेप दी. और इंतज़ार शुरू कर दिया कि सारे इष्ट-मित्र इसे देखें, कुछ लाइक और कमेन्ट भेजें. लेकिन आदमी तो पैदायशी असामाजिक है, उसे आपकी ख़ुशी से क्या सरोकार. 

शर्मा जी करोना लॉकडाउन के बाद मनाली निकल लिये. गलती से मिस्टेक ये हो गयी कि अपने परम मित्र वर्मा जी को बताना भूल गये. आनन-फानन में बच्चों ने प्रोग्राम बना लिया. वर्मा जी कानपुर की गर्मी से त्रस्त हुये बैठे थे, जब शर्मा जी ने खनकती आवाज़ में मनाली से फोन किया. यार वर्मा, तुम वहाँ कानपुर में क्या कर रहे हो. यहाँ आ जाओ मनाली एकदम जन्नत बना हुआ है. वर्मा जी अब क्या बोलते. यही बात शर्मा ने जाने से पहले कही होती, तो वो भी साथ लग लेता. गुस्सा तो बहुत आया लेकिन सभ्यता का तकाज़ा था, कुछ कह नहीं सका. शुभ यात्रा टाइप का सन्देश वाट्सएप्प पर भेज दिया. उधर शर्मा मनाली की वादियों में खोया हुआ था या कुछ नेटवर्क का इशू. मैसेज का जवाब देना भूल गया. वर्मा का गुस्सा दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था. ये बहुत गलत बात की है शर्मा एक तो बिना बताये निकल गया और ऊपर से मेरी विशेज़ का जवाब भी नहीं दे रहा. चार दिन के बाद शर्मा ने लद्दाख़ से पास से अपनी कई बर्फ़ीली फोटोज़ फेसबुक पर चेप दीं.   

सोशल मीडिया के बीमारों का हाल क्या कहें. फ़ेसबुक और वाट्सएप्प का स्टेट्स देखे बिना ऐसे बेचैनी होने लगती है जैसे 'जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली'. कुछ मरीज़ों का हाल तो ऐसा है कि हाथ के कम्पवात को रोकने के लिये डॉक्टर दिन में तीन बार या एसओएस पर्चे पर लिख के देते हैं. बड़ी मानसिक बीमारी से बचने के लिये, ये बिना दवाई का इलाज है. ज़्यादा बिगड़े केसेज़ में, सोशल मिडिया की लत छुडाने के लिये तीन महीने का विपश्यना कोर्स भी रिकमेन्ड करना पड़ रहा है. शर्मा की ठंडी ठंडी पिक्चर्स देख कर, जुलाई की उमस भरी गर्मी में झुलस रहे वर्मा का तो रोम-रोम जल उठा. उसने हर फोटो को एन्लार्ज करके देखा. बर्फ़ की ठंडी तासीर को अपनी रूह में लेने की भरपूर कोशिश की. लेकिन सोलह डिग्री पर एसी चलाने के बाद भी पहाड़ की उन्मुक्त हवा के ख्याल ने आग में घी का काम किया. मन ही मन उसने शर्मा से बदला लेने की ठान ली. 

और वो उन फ़ोटोज़ को बिना लाइक और कमेन्ट किये अगली पोस्ट्स की ओर बढ़ गया. 

दीवानों की नगरी में कुछ यार भी बसते हैं,
रखते हैं ताल्लुक भी, आवाज़ भी कसते हैं - दिनेश ठाकुर 

- वाणभट्ट 

रविवार, 13 जून 2021

गुड मॉर्निंग

आँख अभी पूरी तरह खुली भी नहीं थी कि उसके हाथ ने टटोल कर मोबाइल उठा लिया. रात देर से सोने के कारण आखों में कडुआहट बनी हुयी थी. देर से सोने की कोई खास वजह नहीं थी. सोने से पहले बस एक मिस्टेक गलती से हो गयी थी. उसने मोबाइल उठा लिया था.

सोशल मिडिया का उसका चस्का एक लिमिट से ऊपर था. जब तक इमेल और फेसबुक का ज़माना था कम्प्यूटर और लैपटॉप खोलने का झन्झट था. जब से ये मल्टी-फ़ीचर्ड हाई एन्ड मोबाइल का प्रादुर्भाव हुआ, ये अम्प्यूटर-कम्प्यूटर खोलने का चक्कर भी ख़त्म हो गया. हालात ये हैं कि - दिल के आईने में है तस्वीर-ए-यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख ली. जब भी जरा सी भी बोरियत तारी हुयी, हाथों में अजीब सी फड़फड़ाहट होनी शुरू हो जाती है और वो ख़ुद-ब-ख़ुद उस जगह पहुँच जाते हैं, जहाँ मोबाइल रखा होता है. फेसबुक, ट्विटर, इन्स्टाग्राम, लिंक्डइन और न जाने क्या-क्या नामाकूल चीजों ने आदमी का जीना दुश्वार कर रखा है. लेकिन फुल इन्टरटेन्मेंट में कोई कमी हो, ऐसा नहीं है. कुछ लोगों के लिये तो सोशल मिडिया आबादी में बर्बादी का सबब बन के रह गया है. हर समय ऑनलाइन रहना एक बीमारी बन गयी है. व्हाट्सएप्प इन सब बिमारियों में सबसे बड़ी बीमारी बन के उभरा है. आज हर व्यक्ति समय की कमी का रोना रो रहा है. लेकिन अपने समय 24 x 7 का वो कैसे उपयोग कर रहा है, उसे मालूम तो है पर जानना और मानना नहीं चाहता. 

