बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

कर्तव्य परायणता

कर्तव्य परायणता

साथियों आज सुबह से बचपन में पढ़ी एक कहानी कर्तव्य परायणता बार-बार याद आ रही है।  लेखक का नाम बहुतेरा याद करने पर भी नहीं याद आ रहा है। कोई सुधि पाठक गण मेरी मेमोरी रिफ्रेश करें तो मेहरबानी होगी। मेरा ख्याल काका कालेलकर या वियोगी हरि जी से आगे नहीं जा पा रहा है। 

बहुत छोटी घटना पर आधारित थी ये कहानी। लेखक महोदय किसी नाई के यहाँ बाल कटवाने पहुँचते हैं। वहाँ आरा मिल में काम करने वाला एक मजदूर भी बैठा होता है। उसके बाल धूल और बुरादे से बुरी तरह गंदे और चीकट हो रक्खे थे। लेखक को एक आस जगती है कि शायद नाई उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर मजदूर से पहले उनके बाल काट दे। पर नाई न सिर्फ पहले से बैठे मजदूर को वरीयता देता है बल्कि लेखक को रुखाई से मना कर पूर्ण तन्मयता से मजदूर के बाल काटने में जुट जाता है। लेखक उसकी कर्तव्य परायणता से अभिभूत हो जाता है। 

आज की घटना भी कुछ ऐसी ही थी। ट्रेन आई तो जनरल कोच पूरी तरह से ठुंसा पड़ा था। दिल्ली से ही लॉन्ग रूट की ट्रेनों के जनरल कोच को पुलिसिया सहायता से भर दिया जाता है और यात्रियों को गेट न खोलने की हिदायत भी दे दी जाती है। सुबह तड़के कानपुर जब ट्रेन आई तो सामान्य यात्री कोच की स्थिति कुछ इसी प्रकार थी। कोच ठसाठस भरा पड़ा था और कोई गेट खोल के भी राजी न था। चूँकि घर से निकल पड़े थे तो यात्रा करना लाज़मी था। जब जेब में पैसे हों तो नियम-कानून को अपनी जेब में रखना हर सम्माननीय भारतीय का कर्तव्य भी बन जाता है। इसलिए स्लीपर कोच में पदार्पण करने में ज़रा भी हिचक महसूस नहीं हुई। इधर यात्रायें जीवन का एक हिस्सा सी बन गयीं हैं इसलिये गंतव्य तक पहुँचना प्राथमिकता बन गया है और यात्रा का माध्यम लगभग गौण। 

उसी कोच में एमएसटी वाले बन्धु-बांधवों को चढ़ते देख रहा-सहा संकोच भी जाता रहा। संयोग से ऊपर की एक खाली बर्थ भी मिल गयी सो अपन वहीं लम्ब-लेट हो लिये। रोज यात्रा करने वाले अपने मस्त अंदाज़ में सो रहे यात्रियों से चुहलबाजियों में लग गए। ये उनका रोज का शगल था। कोई कहीं अटक लिया तो किसी ने सोते यात्री को सूचना दी कि भाई सूरज निकल चुका है अब उठ के बैठने में ही आपकी और हमारी भलाई है। टी.टी. को आना ही था और वो आया भी।

स्लीपर कोच में सिर्फ स्लीपर के यात्री रहे हों ऐसा भी न था। कुछ बाथ रूम के पास खड़े थे कुछ ज़मीन पर ही अखबार बिछा कर हसीन सपनों में खोये पड़े थे। टी.टी. जब कोच में घुसा तो पहले से यात्रा कर रहे यात्रियों के अलावा सभी की आबो-हवा कुछ बदल सी गयी। सरकार ने एक काम बहुत अच्छा कर रक्खा है कि जिन पदों में आम जनता को काट खाने की ताक़त दी है, उन्हें एक ख़ास वर्दी भी दे दी है। ताकि लोग उन्हें पहचानने में भूल न करें और सतर्क हो जायें कि किस-किस से बच के रहना है। काला कोट ही टी.टी. को आम आदमी से अलग कर रहा था। चेहरे पर सरकार की ड्यूटी पर होने का दर्प भी साफ़ झलक रहा था। साथ में ऑटोमेटिक गन लिए एक पुलिसिया उसके आभामंडल को और भी दैदीप्यमान कर रहा था। मैंने पर्स से पचास का नोट निकाल कर ऊपर की जेब में रख लिया। टीवी पर स्टिंग ऑपरेशन्स में जब से बड़ों-बड़ों को बिकते देख लिया है, तब से आम हिन्दुस्तानी का भरोसा बढ़ सा गया है। बाबू जी तुम क्या-क्या खरीदोगे, यहाँ हर चीज़ बिकती है।  