कुछ सिद्ध-अवतारी पुरुषों नें जिन्होंने मैटेरियलिस्टिक जगत में ख्याति अर्जित कर ली है, वो रोज यू-ट्यूब और अन्य मिडिया प्लैटफॉर्म्स से आम जनता की भलाई हेतु सोशल मिडिया पर लानत-मलानत भेजते रहते हैं. ऐसे बताते हैं कि समय का सदुपयोग करके हर व्यक्ति कैसे सफल बन सकता है, कैसे अपनी इनकम को बढ़ा सकता है, और कैसे अपने जीवन को सुख-सुविधाओं से सम्पन्न कर सकता है. इन ख्यातिलब्ध लोगों को ये भान नहीं है कि जिन्हें उनकी तरह सफल बनना है, उनके पास यू-ट्यूब देखने का समय नहीं है. दुनिया के सारे प्रवचन उनके लिये हैं जिनके पास समय है. सुख-समृद्धि की लालसा में व्यक्ति किसी से कुछ भी सीखने को आतुर रहता है. जबकि सफलता के लिये सुनना और गुनना उतना आवश्यक नहीं है जितना काम करना और करते रहना. लेकिन जब वक्ता अपने वक्तव्य के आखिरी चरण में चैनल को सब्सक्राईब करने का आग्रह करता है, तो शक़ होना लाज़मी है कि उसे अपनी बात पर कितना भरोसा है. जिन्हें भरोसा होता है उन्हें पता होता है कि बात निकलती है तो दूर तक जाती है. इनके प्रवचनों को सुन-सुन कर आम जनता को एक अपराध-बोध सा हो जाता है कि अपने समय का उपयोग इन्टरटेन्मेन्ट के लिये करना महापाप है. लिहाजा एक ऐसी पौध डेवेलप हो गयी जो सोशल मिडिया से जुडी तो रहना चाहती है लेकिन ये नहीं चाहती कि दूसरे जाने कि वो अपना अमूल्य समय सोशल मीडिया पर बर्बाद कर रहा है. वो फेसबुक पर जाता है, हर घन्टे दो घन्टे पर, ताकि लेटेस्ट अपडेट्स से वाकिफ़ रहे. लेकिन गलती से भी किसी पोस्ट को लाइक नहीं करता. वरना लोग जान जायेंगे कि वो कहाँ समय बर्बाद कर रहा है. इन्हें साइलेंट यूज़र कहा जा सकता है. ये वो प्राणी हैं जो वाट्सएप्प पर भी अपना नोटिफिकेशन ऑफ करके रखते हैं. जिससे पोस्ट देखी या नहीं देखी किसी को पता नहीं चलेगा. ये ग्रूप पर भी बस देखने का काम करते हैं. क्या मजाल कि गलती से भी कोई कमेन्ट कर दें. ये लोग वाट्सएप्प पर कितने एक्टिव हैं ये जानने के लिये बस आपको ये करना है कि सरकार की तारीफ़ में कुछ कशीदे पढ़ दीजिये या विपक्ष पर कोई कटाक्ष कर दीजिये. फिर ये भाई लोग अपना सारा आवरण उतार कर आमने-सामने आ जाते हैं. तब पता चलता है, इन स्लीपिंग सेल वालों का. 

लेकिन यकीन मानिये यदि आपके पास कोई बहुत बड़ा लक्ष्य नहीं है तो सोशल मिडिया से दिलचस्प कोई चीज़ नहीं है. लोगों ने बुक्स-मैगज़ीन्स पढना तो कब का छोड़ दिया है लेकिन ज्ञान की पिपासा कभी शांत होने वाली तो है नहीं. यहाँ सोशल मीडिया पर भाँती-भाँती का ज्ञान उमड़ा पड़ रहा है. यदि आप किताब से पढ़ेंगे तो आप को एक समय में एक विषय का ही ज्ञान मिलेगा. जबकि वाट्सएप्प पर जारी हर दो ज्ञान में भयंकर विषयांतर मिलने की सम्भावना प्रबल होती है. एक तरफ इस लोक में सफलता के सूत्र बताये जा रहे होंगे तो दूसरी ओर जन्म-जन्मान्तर का ज्ञान सहज रूप से बँट रहा होगा. हमारे पूर्वजों के अनुसार ज्ञान दो प्रकार के होते हैं  - सार वाला और थोथा वाला. सार वान ज्ञान अक्सर नीरस होता है और थोथा प्रतीत होता है. लेकिन थोथा ज्ञान, वाह वाह क्या बात है. क्या बच्चे क्या बूढ़े सबको बहुत रास आता है. टिकटॉक, मौज़, जोश इत्यादि ने लोगों को अपनी क्रियेटिविटी के नये आयाम खोजने में जिस तरह सहयोग किया है, यकीन मानिये संभवतः पूरी फ़िल्म और टेलीविज़न इंडस्ट्री इतने कलाकारों के लिये कम पड़ जाती. रही सही कसर स्टारमेकर और एस्म्यूल ने पूरी कर दी. जिन गवैयों को बच्चे बाथरूम के बाहर गाने की इजाज़त नहीं दे रहे थे. वो पूरे सोशल मीडिया की नाक में दम किये पड़े हैं. 

बाक़ी सोशल मीडियाओं की तुलना में वाट्सएप्प ज़्यादा श्रेष्ठ है. बाक़ी सोशल मिडिया में आपको कुछ तो करना ही पड़ेगा. चाहे फोटो अपलोड करनी हो या कमेन्ट, थोड़ी मेहनत तो करनी ही पड़ेगी. लेकिन वाट्सएप्प आपको कुछ करने की ज़्यादा ज़रूरत नहीं है. मैसेज इधर से आना है, उधर फॉरवर्ड हो जाना है. बुरा हो दिन दूनी रात चौगुनी अफवाह फैलाने वालों का कि वाट्सएप्प को प्रतिबन्ध लगाना पड़ा कि एक बार में एक मैसेज सिर्फ़ और सिर्फ़ पाँच लोगों को भेजा जा सकेगा. तो भाई लोगों ने उसकी भी काट खोज लिया. व्हाट्सएप्प ग्रूप बना कर. अब अफवाह फैलाना थोडा आसन हो गया. लेकिन ग्रूप के सदस्यों पर ये निर्भर करता है कि वो अवांछित चैट को झेलें या ग्रूप से प्रस्थान ले लें. इस ग्रूप ने बहुत दुश्मनियों को अंजाम दिया. विशेष तौर पर राजनितिक पोस्ट के कारण. कोरोना के कारण आमने-सामने बैठ कर मुँह तोड़ जवाब देने का मौका नहीं मिल पा रहा है. इस लिये लोग-बाग़ मोबाइल तोड़ विमर्श करने को बाध्य हैं. कुछ मित्र मोदी-योगी के धुर विरोधी हैं. ग्रूप पर किसी ने सरकार के समर्थन में पोस्ट प्रेषित कर दी. बस क्या था, पूरे के पूरे ग्रूप का, जो साथ जीने-मरने की कस्में खाता था, दो-फाड़ हो गया. पहले बहस हिंदी में चली. फिर धीरे-धीरे अंग्रेजी में परिवर्तित हो गयी. सभी को डर था कि कहीं शुद्ध हिंदी का प्रयोग न होने लगे. बहरहाल इन बहस-मुसाहिबों से कुछ निकलने वाला नहीं. सब लोग अपने प्रारब्ध से जड़ रूप से जुड़े हुये हैं. किसी पक्ष ने अपना पाला बदला हो, ऐसा कभी नहीं हुआ. हाँ, दुश्मनियाँ अवश्य परवान चढ़ गयी. कोई ग्रूप छोड़ के भाग गया. किसी को मान-मनव्वल करके वापस इसलिये जोड़ा गया कि दमदार विपक्ष नहीं होगा तो ग्रूप रूपी पार्लियामेन्ट की डिबेट में आनन्द नहीं आयेगा. ये बात अलग है कि उन्हें सुलगाने के लिये लल्लू-पप्पू जैसे कुछ शब्द ही काफी थे. गुलदस्ते में यदि भिन्न-भिन्न फूल न हों तो गुलदस्ते का मज़ा ही क्या. 

जिन लोगों को अपने समय की कीमत का ज़रा भी भान था वो ग्रूप में बिल्कुल भी शिरकत न करते. जब पर्सनली बात कीजिये तो बताते भाई मै तो ग्रूप को बिना देखे ही डिलीट कर देता हूँ. दिन भर लोग कुछ न कुछ भेजते रहते हैं. बहुत खाली लोग हैं. पलट के ये पूछना की आप अपने खाली समय का क्या करते हैं, धृष्टता हो जाती इसलिये कभी पूछने की हिम्मत नहीं कर पाया. बहरहाल ग्रूप छोड़ने और जोड़ने के चक्कर में वर्मा जी को पता चला वाट्सएप्प में एक और फ़ीचर ब्रॉडकास्ट लिस्ट का. एक मैसेज कुछ सेकेंड्स में अपने सभी इष्ट-मित्रों को कैसे भेजा जाये - इन वन स्ट्रोक. बस फिर क्या था. वर्मा जी को मज़ा आ गया. आनन-फानन में दो-ढाई सौ लोगों को लिस्ट में डाल दिया. अब वन-वे ज्यादती शुरू हो गयी. अपना गाना स्टारमेकर पर बनाया और झेल दिया. कोई उल्टा-पुल्टा ब्लॉग लिखा और टिका दिया. ये तो भला हो कि टेक्नॉलोजी अभी थोड़ी कम एडवान्स है, वर्ना इतने लप्पड़ पड़ते कि बुद्धि हरी हो जाती. 