इन वर्दी वालों की घ्राण शक्ति बहुत ही विकसित होती है। ये सूँघ कर लक्ष्मी मैया का अता-पता ढूँढ निकलते हैं। सारे एमएसटी वालों को छोड़ता हुआ वो मेरी बर्थ के सामने खड़ा हो गया। जिनके लिए घर से बाहर निकला हर एक शख्श एक चलता-फिरता एटीएम है वो जमीन में गड़े खजाने की खोज में दिलचस्पी नहीं रखते। उसमें मेहनत ज्यादा है और चारों ओर जनता, प्रेस और मिडिया का जमावड़ा रहता है। कुछ निकल भी आया तो इन सबके रहते कुछ मिलना ना-मुमकिन है। इसलिए ये बड़े खज़ानों को छोड़ कर छोटे किन्तु अवश्यम्भावी ख़जानों में अधिक विश्वास रखते हैं। आखिर बूँद-बूँद से ही तो सिन्धु बना है। 

उसने कड़क अंदाज़ और रौबीली आवाज़ में मेरा टिकट माँगा। मैंने जनरल का टिकट उसके हाथ में थमा दिया। उसने निस्पृह भाव से टिकट देखते हुये बताया कि ये तो जनरल का टिकट है और आप स्लीपर क्लास में बैठे हैं। क्लास शब्द को उसने कुछ ऐसे एम्फेसाईज़ किया मानो मै एसी कोच में घुस गया हूँ। मैंने बताया जनरल कोच में तिल रखने की भी जगह नहीं थी और कोई दरवाजा भी नहीं खोल रहा था। उसने छूटते ही कहा ये मेरी समस्या नहीं है। अगर आपको स्लीपर में यात्रा करनी थी तो रिज़र्वेशन करा कर ही अन्दर घुसना था। पढ़े-लिखे आदमी हैं आप तो स्लीपर और जनरल का फ़र्क नहीं जानते। आजकल मुझे पढ़े-लिखे शब्द से चिढ हो गयी है। पढ़े-लिखे लोगों ने ही तो देश का नाश पीट रक्खा है। अगर वो ही सुधर जाते तो देश की दशा और दिशा बदल चुकी होती। पढ़-लिख के आदमी दब्बू और डरपोक बन गया है। मैंने सीरियसली कहा - भाई कुछ भी बोल ले पर पढ़ा-लिखा बोल के दुखी न कर। उसे लगा मै इस विषम परिस्थिति में उससे मजाक कर रहा हूँ। उसकी वर्दी और उसमें निहित उसके अहंकार को घनघोर ठेस लग चुकी थी।बोला जानते हैं डिफ़रेंस और पेनाल्टी मिला के चार सौ देने पड़ेंगे। ये कहते हुए उसने रसीद बुक अपने कोट की जेब से निकाल ली और उसके पन्नों के बीच कार्बन ठीक करने लगा।  

उसी क्षण मुझे कर्तव्य परायण नाई की याद आ गयी। मेरा सबाका एक देशभक्त और कर्तव्य परायण टी.टी. से हो चला था। जो आज मेरी पेनाल्टी काट कर ही मानेगा। ये आज के युग का एक रेयर फेनोमेना था। उसने पैसे की कोई डिमांड भी नहीं रक्खी और पेन-वेन खोल के तैयार। जेब में जब पैसे हों तो आत्मविश्वास वैसे ही रहता है जैसे स्कूटर चलाते समय हेलमेट की सुरक्षा। मैने पचास का नोट ऊपर की जेब से निकाल लिया। उसने प्रश्नवाचक नज़रों से मेरी ओर देखा। ये क्या है। मुझे अपना पर्स निकालना ही पड़ गया। मैने कहा - फुटकर नहीं है। उसने मेरे पर्स के अन्दर निगाहें गड़ा दीं। हज़ार-पांच सौ के नोटों के साथ एक सौ का नोट भी निकल आया। उसने लपक कर सौ का नोट पकड़ लिया और बोला - भाई साहब आपको इलाहाबाद तक ही तो जाना है। इतनी दूर के लिए खामख्वाह पेनाल्टी लेना हमें भी अच्छा नहीं लगता। आप पढ़े-लिखे आदमी हैं, मज़बूरी न होती तो क्या स्लीपर में घुसते। 

मै मुस्कराते हुए बोला यार सुबह-सुबह पढ़ा-लिखा तो मत बोल। तब से इसी उधेड़-बुन में हूँ। पहले के जमाने में एक अनपढ़ नाई कर्तव्य परायण हो सकता है। पर आज़ादी के साठ सालों के बाद भी देश का पढ़ा-लिखा तबका कर्तव्य परायणता से कोसों दूर है। 

कहानी के लेखक का नाम यदि किसी को पता हो तो अवश्य बताइए। इंतज़ार रहेगा। 

- वाणभट्ट

ऑर्गेनिक जीवन

मेडिकल साइंस का और कुछ लाभ हुआ हो न हुआ हो, आदमी का इलाज जन्म के पहले से शुरू होता है और जन्म के बाद मरने तक चलता रहता है. तुर्रा ये है कि म...