बहरहाल उन्होंने अपने टाइम पास का आदर्श मूल्य स्थापित करने के उद्देश्य से गुड मॉर्निंग मैसेजेज़ भेजने का निर्णय लिया. स्टारमेकर और ब्लॉग्स का नम्बर तो हफ़्ते दस दिन में आता है. तब तक सबको शुभकामना सन्देश ही भेज दिया करें. उनको उनके इस नेक इरादे ने आनन्द से विभोर कर दिया. दूसरों की लाइक्स और डिसलाइक्स की परवाह करने की उम्मीद किसी को नहीं होनी चाहिये क्योंकि इस गुनाह में हर कोई कम या ज़्यादा शामिल है. कौन परवाह करता है कि टिकटॉक और मौज का कचरा न फैलाये. लेकिन जब और लोग नहीं मानते तो वर्मा जी भला क्यों मानें. उन्होंने अपना वन-वे प्रसारण जारी रखा. वर्मा जी नियम से प्रतिदिन प्रातः लोगों को गुड मॉर्निंग भेजने लगे. अब भेजने का काम तो कर दिया लेकिन किसने देखा किसने नहीं ये जानने का उनका काम और बढ़ गया. पहले तो थोडा समय बच भी जाता था लेकिन अब समय काटने की कोई चिंता न थी. पहले एक मैसेज भेज दो फिर चेक करो किस-किस का टिक डबल हुआ और किस-किस का हरा. लेकिन इस काम से जल्दी बोर हो गये. नतीजा नेकी करके दरिया में डालना ही समझदारी थी. भेज दिया तो भेज दिया कौन देखे किसने देखा या नहीं.

लेकिन जैसे पहले भी बताया जा चुका है कि लोग आज कल अपने को व्यस्त दिखाने के चक्कर में नोटिफिकेशन ऑफ़ करके बैठ जाते हैं ताकि वो तो मैसेज देख लें लेकिन किसी को पता नहीं चले कि उन्होंने देखा. काफी दिनों से वर्मा जी ने मैसेज का डिलीवरी स्टेटस देखना बन्द कर रखा था. एक दिन फुर्सत में देखना शुरू किया तो देखा कई लोगों का मैसेज महीनों से हरा नहीं हुआ था. करोना काल में ये वाट्सएप्प और फेसबुक ही था जिसने लोगों  को डीप डिप्रेशन में जाने से बचा लिया. यदि किसी ने मैसेज नहीं देखा तो वर्मा जी की चिन्ता स्वाभाविक थी. सभी तो नाते-रिश्तेदार-दोस्त थे. उनसे रहा नहीं गया डरते-डरते फोन लगा दिया कि कहीं कोई अप्रिय समाचार न सुनने को मिले. उधर से दोस्त की खनकती हुयी आवाज़ सुन कर जान में जान आयी. क्या यार बहुत दिनों बाद फोन किया. इधर तो दूसरी वेव बहुत सख्त गुज़री. हर कोई किसी न किसी रूप से इससे प्रभावित हुआ है. तुम सभी ठीक हो न. वर्मा जी देसी अंदाज़ में आ गये. दो-चार सम्पुट लगा कर बोले  - अबे साले रोज-रोज गुड मॉर्निंग भेज रहा हूँ, तुम हो कि देखते ही नहीं. मुझे तो बहुत चिंता हो गयी. पता नहीं क्या क्या सोच लिया. दोस्त ने जवाब दिया - यार कम पापी थोड़ी न हूँ. अभी नम्बर नहीं लगने वाला. क्या बताऊँ दोस्त मैंने वाट्सएप्प का नोटिफिकेशन ऑफ़ कर रखा है. नहीं तो लोग समझते हैं वर्क फ्रॉम होम के नाम पर घर पर ऐश कर रहा है. भाई आज कल यही सब तो टाइम पास है. देखता मै रोज था, बस रिस्पोंस नहीं करता था. लोग भी न इतना सारा गुड मॉर्निंग ज्ञान भेज देते हैं कि मोबाइल की मेमोरी रोज फुल. डिलीट करते करते हालत ख़राब हो जाती है. मै तो मॉर्निंग मैसेज खोलता भी नहीं. मेरी राय मानो तो स्टेटस पर अपना गुड मॉर्निंग भेज दिया करो. बिना किसी प्राइवेसी के, जिसे चाहिये होगा देख लेगा और तुम्हें भी इतने लोगों को भेजने के लिये ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी. आइडिया में दम था. वर्मा जी ने उसे अपना लिया. अब ब्रॉडकास्ट करने के बाद उसी मैसेज को स्टेटस पर भी डाल देते. टिक के हरे होने की चिन्ता समाप्त. बस फ़र्क इतना था कि अब उनकी गुड मॉर्निंग विशेज़ कॉन्टैक्ट लिस्ट के हर व्यक्ति तक उपलब्ध थीं. लेकिन क्या फ़र्क पड़ता है. 

उनका जो फ़र्ज़ है, वो अहल-ए-सियासत जानें 

मेरा पैग़ाम मोहब्बत है, जहाँ तक पहुँचे 

(जिगर मुरादाबादी)

- वाणभट्ट 


रविवार, 30 मई 2021

सहानुभूति

उसने जब कमरे में प्रवेश किया तो उसे उम्मीद थी कि वो कुछ सहानुभूति से पेश आयेगा. लेकिन ऐसा कम ही होता है कि जिसकी जब-जहाँ-जिससे आपको उम्मीद हो वो तब मिल जाये जब आप चाहें. डॉक्टर की फ़ीस ज्यादा थी और भीड़ भी उसी हिसाब से कम नहीं थी. यही चलन है कि जो जितना महँगा उतना ही अच्छा मान लिया जाता है. सस्ते डॉक्टर का इलाज सस्ता होता है और मँहगे का मँहगा. डॉक्टर को भी लगता है कि जो मेरी फ़ीस अफ़ोर्ड कर सकता है तो दवाई का खर्च भी निकाल ही लेगा. सभी अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे. सबको नम्बर अलॉट कर दिये गये थे. कोई आपा-धापी नहीं थी. वेटिंग लाउन्ज सुविधाजनक और वातानुकूलित था. उसे लगा उसने यहाँ आ कर कोई गलती नहीं की बल्कि पहले आ जाता तो जितना दर्द उसने झेला उससे बच जाता.  

लोगों की भीड़ देख कर उसका भरोसा डॉक्टर पर और बढ़ गया. उसका ख़ुद पर भी कॉन्फिडेंस कुछ बढ़ गया कि वो अकेला नहीं है. बहुत हैं उसकी तरह मानसिक बीमारी के शिकार. ये तो भला हो सहयोगियों का जिन्होंने उसे ये राय दी कि परेशान होने से अच्छा है कि एक्सपर्ट एडवाइज़ ले ही लो. ये बात अलग है कि सब उसे पीठ पीछे मेन्टल बुलाने लगे थे. लेकिन उसके पास बुरा मानने की गुंजाईश नहीं थी. उसकी स्थिति का हसन साहब की ग़ज़ल में ज़िक्र भी है - उनसे अलग मै रह नहीं सकता इस बेदर्द ज़माने में.  

आख़िर उसका नंबर भी आ गया. उसके पहले जो पेशेन्ट अन्दर गया था उसकी दबी हुयी सिसकियाँ बन्द दरवाज़े नहीं रोक पाये थे. उसे लगा कि डॉक्टर की आँखों में भी कुछ पानी ज़रूर उतरा होगा. लेकिन जब वो अन्दर पहुँचा तो डॉक्टर निर्विकार सा चेहरा बनाये मेज की दूसरी बैठा था. मानो इसके पहले वाला कोई गीता का ज्ञान बाँट कर गया हो. दूसरों का दुःख - दर्द सुनना उसका पेशा है. वो उसी तरह निर्लिप्त भाव से सबके दुखड़े सुनता जैसे सन्त लोग सांसारिक लोगों के कष्ट. अन्दर ही अन्दर मज़ा लेते रहते हैं कि बेटा हम क्या उल्लू के पट्ठे थे जो माया-मोह का त्याग कर आये. लेकिन यदि महात्मा जी की कुण्डली खंगाली जाये तो बहुत सम्भव है उनकी इस वानप्रस्थी के मूल में हेमा-रेखा-जया और सुषमा छिपी पड़ी हों. 

फ़ीस भले ही ज़्यादा थी लेकिन पेशेन्ट के लिये बमुश्किल  दस से पन्द्रह से मिनट का समय था डॉक्टर के पास. इसलिये सीधे मुद्दे पर आ गया. क्या परेशानी है। वो तो पहले से ही गुब्बारे सा भरा बैठा था, बस सुई चुभाने की देर थी. अपने अन्दर के झंझावातों को रोक पाना उसके लिये असम्भव सा था. सारा दुःख-दर्द उड़ेल कर रख दिया। पता नहीं कितने वर्षों का लावा था जो ज्वालामुखी फटने का इंतज़ार कर रहा था. सारी सीमायें तोड़ कर बह निकला। डॉक्टर पूरे इत्मीनान से उसकी बात या यूँ कहें बकवास को झेलता रहा। उसने भी कोई बात ऐसी नहीं समझी जिसे वो छुपाना चाहता हो। आखिर शहर का सबसे मँहगा मनोरोग चिकित्सक था। जब इतनी फ़ीस ले रहा है तो सुनेगा कैसे नहीं। वो अपने उद्गार एक नोट बुक में लिख कर लाया था। कोई बात छूट नहीं जाये।  डॉक्टर ने शायद पेशेन्ट के ठीक पीछे घडी लगा रखी थी। सुनने का समय 8 से 10 मिनट और सुनाने के लिये 5 से 7 मिनट. हर पेशेन्ट से पहले ही अश्योरेंस सर्टिफिकेट पर साइन करा लिया जाता था कि वो अपनी मर्ज़ी से इस इलाज के लिए यहाँ आया है. उसकी सारी बात रिकॉर्ड की जा सकती है जिसका उपयोग सिर्फ़ और सिर्फ़ शोध के लिये किया जा सकेगा और उसे डॉक्टर और मरीज़ के बीच पूर्णतः गुप्त रखा जायेगा. 

सुनते समय डॉक्टर के चेहरे के हाव-भाव उसी भैंस की तरह लग रहे थे जो बीन बजाते समय पगुराना पसंद करती है. 8 मिनट होते न होते उसने पेन उठा कर उसकी ओर ऐसे देखने लगा कि अब बस भी करो. बिना कुछ बोले उसने पर्चे पर दवाइयां लिखना शुरू कर दिया था. और इन जनाब के दर्द का गुबार कम होने का नाम नहीं ले रहा था. डॉक्टर के पास समय की बाध्यता थी. उसकी बात को काटते हुये बोला - दवाइयां लिख दीं हैं. बाहर मेरा केमिस्ट आपको दवाइयां दे भी देगा और समझा भी देगा कि कब-कब और कैसे खानी है. उसे लगा कि उसकी बात अधूरी रह गयी है. डॉक्टर को क्या? उसकी कौन सी बीवी भागी है. लेकिन पैसा पहले ही जमा हो चुका था. बहस की गुंजाईश नहीं थी. चुपचाप खड़ा हो गया. उसे लगा इतनी बात अगर उसने प्रिया को बोल दी होती तो शायद ये नौबत न आती.  

शुरुआत शायद किसी बात पर बोल-चाल बन्द होने से हुयी थी. अब तो उसे ये भी याद नहीं कि उसने क्या कहा था. लेकिन लिव इन में 5 साल रहने के बाद 2 साल की शादी बोझ हुयी जा रही थी. आवश्यकताओं और उम्मीदों की कसौटी ज़िन्दगी पर कब हावी हो जाती है, पता भी नहीं चलता. दोनों को लगता वो एक-दूसरे के लिये अपने-अपने कैरियर का त्याग कर रहे हैं. बिना कहे-सुने फ़ासले इस कदर बढ़ गये कि साथ न रहने का निर्णय करने में दोनों को कोई झिझक नहीं हुयी. अब जब अकेला था तो कैरियर का पूरा फैलाव सामने था, लेकिन क्यों और किसके लिये बस ये ही नहीं पता. 

उसकी बेचैनी और परेशानी का सबब सुनने के लिये किसके पास फ़ुर्सत थी. और जॉब के बाद सोचने के लिये उसके पास समय ही समय था. उसे लगता कि कोई चाहिये जो उसकी बात को सुने उसे समझे. वो गलत नहीं था. जितना वो चुप रह कर संयत दिखने की कोशिश करता अन्दर की बेबसी उसे और बेचैन-परेशान कर देती. बहुत दिनों से वो अपने अंदर उठे हुये ग़ुबार को टालता जा रहा था। फिर उसे लगने लगा उसके हाव-भाव से लोग उसके अन्दर झाँक रहे हैं। हर किसी पर उसे शक होता, लगता जैसे सब उसके मन की अन्तर्व्यथा को पढ़ लेते हैं. और मन ही मन उसका उपहास उड़ा रहे हैं. हर कोई उसे अपने विरुद्ध साजिश करता नज़र आता. मनोरोग के बारे में उसने इंटरनेट खंगाल डाला। सारे श्री-श्री लोगों का ज्ञान पढ़ डाला. लेकिन वो जितना ही उसमें अन्दर जाने का प्रयास करता, वो ख़ुद को उतना ही अकेला पाता। अपनी महफ़िल लूट लेने की जिस आदत पर कभी उसे गुमान था, अब उसे जी का जंजाल लगने लगीं थीं। पार्टियों में उसने पहले की तरह शामिल होने की कोशिशें ज़रूर कीं, लेकिन मन न लगा. गम कम करने की फिराक़ में उसकी सारी कहानी पीने-पिलाने वाले ग्रूप को पूरी तरह कंठस्थ हो गयी थी. उन्हें ये तक मालूम था कि आउट होने के बाद ये क्या-क्या बकेगा और कब कब इमोशनल हो कर टेसू टपकायेगा. उनका भी मूड ख़राब हो जाता इसलिये वो भी कटने लगे थे. 

कभी वो पूरी तरह आदर्शवादी हुआ करता था. उसे ये नहीं मालूम था कि जिन आदर्शों के पीछे वो सबसे लड़ता फिरता है, वही उसे एक दिन अकेला कर जायेंगे। कुण्ठाओं की शुरुआत तो कहीं बचपन में ही हो गयी थी। पिता जी भ्रष्ट विभाग के ईमानदार अधिकारी थे। उनके अलावा उनके बारे में विभाग का कोई सीनियर या जूनियर अच्छी राय नहीं रखता था। सरकारी आवास में रहने के कारण माता जी को अड़ोस-पड़ोस से उनके ईमानदारी के चोचलों की ख़बर मिलती रहती थी। जो मियाँ-बीवी की दैनिक कलह का कारण बन चुकी थी। उनके नारी स्वभाव को पड़ोसियों की पत्नियों में रौब गाँठने का मौका चाहिये होता था। उन्हें अपने कपड़ों-लत्तों-मेकअप पर शर्म आया करती। बेटे विस्तार को पढाई की पूरी सुविधा थी लेकिन जहाँ माँ-बाप अपने ही प्यार को अँधेरे में टटोल रहे हों वहाँ बच्चे के बारे में कौन सोचता. जिस देश की भाषा में तलाक़ या डाइवोर्स जैसा शब्द ही न हो वहाँ बिना प्यार के विवाह  हो जाना कोई अजूबा नहीं है. प्रेम-विहीन दाम्पत्य में बच्चों की संख्या में वृद्धि हो जाना सहज सी बात लगती है. लेकिन बच्चों में भावनात्मक परिपक्वता का नितांत आभाव होना स्वाभाविक होता है. विस्तार पहला इशू था और चार बच्चों के बाद अंत हुआ इति से.

विस्तार के लिये पढ़ाई के अलावा ज्यादा विकल्प तो थे नहीं. जिन बच्चों के परिवार में माँ-बाप ही आपसी तादात्म्य बनाने में व्यस्त हों, वहाँ बच्चों को अपना ख्याल ख़ुद रखने की आदत जल्दी पड़ जाती है. हाँ, जिस पेरेंटल प्यार की बचपन में सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, वो उससे वंचित रह जाते हैं. और उसे दूसरों में खोजने की कोशिश करता है. इस प्रक्रिया में वो अपने और अपनों से दूर होता चला जाता है. सही लोग उससे सहानुभूति रखते हैं और गलत लोग उसकी भावुकता का फ़ायदा उठाने से बाज नहीं आते. इतने धोखे और झटके खाने के बाद भी जो नहीं बदली थी वो थी उसकी नये-नये दोस्त बनाने की प्रवृत्ति. पता नहीं कितने दोस्त बने और कितने छूटे. दोस्ती कोई स्थायी थोड़ी न होती. दोस्ती तो अमूमन फटे की यारी होते हैं. साथ पढ़े या साथ काम कर रहे हैं तो कुछ सम्बन्ध को नाम देना पड़ता है. जगह बदली तो दोस्तों का बदल जाना लाज़मी है. रिश्ते चाहे कैसे भी हों, कितनी भी दूर हों, स्थायित्व का आभास तो जरुर देते हैं.

जीवन में जो कुछ अच्छा हुआ वो प्रिया के आने के बाद हुआ था. प्यार की दरकार तो उसे हमेशा से थी. जब प्रिया ने उसे अप्रोच किया तो उसके पास ना करने का कोई कारण नहीं था. दोस्ती कॉलेज के ज़माने से थी और बाकी दोस्त भी कॉमन ही थे इसलिये उन्हें शादी से पहले ही साथ रहने में कोई झिझक रही हो ऐसा नहीं था. यदि पत्नी में वो सारे गुण हों जो दोस्तों को भी पसन्द हों तो कुछ दोस्तियाँ पक्की सी हो जाती हैं. प्रिया को जल्दी ही समझ आ गया कि प्यार विस्तार की सबसे बड़ी ताकत है. वही उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी भी थी. किसी भी बात के लिये विस्तार को इशारों पर नचाना उसका पसन्दीदा शगल बन गया. विस्तार भी उसे हर हाल में खुश करने को राजी था. इसलिये दोस्तों द्वारा दिये उपनाम 'जोरू का ग़ुलाम' से भी उसे कोई आपत्ति नहीं थी. न्यूक्लियर फ़ैमिली की ये ख़ासियत होती है कि जब तक साथ हैं तब तक हैं जब भी जरा ग़लतफ़हमी हुयी तो बाक़ी लोग सिर्फ़ घी डालते नज़र आते हैं. इनके यहाँ जब सारी बातें विस्तार को ही माननी थीं तो किसी प्रकार की गड़बड़ी की कोई सम्भावना ही नहीं थी. फ़र्क तब पड़ा जब छोटे भाई-बहनों ने कहना शुरू कर दिया कि बुज़ुर्ग होते माँ-बाप सिर्फ़ हमारी जिम्मेदारी नहीं हैं. तय ये हुआ कि चारों बच्चे तीन-तीन महीने पेरेन्ट्स को अपने पास रखेंगे. विवाह के पश्चात् पहली बार विस्तार को कोई स्टैण्ड लेना पड़ा था. लेकिन प्रिया इसके लिये तैयार नहीं थी. वादे के मुताबिक़ जिस दिन माँ-पिता जी ने घर में कदम रखा प्रिया ने अपना फैसला सुना दिया. विस्तार सहृदय ज़रूर था लेकिन कहीं दिल के कोने में छिपा उसके अन्दर के पुरुष अड़ गया. नतीजा उसकी उम्मीद से कहीं ज़्यादा भयावह निकला. 

तीन महीने के बाद उसे उम्मीद थी कि सब कुछ वापस नार्मल हो जायेगा. लेकिन नहीं हुआ. कुछ लोगों के लिये प्रेम का अर्थ पूर्ण समर्पण होता है. प्रिया कुछ ऐसी ही थी. अब विस्तार के लिये ख़ुद को सम्हालने की बारी थी. यार-दोस्त उसका गम गलत करने के लिये हर शाम इकठ्ठा हो जाते थे. बहुतों के घर में परिवार के सामने पीने की मनाही थी. उन्हें एक परमानेन्ट अड्डा मिल गया था. जल्दी ही विस्तार को दोस्ती-यारी-प्यार सबके मायने समझ आ गये. जब तक वो झेलता रहा दोस्तियाँ बरकरार रहीं. जिस दिन खुल कर मना किया, दोस्ती के सारे कस्मे-वादे हवा हो गये. उसे आज से पहले कभी इतना अकेलापन नहीं लगा था. पहली बार उसने अपने लिये अकेले बोतल खोली थी. जितना वो अपने डिप्रेशन से उबरने की कोशिश करता उतना ही और डूबता जाता. 

कुछ शुभचिंतकों की सलाह पर उसने चिकित्सकीय परामर्श लेने का निर्णय लिया. उसे उम्मीद थी कि अपना हाल-ए-बयाँ करने के बाद उसका दर्द कुछ कम हो जायेगा. लेकिन डॉक्टर का तो ये पेशा है उसे अपनी प्रैक्टिस के छह घंटों में अधिक से अधिक लोगों का दर्द कम करना है. विस्तार की कहानी चाहे कितनी ही दर्द भरी और लम्बी हो, उसके पास बमुश्किल पन्द्रह मिनट ही थे. फिर भी विस्तार को अच्छा लगा कि बहुत दिनों बाद ही सही किसी ने उसको सुना. ये सिलसिला चल निकला. महीने में एक बार वो डॉक्टर के पास आता और अपनी व्यथा कथा बता कर फारिग हो लेता. डॉक्टर भी दवाइयों में थोड़ी बहुत तब्दीली कर अपनी फ़ीस को जस्टिफाई कर देता. 

आज विस्तार कुछ ठान कर आया था. उसने कमरे में घुसते ही डॉक्टर की आँख में अपनी आँख डाल  दी. डॉक्टर साहब 6 - 8 महीने होने को आये आप कर क्या रहे हो. सिर्फ़ मेरी कहानी सुनते हो और इतनी मोटी फ़ीस झाड़ लेते हो. मँहगी मँहगी दवाइयाँ लिख देते हो. ऐसा कब तक चलेगा. डॉक्टर को रीएक्ट न करने की ट्रेनिंग मिली थी. तटस्थ भाव से उसे बोलते हुये देखता रहा. जब विस्तार को लगा कि बहुत बोल चुके तो वो अपने आप चुप हो गया.  

पहली बार डॉक्टर मुस्कुराया होगा. बहुत छोटी सी बात थी तुम्हें अब समझ आयी. जब तुम अपने आप में नहीं थे, तुम्हें मेरी और दवाइयों की ज़रूरत थी. ये ज़िन्दगी तुम्हारी है, जिसकी बागडोर तुम्हें अपने हाथ में रखनी होगी. नहीं तो सब तुम्हें इधर-उधर घुमाते रहेंगे. मेरा काम ही है दूसरों को उनके पैरों पर खड़ा करना. मुझे तुम्हारी सारी परेशानियों का अंदाज़ है लेकिन मै भी यदि तुमसे सहानुभूति दिखाने लगता तो तुम अपने ही बनाये जाल में उलझ के रह जाते. इन परिस्थितियों में लोग दूसरों से सहानुभूति की आशा पाल लेते हैं. और लोग भी उन्हें दया का पात्र समझ कर कुछ शब्द बोल देते हैं. कभी कभी परेशानियों से उबरने में समय लगता है. कोई भी परेशानी ज़िन्दगी से बड़ी नहीं है. जीवन में जीवन से बड़ा सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारा स्वास्थ्य है. कोई किसी के संग नहीं आता-जाता. सब अकेले हैं. जीवन छोड़ते जाओ तो छूटता चला जाता है. जीना है तो छोड़ना कुछ नहीं. सुख और दुःख दोनों जीवन के हिस्से हैं. तुम्हारे हिस्से सिर्फ़ सुख ही सुख आयेगा ऐसा नहीं है. जीवन जीना है तो उसकी आँख में आँख मिला कर देखना पड़ेगा जैसे आज तुम मेरी ओर देख रहे हो. भागने से काम नहीं चलेगा. जिंदगी बहुत लम्बी है. ज़िन्दगी का नज़रिया बदलना पड़ता है. आज के बाद शायद तुम्हें मेरी जरूरत नहीं पड़ेगी. और पड़ेगी तो बेहिचक चले आना. बस पन्द्रह सौ ही तो कंसल्टेशन फ़ीस है तुम्हारी व्यथा-कथा सुनने की. 

- वाणभट्ट

घोषणापत्र

हर तरफ़ चुनाव का माहौल है. छोटी-छोटी मोहल्ला स्तर की पार्टियां आज अपना-अपना घोषणापत्र ऐसे बांच रहे हैं मानो केन्द्र में सरकार इनकी ही बनने व...